
Bisleri for Sale: बिसलेरी के बनने और बिकने की कहानी
Bisleri for sale: बिसलेरी की कहानी कोई अनहोनी जैसी नहीं है। गांव से जब कोई व्यक्ति निकलकर शहर आता है और रूपये पैसे कमा लेता है तो गांव की संपत्ति उसके लिए बोझ लगने लगती है। या तो वह उसे बेच देता है, या फिर ऐसे ही छोड़ देता है।

भारत में बोतलबंद पानी के सबसे चर्चित ब्रांड बिसलेरी के साथ जो हुआ है वह बिल्कुल ऐसा ही है। बस फर्क इतना है कि बिसलेरी के मालिक रमेश चौहान की उत्तराधिकारी गांव से शहर जाने की बजाय देश से विदेश जाकर बस गयी है। अब वह लौटकर भारत नहीं आना चाहती। इसलिए रमेश चौहान ने तय किया है कि वो बिसलेरी का सारा कारोबार बेच देंगे। रमेश चौहान पारले एग्रो समूह के मालिक हैं जिसके तहत बिसलेरी का कारोबार होता है।
भारत में पारले बिस्कुट के बारे में भला कौन नहीं जानता। करोड़ों भारतीयों के लिए पारले बिस्कुट बचपन का प्यार है। मुंबई में इस पारले कंपनी की स्थापना 1929 में वलसाड़, गुजरात से आये मोहनलाल चौहान ने की थी।
मोहनलाल चौहान सिलाई का काम करते थे। उन्हें इस काम से पर्याप्त आमदनी नहीं हो रही थी इसलिए उन्होंने स्नैक्स बनाकर बेचना शुरु किया। उनका यह काम जम गया और इस तरह 1939 में उन्होंने उसी जगह के नाम पर बिस्कुट फैक्ट्री डाल दी।
पारले गांव या विले पारले मुंबई का एक उपनगर है जहां मोहनलाल चौहान ने बिस्कुट फैक्ट्री लगाई। इसी जगह के नाम पर उन्होंने अपने बिस्कुट ब्रांड का नाम पारले रखा। समय के साथ उनके बिस्कुट की मिठास ऐसी बढी कि देशभर में बिस्कुट का सबसे पसंदीदा ब्रांड बन गया।
एक ऐसा देश जो ब्रेड बटर कल्चर की बजाय रोटी दाल की संस्कृति को जीता था, वहां बिस्कुट को इतने व्यापक स्तर पर बेचना उस समय इतना आसान तो नहीं रहा होगा। लेकिन चौहान परिवार ने जहां एक ओर बिस्कुट को घर घर पहुंचाया वहीं पारले को एक विश्वसनीय ब्रांड भी बनाया।
मोहनलाल चौहान के पांच बेटे थे, मानकलाल, पीतांबरलाल, नरोत्तम, कांतीलाल और जयंतीलाल चौहान। इनमें सबसे छोटे जयंतीलाल अपने बाकी भाइयों से अलग रहना चाहते थे। ऐसे में 1950 में कंपनी का पहला बंटवारा हुआ और चार भाई एक ओर हो गये जबकि जयंतीलाल अलग हो गये।
जयंतीलाल के हिस्से में पेय पदार्थ का व्यवसाय आया जिसके लिम्का तथा थम्सअप जैसे स्थापित ब्रांड बने। बाकी भाई पारले बिस्कुट और भविष्य में उससे जुड़े ब्रांड संभालने लगे। आज भी चार भाइयों का परिवार संयुक्त रूप से पारले बिस्कुट और उससे जुड़े सभी ब्रांड सभालता है।
परिवार से अलग हुए जयंतीलाल के दो बेटे हुए। प्रकाश और रमेश चौहान। उनके हिस्से में आयी पारले एग्रो के भी दो हिस्से हुए। 1960 में पारले एग्रो प्रकाश चौहान के हिस्से में आयी जबकि 1970 में पारले बिसलेरी रमेश चौहान को मिली।
पारले एग्रो के तहत आने वाले पेय पदार्थ का व्यापार प्रकाश चौहान की बेटियां संभालती हैं जबकि पारले बिसलेरी का कारोबार रमेश चौहान संभालते हैं। जयंती चौहान इन्हीं रमेश चौहान की बेटी हैं जिनके मना करने के बाद आखिरकार रमेश चौहान ने अपना बोतलबंद पानी का कारोबार बेचने का फैसला किया है।
