Nitish Kumar: अपनी ही अवसरवादी राजनीति के घेरे में घिर चुके हैं 'राजाजी'
बिहार की राजनीति इस वक्त अत्यंत ही रोचक और निर्णायक मोड़ पर है। इस मोड़ पर नीतीश कुमार उर्फ राजाजी का युग समाप्त होने वाला है, बिहार की राजनीतिक लड़ाई भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल के बीच केंद्रित होने वाली है।
Nitish Kumar: नीतीश कुमार एक ऐसे नेता हैं, जो बिना कुर्सी के एक भी पल नहीं रह सकते, जैसे कोई मछली बिना पानी के नहीं रह सकती। इस कुर्सी-लोलुपता के कारण ही अपनी स्थिति उन्होंने एक ऐसी फुटबॉल जैसी बना ली, जिसे इधर से किक मारो तो उधर जाता है और उधर से किक मारो तो इधर आता है। लेकिन भाजपा की किक के बाद अब इस बार नीतीश कुमार को राजद ने अपने पैरों तले दबा लिया है।
शुरू-शुरू में भाजपा ने बहुत ईमानदारी से नीतीश कुमार को अपने सिर-माथे पर बिठाया था। उन्हें अपनी पार्टी के नेताओं से अधिक तरजीह दी। जूनियर पार्टनर होते हुए भी 2000 में उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए आगे बढ़ाया। केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में भी रेल, कृषि और भूतल परिवहन जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय देकर उनका कद बड़ा किया। 2005 तक उन्हें इतना मजबूत किया कि वे बिहार में सीनियर पार्टनर बन गए। वे फिर से मुख्यमंत्री बने। भाजपा चट्टान की तरह उनके पीछे खड़ी रही।
गुजरात दंगों के बाद जिस नरेंद्र मोदी की उन्होंने सार्वजनिक मंच से तारीफ की थी और उनसे राष्ट्रीय राजनीति में आने का आग्रह किया था, 2013 में उन्हीं नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के विरोध में भाजपा से गठबंधन तोड़ लिया। उस वक्त तो राजद, कांग्रेस और अन्य के समर्थन से कुर्सी बचाने में वे कामयाब रहे, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में जब अकेले लड़े, तो मुंह की खाई। 40 लोकसभा सीटों में से केवल दो सीटें मिलीं। वोट मिले मात्र 15.80 प्रतिशत।
इसलिए 2015 में राजद-कांग्रेस के साथ महागठबंधन बनाया और अपना अस्तित्व बचाया। लेकिन राजद के बराबर सीटों पर लड़कर भी राजद से कम वोट और सीटें प्राप्त करते हुए महागठबंधन में राजद के जूनियर पार्टनर बन गए। इस कारण जब मूलतः आक्रामक तेवरों वाले उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और लालू परिवार ने उन्हें दबाना शुरू किया, तो अहसास हुआ कि इससे अच्छे तो बीजेपी के ही साथ थे। फिर तेजस्वी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को नैतिक ढाल बनाया और 2017 में वापस भाजपा के साथ आ गए।
अब मोदी की गोदी उन्हें पुनः प्रिय हो गयी थी। "संघमुक्त भारत" की हुंकार भरना छोड़कर उन्होंने फिर से "संघम् शरणम् गच्छामि" का राग अलापना शुरू कर दिया। लेकिन वह यह नहीं समझ पाए कि 2013 से पहले भाजपा उनकी एक वफादार दोस्त और संरक्षक थी, लेकिन उनसे धोखा खाने के बाद अब वह भी मौके की ताक में है।
इसलिए 2019 के लोकसभा चुनाव में अपनी ज़रूरत देखते हुए भाजपा ने उन्हें साथ तो ले लिया, लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में सबक सिखाने की ठानी। चिराग पासवान के सहारे उनकी ताकत को आधा कर दिया, लेकिन नतीजों में सीटों का गणित ऐसा रहा कि यदि वह उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाती, तो भाजपा पर धोखे का आरोप लगाते हुए उसी समय वे फिर से राजद के साथ सरकार बना लेते।
हालांकि उनकी बची-खुची विश्वसनीयता और जनाधार समाप्त करने के लिए भाजपा भी चाहती तो थी कि वो फिर से ऐसा करें, लेकिन इसके लिए मुहूर्त वह अपने हिसाब से निर्धारित करना चाहती थी। इसलिए खुद 74 सीटों वाली भाजपा ने एक बार फिर से 43 सीटों वाले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बना दिया, लेकिन इस बार उनके कंधों पर दो उपमुख्यमंत्री बिठा दिये, यह सुनिश्चित करने के लिए कि वह फिर से अपने असली रंग में आएं और उसके द्वारा तय मुहूर्त पर राजद खेमे के साथ मिलकर सरकार बनाएं। बिल्कुल ऐसा ही हुआ।
मज़े की बात यह कि सिर्फ कुर्सी बचाने के लिए बार-बार अपने आत्मसम्मान की बलि चढ़ाने वाले नीतीश कुमार के राजनीतिक खात्मे के लिए राजद भी इस बार घात लगाए बैठा था। यूज एंड थ्रो पॉलीटिक्स के मास्टरमाइंड नेता को यूज एंड थ्रो करने की स्क्रिप्ट लिखी गई।
अभी बिहार में जो कुछ भी चल रहा है, उसे इसी परिप्रेक्ष्य में देखिए। नीतीश कुमार को चट करने के लिए राजद ने अपने दो-दो मुंह खोल दिये हैं। एक मुंह से वह उन्हें पीएम मैटेरियल बता-बताकर बिहार का मैदान तेजस्वी के लिए खाली करने का दबाव बना रही है, तो दूसरे मुंह से वह उनकी अर्जित तमाम राजनीतिक पूंजी को धूल में मिलाती जा रही है।
