Govt vs Judiciary: अदालत बनाम चुनाव आयोग, क्या यह वर्चस्व की लड़ाई है?
अदालतों और उनके काम-काज के तरीकों पर हाल के दौर में प्रश्न उठने लगे हैं। थोड़े समय पहले तक जनता जो कि अदालतों के सामने हाथ जोड़े, माई-बाप से घबराई मुद्रा में होती थी, वही जनता जनार्दन अब कोलेजियम संस्कृति से जजों की नियुक्ति तक पर प्रश्न कर रही है।
लंबे समय से किसी जवाबदेही से मुक्त रही भारतीय न्याय व्यवस्था के किसी हिस्से को ऐसे प्रश्न रास नहीं आ रहे। रिटायर होते ही जो लोग न्याय व्यवस्था में सुधारों की आवश्यकता पर लम्बे भाषण देने वाले हैं, वो सभी अभी न्याय व्यवस्था के मौजूदा स्वरुप के बचाव में लगे दिखते हैं। इन सब के बीच चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद कार्यपालिका बनाम न्यायपालिका का एक नया विवाद उठ खड़ा हुआ है।
जजों की नियुक्ति पर जब राजनीतिक बयानबाजी होती है तब ऐसे बयान सुनते ही एक आम नागरिक के मन में सबसे पहला विचार यह आता है कि बचपन से तो वो पढ़ता आया है कि न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका इत्यादि सभी अलग-अलग स्वायत हिस्से हैं। किसी का एक दूसरे पर अधिकार नहीं होता। फिर ऐसा क्यों है कि विधायिका से जुड़े लोगों को न्यायपालिका से जुड़े मुद्दों पर बयानबाजी करनी पड़ रही है?
यह प्रश्न हमें जस्टिस केएम जोसफ पर ले आता है। उनके सर्वोच्च न्यायालय में काम पर एक नजर डालते ही स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस की रूचि जस्टिस केएम जोसफ के सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचने में क्यों थी और उसने उनकी नियुक्ति पर बयानबाजी क्यों की थी।
सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त होने के बाद जस्टिस केएम जोसफ का एक बड़ा फैसला वक्फ़ बोर्ड के पक्ष में गया था। इस फैसले में उन्होंने कहा था कि बड़े दुःख की बात है इस मुकदमे में मजहब को शामिल किया जा रहा है। सवाल यह है कि अगर वक्फ बोर्ड मजहबी नहीं होता, तो फिर मजहबी कहते किसे हैं?
यह मुकदमा भाजपा के एक नेता अश्विनी उपाध्याय ने दायर किया था। इसमें वक्फ एक्ट की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली अपीलों को दिल्ली हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरित करने की अपील की गयी थी।
जस्टिस केएम जोसफ का ऐसा ही दूसरा फैसला गौतम नवलखा नाम के वामपंथी आतंकवाद के आरोपी के पक्ष में आया था। गौतम नवलखा को उसके ही रिश्तेदार के दिए मेडिकल सर्टिफिकेट के आधार पर एक ऐसे मकान में नजरबन्द किया गया था जो कि कोई घर नहीं बल्कि सीपीआई की लाइब्रेरी थी। इस मकान में लगातार लोग आते जाते तो हैं ही, साथ ही कई युवक यहाँ मार्शल आर्ट्स के प्रशिक्षण के लिए भी रोज आते थे। अब यही जस्टिस केएम जोसफ चुनाव आयुक्त की नियुक्ति और आयोग के काम काज पर सवाल उठा रहे हैं।
इससे पहले ऐसा तब हुआ था जब सख्ती से निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए प्रसिद्ध हुए टीएन शेषन चुनाव आयोग के प्रमुख थे। कांग्रेस और पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली सरकार ने 1993 में दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की। उनका कहना था कि चुनाव आयोग के फैसले बहुमत से लिए जायेंगे। इसके खिलाफ शेषन सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। उनकी ओर से दायर याचिका के अलावा इसी मामले के लिए तीन और याचिकाएं दाखिल हुई थीं।
टीएन शेषन की ओर से संविधान मामलों के विशेषज्ञ नानी पालखीवाला सुप्रीम कोर्ट में दलीलें रख रहे थे। सुप्रीम कोर्ट पर अपीलों-दलीलों का कोई असर नहीं हुआ और मुख्य न्यायाधीश ए.एम. अहमदी की संविधान पीठ ने, 1995 में, सरकार के हक में ही फैसला सुनाया। सर्वोच्च न्यायालय के लोग शेषन से कितने नाराज थे, इसका पता भी इस फैसले में चला था।
चूँकि कथित तौर पर कार्यपालिका और न्यायपालिका एक दूसरे के ऊपर-नीचे नहीं, बल्कि समान स्तर पर होती है, इसलिए टीएन शेषन ने गृह सचिव और प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर कहा था कि आधिकारिक वरीयता सूची में मुख्य चुनाव आयुक्त को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समकक्ष रखा जाए, न कि उनसे नीचे।
सर्वोच्च न्यायलय ने अपने फैसले में स्पष्ट कहा था कि मुख्य चुनाव आयुक्त किसी भी हाल में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के बराबर नहीं हो सकता। इसके लिए सरकार को कहा गया कि "वारंट ऑफ प्रिसिडेंस" में मुख्य न्यायाधीश से पूछे बिना कोई बदलाव न किया जाये। खुद दूसरी संस्थाओं की बहाली की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने को आतुर दिखने वाला सर्वोच्च न्यायालय इस तरह का फैसला कोई पहली बार नहीं कर रहा।
जहाँ सुप्रीम कोर्ट खुद नियुक्ति की प्रक्रिया में शामिल रही है, वहां कोई बदलाव आया हो ऐसा नजर भी नहीं आता। सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय का दखल है। इससे सीबीआई के काम-काज के तरीकों में कोई बदलाव नहीं दिखता। सोशल मीडिया के दौर में सीबीआई को "सरकारी तोता" बुलाने का प्रचलन वामपंथी और तथाकथित प्रगतिशील जमातों में दिखता है, वो भी नहीं बदला। नैतिकता के पालन का जो भाषण सर्वोच्च न्यायालय दूसरों को पिलाने पर आमादा है, उसे अपनी कोलेजियम संस्कृति पर भी लागू करे तो उसकी बातों में कथनी-करनी का साम्य भी दिखे।
इस पूरे घटनाक्रम के सबसे मजेदार हिस्से को अंत में देखा जाये। सरकार-सत्ता के विरुद्ध जाकर स्वयं को निष्पक्ष बताने वालों को ये पता होना चाहिए कि टीएन शेषन रिटायर होने के बाद कांग्रेस के टिकट पर लाल कृष्ण आडवानी के खिलाफ चुनाव लड़े थे। उनके साथ जिस दूसरे चुनाव आयुक्त को कांग्रेस के नेतृत्व वाली पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने बिठाया था, वो थे एमएस गिल। एमएस गिल कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार में सांसद ही नहीं, मंत्री भी थे। ऐसे में अगर जनता को लगता है कि अदालतें एक विचारधारा के प्रति अतिशय झुकाव रखकर अन्य सभी के साथ सौतेला व्यवहार करती है, तो आश्चर्य क्यों होना चाहिए?
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)