84 साल के रमेश चौहान ने बिसलेरी को बेचने के फैसले पर जो कहा वो बहुत महत्वपूर्ण है। रमेश चौहान का कहना है कि अब उनका कारोबार संभालने वाला कोई नहीं है। बेटी विदेश में बस गयी है जो वापस लौटना नहीं चाहती और वो नहीं चाहते कि बोतलबंद पानी का इतना लंबा चौड़ा कारोबार उनके न रहने पर नष्ट हो जाए। इसलिए बहुत सोच समझकर उन्होंने बिसलेरी का कारोबार बेचने का फैसला किया। ऐसा अनुमान है कि वो बिसलेरी को टाटा समूह को 7000 करोड़ में बेचने के लिए बातचीत कर रहे हैं।
रमेश चौहान का कहना है कि इस सौदे में उनके लिए पैसा महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है वह ब्रांड जिसे चार लाख रूपये में उन्होंने इटली के एक कारोबारी से खरीदा था, वह मरना नहीं चाहिए। वो एक ऐसे उत्तराधिकारी की तलाश कर रहे हैं जो भारत के सबसे चर्चित बोतलबंद पानी के ब्रांड बिसलेरी को जिन्दा रख सके।
जब कोई व्यक्ति किसी कार्य में अपना जीवन लगाकर उसे खड़ा करता है तो वह भी यही चाहता है जो रमेश चौहान चाहते हैं। मनुष्य को किसी न किसी दिन मरना है लेकिन उसने जिसे निर्मित किया है, उसे अपने मरने के बाद भी जिन्दा रखना चाहता है। रमेश चौहान भी अपने मरने के बाद बिसलेरी को जिन्दा रखना चाहते हैं।
हालांकि जब उनसे यह पूछा गया कि बिसलेरी बेचने पर जो धन उन्हें मिलेगा, उसका क्या करेंगे तो उन्होंने कहा कि वो जल संरक्षण का काम करेंगे। धरती पर जल है तो कल है। इसलिए जिस पानी को बेचकर उन्होंने इतनी बड़ा कारोबार खड़ा किया है, उसी पानी को संरक्षित करने के लिए पूंजी निवेश करेंगे।
पारले समूह ने जब पैकेट में बंद बिस्कुट बेचने का कारोबार शुरु किया था, तब बिस्कुट का चलन नहीं था। लेकिन उन्होंने बिस्कुट ही नहीं बेचा, बिस्कुट का बाजार खड़ा किया। कुछ ऐसा ही बोतलबंद पानी के साथ बिसलेरी का रिश्ता है।
जब 1969 में बिसलेरी ने बोतलबंद पानी के बाजार में कदम रखा था तब बोतलबंद पानी का भारत में कोई बाजार नहीं था। लेकिन आज भारत में बोतलबंद पानी का बाजार 19 हजार करोड़ रुपये से अधिक है। बोतलबंद पानी का कारोबार सालाना 13 प्रतिशत से अधिक की दर से बढ रहा है। शहर ही नहीं दूर दराज के गांव भी अब बोतलबंद पानी का बाजार बन गये हैं।
ऐसे
में
वर्तमान
में
32
प्रतिशत
हिस्सेदारी
वाले
बिसलेरी
का
भविष्य
निश्चय
ही
बेहतर
रहनेवाला
है।
रमेश
चौहान
भले
ही
बिसलेरी
को
बेचते
समय
उससे
भावनात्मक
लगाव
को
छुपा
न
पा
रहे
हों
लेकिन
कारोबारी
दृष्टि
से
बिसलेरी
में
बेहतर
भविष्य
की
संभावना
है।
सिर्फ
टाटा
कंज्यूमर
द्वारा
इसके
खरीदने
की
चर्चा
से
उसके
शेयरों
में
तीन
प्रतिशत
का
उछाल
आ
गया।
लेकिन बिसलेरी के बनने से बिकने के बीच रमेश चौहान ने जिस तरह से उत्तराधिकारी को लेकर हताशा व्यक्त किया है, उससे उनके मन की दूसरी पीड़ा सामने आती है। संभवत: वो बोल नहीं पा रहे हैं लेकिन कहना यही चाहते हैं कि अगर उनका वारिस होता तो आज उन्हें अपने बिसलेरी को लावारिस की तरह बेचना न पड़ता।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)