इसी साल सितंबर में शिवानंद तिवारी ने कहा कि तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश कुमार को अब आश्रम में चले जाना चाहिए। अक्टूबर में राजद नेता और नीतीश सरकार में कृषि मंत्री सुधाकर सिंह ने यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि कृषि विभाग चोरों का अड्डा है और वह चोरों का सरदार नहीं बने रहना चाहते। उन्होंने जहरीली शराब के कारण राज्य के कई इलाकों में हुई मौतों के लिए भी कहा है कि यह तो नरसंहार है नीतीश जी।
नवंबर में खुद लालू यादव ने भी शराबबंदी को फेल बताते हुए कह दिया था कि उन्होंने तो पहले ही कहा था कि इसे लागू मत करो। एक अन्य बयान में लालू यादव ने यह भी खुलकर कह ही दिया कि वे चाहते हैं कि तेजस्वी मुख्यमंत्री बनें। राजद के अन्य कई नेता भी बीच-बीच में कोई न कोई शिगूफा छोड़ते ही रहते हैं।
इधर, लालू-राबड़ी राज को अब तक जंगलराज बताते रहे नीतीश कुमार जब कुर्सी के लिए दो-दो बार उन्हीं से हाथ मिला लेते हैं, तो अपनी सुशासन बाबू की इमेज भी गंवा देते हैं। इसी तरह, तेजस्वी पर भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण इस्तीफा मांगने वाले और भ्रष्टाचार के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस की बात कहने वाले नीतीश कुमार जब दोबारा उन्हें अपना उपमुख्यमंत्री बनाने के लिए मजबूर होते हैं, तो यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भ्रष्टाचार उनके लिए कोई मुद्दा नहीं है।
इतना ही नहीं, बार-बार भाजपा और आरएसएस के बोतल का दूध पी चुकने के बाद जब वे उनके खिलाफ विषवमन करते हैं, तो सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता जैसे वैचारिक प्रतिबद्धता वाले मुद्दों पर भी कोई उन्हें गंभीरता से नहीं लेता, जबकि भाजपा-विरोधी दलों के लिए आज भी सबसे बड़ा मुद्दा यही है। और सबसे बड़ी बात तो यह कि अब देश में किसी भी राजनीतिक दल या नेता को भरोसा नहीं कि नीतीश कुमार कब कौनसी करवट ले सकते हैं।
लगभग पूरी तरह से धूल में मिल चुकी इसी राजनीतिक पूंजी के सहारे नीतीश कुमार जब 2024 में मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने का इरादा जताते हुए विपक्षी दलों से मिलने देशभ्रमण पर निकले, तो सबने उन्हें संदेह की निगाहों से देखा और किसी ने भी कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया। ऐसा लगता है कि स्वयं नीतीश कुमार भी मन ही मन समझ चुके हैं कि पीएम पद की रेस में वह कहीं नहीं हैं, इसलिए जब तक हो सके मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाना चाहते हैं।
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पिछले एक सप्ताह में लगातार कई बयान देकर उन्होंने तेजस्वी को नेतृत्व सौंपने की बात कही और फिर स्पष्ट किया कि 2025 में तेजस्वी ही महागठबंधन के नेता होंगे। यानी नीतीश कुमार अब अंतिम कोशिश कर रहे हैं कि किसी तरह 2025 तक उनकी कुर्सी बची रहे।
दूसरी तरफ, राजद भी उन्हें झाड़ के पेड़ पर चढ़ा रहा है कि आप तो पीएम मैटेरियल हैं, यहां बिहार में क्या कर रहे हैं, जाइए देश की राजनीति कीजिए। यदि नीतीश कुमार झाड़ के पेड़ पर चढ़ जाएंगे, तो बिहार का मैदान तेजस्वी के लिए शांतिपूर्वक खाली हो जाएगा। यदि नहीं चढ़ेंगे, तो राजद तख्तापलट यानी जदयू में तोड़-फोड़ भी कर सकता है।
राजद को यह भी समझ में आ रहा है कि महागठबंधन में नीतीश कुमार से पहले ही छह दल हैं। यदि नीतीश कुमार राजद से गठबंधन करके चुनाव लड़ते हैं, तो 2024 के लोकसभा चुनाव और 2025 के विधानसभा चुनाव में सीटों का बंटवारा करना बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि नीतीश कुमार जितनी सीटें मांगेंगे, उतनी सीटों की अब उनकी राजनीतिक हैसियत बची नहीं है। इसीलिए राजद की तरफ से नीतीश कुमार पर जदयू को विलय कराने का भी दबाव डाला जा रहा है, ताकि तेजस्वी यादव इसके निर्विवाद नेता बन सकें और पार्टी ज्यादा से ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर सके। इस आक्रामक रणनीति के जरिए राजद हर दिन नीतीश कुमार पर दबाव बढ़ाता जा रहा है और नीतीश की बयानबाजी भी बढ़ती जा रही है।
आप समझ सकते हैं कि यह अकारण नहीं है कि हमेशा शांत और संयत रहने वाले नीतीश कुमार इन दिनों क्यों बात-बात पर आपा खो देते हैं और उल्टे-सीधे बयान देते रहते हैं। राजद और जदयू के बीच शह और मात का खेल ज़ोर पकड़ चुका है। राजाजी चारों तरफ से घिर चुके हैं। बाहर निकलने का कोई रास्ता अब बचा नहीं है। बिहार की जनता ने उन्हें बार-बार मौके दिये, लेकिन उन मौकों का इस्तेमाल उन्होंने न केवल बिहार को, बल्कि खुद की राजनीतिक प्रतिष्ठा को भी नष्ट करने के लिए ही किया।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)