भारत का यौन-कुंठित फेमिनिज्म
एक बार फिर से माँ काली चर्चा में हैं। चर्चा इसलिए क्योंकि एक तमिल फिल्मकार ने मां काली का सिगरेट पीते हुए पोस्टर जारी किया है। वैसे तो माँ काली एवं महादेव सहित अन्य शेष देवी-देवता भारत के प्राण हैं। इन्हीं के कारण भारत अपने आध्यात्मिक स्वरुप को प्राप्त कर पाया है। किन्तु भारत में जैसे जैसे कथित प्रगतिशील, जनवादी साहित्य की बाढ आयी, प्रोग्रेसिव मीडिया जैसे शब्द गढ़े गए, वैसे-वैसे हमने देखा कि इस कथित प्रगतिशीलता की आड़ में हिन्दू देवी-देवताओं पर सांस्कृतिक हमले बढते गए।
कौमी तराना 'सारे जहां से अच्छा' लिखने वाले अल्लामा इकबाल "है कोई और गजनवी कारग ए हयात में, बैठे हैं कब से मुंतजिर बुतकदे में सोमनाथ" लिखकर भी सेक्युलर बने रहे और हिन्दुओं के दृष्टिकोण से लिखने वाले लोगों को दकियानूसी, पिछड़ा और पोगांपंथी घोषित किया गया। इतना ही नहीं, जिसने विमर्श में जितना हिन्दू देवी देवताओं को आघात पहुंचाया, उसे उतना ही महान माना गया। यह रोग या विकृति हिन्दू स्त्री साहित्यकारों में अत्यधिक देखी गयी है। उनका जैसे एक ही कार्य रह गया है कि अपनी रचनाओं के जरिए कैसे अधिक से अधिक हिन्दू आस्थाओं को ठेस पहुंचायी जाए।
हालांकि पहले ऐसा नहीं था। महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी महिला साहित्यकारों ने कभी ऐसा नहीं किया। हालांकि उनसे कुछ ही समय पूर्व एक और महिला थीं यशोदा देवी, जो पुस्तकें लिख रही थीं, परन्तु उनकी पुस्तकें स्वास्थ्य से सम्बन्धित हुआ करती थीं, चूंकि वह वैद्य थीं, तो वह आयुर्वेद एवं भारतीय पाकशास्त्र के अनुसार स्वास्थ्य, खानपान आदि पर पुस्तकें लिखा करती थीं। तो उनका क्षेत्र अलग था, परन्तु महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान के उपरान्त जैसे महिलाओं के लेखन की दिशा ही बदल गयी।
सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी कहानियों में महिला की तत्कालीन दुर्दशा को चित्रित किया है, परन्तु ऐसा नहीं प्रतीत होता कि उन्होंने इसके चलते धर्म को अपशब्द कहे हों और सारा दोष भारत की धार्मिक व्यवस्था पर डाल दिया हो। न ही ऐसा कुछ महादेवी वर्मा की रचनाओं में दिखाई देता है। मगर स्वतंत्रता के बाद जैसे जैसे हम आगे आते गये हैं हम देखते हैं कि हिन्दू विरोध करना या फिर हिन्दू देवी देवताओं को विकृत रूप में प्रस्तुत करना ही क्रांतिकारी लेखन माना जाने लगा है।
ऐसा लिखने या बोलने वाली वही महिलाएं हैं जो एक ओर "पितृसत्तात्मक व्यवस्था" के नाम पर घूँघट को पुरुषवादी वर्चस्व बताती हैं तो दूसरी ओर "चुनने की स्वतंत्रता" के नाम पर बुर्के का समर्थन करने लगती हैं। यह विरोधाभास कथित स्त्रीवादी कवयित्री कमला दास की रचनाओं और जीवन में भी देखने को मिलता है। कमला दास को स्त्रीविमर्श या कहें "स्त्री देह विमर्श" का सबसे बड़ा स्वर माना जाता है। वह अपने पूरे जीवन भर क्रांतिकारी कविताएँ लिखती रहीं, जिनमें मर्द की तलाश थी। जिनमें यह था कि कैसे लड़कियों को दबाकर रखा गया, कैसे उन पर कपड़े थोप दिए गए, और कैसे उन्हें जबरन यौन इच्छा पूर्ति का माध्यम बनाया जाता है।
