
Live-in Relations: अपनी जिम्मेदारियों से भागकर लिव इन रिलेशन में रहने के सुख क्षणिक, किंतु जंजाल बहुत हैं
Live-in Relationships: हमारे देश में लिव इन रिलेशनशिप (सहजीवन पद्धति) को कानून का कवच प्राप्त है लेकिन कानूनी वैधता से बढ़कर यह मामला पारिवारिक सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था और मान्यता से जुड़ा हुआ है।
यह मसला निजता और स्वतंत्रता के नाम पर स्थापित मूल्य बोध को दरकिनार करने का भी है। भले ही प्रेमवश किसी जोड़े के लिव इन में आने की बात कही जाती हो लेकिन सच तो यह है कि यह बिना जिम्मेदारी का ऐसा चलन है जिसमें एक दूसरे की चिंता करने का तत्व सिरे से नदारद होता है। सवाल इन संबंधों में पनप रहे हिंसक क्रूर विकारों का भी है।

भारतीय सामाजिक व्यवस्था मौलिक रूप से परिवार व्यवस्था से जुड़ी हुई है। देश की संस्कृति और सद्वृत्ति को बचाने में भारतीय परिवार सुदृढ़ आधार प्रदान करते हैं।
भारतीय समाज व्यवस्था में जीवन को चार आश्रमों में बांटा गया है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। इन चारों में गृहस्थ जीवन को सबसे अधिक उत्तरदाई माना गया है। विवाह संस्कार के साथ गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने वाला व्यक्ति शेष तीनों आश्रमों मे रह रहे व्यक्तियों के साथ साथ अन्य जीवों का भी पोषण करता है।
शास्त्र में स्त्री-पुरुष संबंधों के बेहतर समन्वय के लिए आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है। विवाह संस्था के तहत स्त्री पुरुष के पारस्परिक, पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्व को सुनिश्चित किया गया है। भारतीय समाज इसी पर टिका हुआ है।
दुर्भाग्य से पिछले कुछ दशकों से गृहस्थ आश्रम पर निरंतर प्रहार किए जा रहे हैं। अधिकार का नारा बुलंद कर कानून की दुहाई देकर विवाह नामक संस्था को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया जा रहा है। लिव इन रिलेशनशिप इसी प्रयास का एक हिस्सा है।स्वतंत्रता और स्वछंदता के नाम पर दायित्वविहीन ऐसे संबंधों की बाढ़ आ गई है।
मौजूदा दौर में बदलती जीवन शैली और स्वार्थ परक सोच ने जीवन की जटिलताएं और बढ़ा दी है। वर्चुअल माध्यमों के जरिए बाहरी दुनिया से जुड़ने की जद्दोजहद और बेवजह के आभासी संवाद के चलते अधिकांश युवा आत्म केंद्रित और अकेलेपन को जी रहे हैं। इन सबके बीच थ्री एस (सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स) की रेस आग में घी का काम कर रही है। पलक झपकते दुनिया मुट्ठी में कर लेने का सपना देखने वाली पीढ़ी छोटी असफलता पर भी बेकाबू हो जा रही है।
एक ओर रिश्तों से भरोसा रीत रहा है तो दूसरी ओर संबंधों में आ रहा बिखराव मन मस्तिष्क को कमजोर कर रहा है। आंकड़े बताते हैं कि देश में 2016 से लेकर 2022 के बीच विवाहेत्तर संबंधों के कारण हर साल लगभग 1310 आत्म हत्याएं हुई हैं। इन 6 सालों में 8000 से ज्यादा मामले तो विवाहेतर रिश्तों का नतीजा रहे हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार बीते साल राजधानी दिल्ली में ही हर दिन 2 नाबालिग लड़कियों के साथ दुष्कर्म की घटना सामने आई।
इतना ही नहीं दिल्ली में दुष्कर्म, अपहरण महिलाओं के प्रति क्रूरता के मामले भी तेजी से बढे हैं। दिल्ली में पतियों द्वारा क्रूरता के 4674 मामले दर्ज किए गए। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट के अनुसार 2020 की तुलना में 2021 में देश भर में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 15.8% की वृद्धि दर्ज की गई। एक अन्य अध्ययन के मुताबिक भारत में जितनी मौतें प्यार की वजह से होती है उतनी आतंकवादी घटनाओं से भी नहीं होती।
इनमें प्रेम प्रसंगों के चलते होने वाले कत्ल, हत्याओं की कोशिश और अपहरण आदि के मामले शामिल हैं। 2017 में सामने आए सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2001 से 2015 के बीच प्यार के मामलों के चलते 38,585 लोगों ने हत्या और गैर इरादतन हत्या जैसे अपराध किए थे। इतना ही नहीं प्यार में विफल होने और दूसरी वजहों के चलते करीब 80,570 लोगों ने आत्महत्या की थी।
यह आंकड़े एक बानगी भर हैं। बिना विवाह के महिला पुरुष का एक साथ रहना पारिवारिक और सामाजिक विघटन के साथ-साथ अनेक स्तरों पर स्थापित मूल्यों को नष्ट कर रहा है। जिन परिवारों के लड़के, लड़कियां एक बार ऐसे प्रयोगों के चक्कर में फंस रहे हैं, उन परिवारों को पटरी पर आने में पीढ़ियां लगने वाली हैं।
इस दुनिया में पुरुषों की तुलना में महिलाओं के समक्ष चुनौतियां अधिक हैं। एक स्तर पर जाकर वह स्वयं को एकाकी, आधारहीन अनुभव करती है। ऐसे संबंधों से जन्मी संतान भी उत्तराधिकार से वंचित ही रहती है। वैसे भी जिन लोगों ने अपनी जिम्मेदारियों को भुलाकर स्वच्छंद जीवन के नाम पर लिव इन रिलेशनशिप की शैली को चुना है, वे भला इस जीवनशैली से जन्मी संतान के प्रति उत्तरदाई कैसे हो सकते हैं? ऐसे लोगों ने जीवन की जरूरतों और समाज की सच्चाईयों से भागकर खोखली आत्म तृप्ति का जो मार्ग चुना है, उसमें परिवार व समाज के लिए कहां कोई जगह है?
विकासवादी डार्विन की अवधारणाओं के मुताबिक अंधकार काल में विवाह जैसा कोई संस्कार नहीं था। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री के साथ रहकर संतान उत्पन्न कर सकता था। समाज में रिश्ते नाते जैसी कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण मानव जंगली नियमों को मानता था। पिता का ज्ञान न होने से मातृपक्ष को ही प्रधानता थी तथा संतान का परिचय माता से ही दिया जाता था। धरती पर वैदिक ऋषियों ने मानव को सभ्य बनाने के लिए सामाजिक व्यवस्थाएं लागू की और लोगों को एक सभ्य समाज के सूत्र में बांधा। परिवार के लिए वैवाहिक नियम बनाए।
ऋषि श्वेतकेतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की और तभी से कुटुंब व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ।
परन्तु डार्विन के विकासवादी सिद्धांत के मुताबिक मनुष्य जैसे जैसे आगे बढ़ने का दावा कर रहा है, वैसे वैसे वह पीछे की ओर जा रहा है। स्वच्छंदता के नाम पर पसर रही "लिव इन" परिपाटी से लगता है कि मनुष्य फिर से अंधकार युग में लौटने की तैयारी कर रहा है।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)