जाहिर है यह सब उन्होंने लिखा और कथित स्त्रीवादियों की दुनिया में एक बड़ा नाम बन गईं। परन्तु वह कहीं न कहीं अपनी कुंठा की उसी आग में जलती रहीं और उनके भीतर स्वयं की हिन्दू पहचान के प्रति इतना हीनता बोध भर गया था कि अपनी उम्र की ढलान में आकर उन्होंने अपने से कई वर्ष छोटे मुस्लिम युवक से शादी की और बिल्कुल इस्लामिक रीति रिवाज से जीवन जीना शुरु कर दिया। कभी घूंघट का विरोध करनेवाली कमलादास को बुर्का पहनने में भी कोई गुलामी दिखाई नहीं दी।
यह हैरान करने ही वाली बात है कि फेमिनिस्ट औरतें जो कहने के लिए लेखन का कार्य करती हैं, वह कहीं न कहीं भीतर से इतनी खोखली होती हैं कि इस खोखलेपन को ढकने के लिए उन्हें जीवन में कभी कभी बुर्के तक का सहारा लेना पड़ता है। इसका क्या कारण है? कारण है, पश्चिमी आयातित साहित्य, जो स्वयं कहीं न कहीं हरम से प्रभावित होता दिखाई देता है। इसकी एक झलक "हरम: द वर्ल्ड बिहाइंड द वील" नामक पुस्तक में मिलती है। यह पुस्तक अलेव क्रोटियर ने लिखी है। इनका जन्म तुर्की में हुआ था और इन्होनें अपने परिवार के इतिहास के जरिए पूरी दुनिया को यह दिखाने की कोशिश की है कि हरम के नाम पर जो कुछ भी पश्चिमी चित्रकारों ने बनाया है, वह सच नहीं है।
वह लिखती हैं "मुझे फेमिनिस्ट दृष्टिकोण से महिलाओं का यह रहस्यमय संसार लिखने में दस साल का समय लगा। मेरी मंशा व्यक्तिगत और सांस्कृतिक थी। मै अपने पारिवारिक इतिहास के जरिए हरम की वह दुनिया दिखाना चाहती थी, जिसे पश्चिमी कल्पना ने एक कामुक और आकर्षक सपने के रूप में बदल दिया था! मैं उन कठिनाइयों को सामने लाना चाहता थी जो पश्चिमी लेखकों और चित्रकारों द्वारा हरम में रहने वाली औरतों के सम्मोहक चित्रण से कहीं अलग थी।"
परंतु भारत की जो कथित फेमिनिस्ट लेखिकाएं हैं, वह प्रगतिशील साहित्य के नाम पर उसी विशेष पश्चिमी साहित्य का अन्धानुकरण कर रही हैं, जो कहीं न कहीं यौन कुंठाओं से भरा हुआ है। यही यौन कुंठाएं उन लेखिकाओं में इस हद तक भरी हुई हैं कि वह प्रतिभा राय के उपन्यास "द्रौपदी" के चरित्र चित्रण से प्रसन्न होती हैं, उस द्रौपदी के प्रति आकर्षित भी होती हैं लेकिन जिस उत्तरदायित्व से भरी द्रौपदी को महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में वर्णित किया है, वह द्रौपदी उनके लिए कमजोर है। ऐसा क्यों?
हाल ही में माँ काली विवाद से यह प्रश्न और मथने लगा है कि आखिर ऐसा क्या कारण है कि जिसके चलते आदि शक्ति माँ काली को कोई लीना मणिकेलाई पितृसत्ता का विरोधी घोषित कर देती है? मां काली पितृसत्तात्मक व्यवस्था का प्रतीक कैसे हो सकती हैं? उनके क्रोध के सामने तो स्वयं महादेव भी नतमस्तक हो गये थे और उनके चरणों में आकर लेट गये थे। क्या पश्चिम या अरब में भी कोई ऐसी कहानी मिलती है जहां स्त्री के क्रोध के सामने कोई चरित्र उसके चरणों में लेटकर शांत करता हो? अगर नहीं तो फिर किसी कनिका गहलोत को इस बात पर क्यों आपत्ति हो जाती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काली को माँ क्यों कह दिया?
यह समझना सचमुच मुश्किल है कि आखिर फेमिनिस्ट स्त्रियों को माँ, बहन या फिर बेटी जैसे शब्दों से चिढ और महबूबा, इश्क, मोहब्बत आदि शब्दों के प्रति दीवानगी क्यों हैं? इसका उत्तर तो खोजना ही होगा, नहीं तो हमारे धर्मग्रंथों की महान स्त्रियाँ जैसे सीता, द्रौपदी, सावित्री, काली, दुर्गा आदि को माँ के स्थान से उतार कर वहीं पर ले आया जाएगा, जहाँ यह यौन कुंठित फेमिनिज्म चाहता है।
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