Shraddha Murder: ग्रूमिंग गैंग से बेटियों को बचाने की जरूरत
आफताब द्वारा श्रद्धा वॉकर की हत्या करके शव के पैंतीस टुकड़े करने की खबर आने के बाद जैसी प्रतिक्रियाएं नजर आयीं, उनसे मुर्गियों के बाड़े की एक कहानी याद आई।
इस कहानी में बताया जाता है कि कैसे जब कसाई मुर्गियों के दड़बे में हाथ डालता है, तो केवल वही मुर्गी शोर मचाती है जिसे काटने के लिए पकड़ा गया। बाकी मुर्गियां शांति से इधर उधर सिमटकर जगह दे देती हैं। लड़कियों के साथ होने वाले अत्याचार में हमारी सोच मुर्गी के बाड़े में शांत होकर दुबक जाने वाली मुर्गियों जैसी ही होती है। जब हमारे बीच से सुनाई देता है कि अरे लड़की ही बेकार थी, माँ-बाप की सुनती नहीं थी तो और क्या होना था? तब हम अपने पक्ष से एक लड़की को कम कर देते हैं।
इसके अलावा सोचना यह भी होगा कि श्रद्धा मर्डर का मुकदमा तो अब शुरू होगा। श्रद्धा के लापता होने के महीनों बाद रिपोर्ट दर्ज हुई और जांच में पता चला कि कई दिनों तक उसके शव के टुकड़े जंगल में फेंके जाते रहे। अदालती करवाई में जहाँ सबूत मायने रखते हैं, वहाँ तो सबूत के तौर पर मृत शरीर की फोरेंसिक रिपोर्ट, उसकी डीएनए जांच और हत्या में प्रयुक्त हथियार पेश करने होंगे।
जितनी सहानुभुति मृतका से आज दिखाई जा रही है, क्या उसी भावना के साथ उस कातिल को सजा भी दिला दी जाएगी जिसने श्रद्धा के टुकड़े टुकड़े कर दिये? यह सवाल इसलिए क्योंकि न्याय पाने की लंबी अदालती कार्रवाई में सबूत तथा गवाहों का मुकद्दमा लड़ा जाना है। तो क्या मुंबई से दिल्ली आया परिवार पूरा मुकदमा लड़कर सजा दिलवाए, ये संभव है? स्वयं दिल्ली पुलिस के लिए सबूत जुटाना मुश्किल हो रहा है इसलिए अब उन्होंने केस सीबीआई को सौंपने का फैसला किया है।
फिर इसे एक अलग घटना की तरह देखना भी ठीक नहीं होगा। एकतरफा प्रेम प्रसंग में ना कहने पर युवती की हत्या, उस पर एसिड फेंक देने जैसी घटनाएँ भी होती रही हैं। धर्म परिवर्तन से इंकार करने पर कितनी हत्याएं की गयी, इसकी जांच तो कभी होती ही नहीं। सूटकेस में लड़कियों के शव मिलने की जो कई घटनाएँ हाल में चर्चा में रही हैं, उस तरह की वारदातों को अंजाम देने वाले अपराधी के मन में कानून का भय हो, ये कैसे सुनिश्चित होगा? ये बात दावे से कही जा सकती है कि यह अपराध न तो अपनी तरह का पहला था, न ही अंतिम। श्रद्धा मर्डर की सच्चाई सामने आते ही दो तीन और भी ऐसी घटनाएं तो एक-दो दिन में ही दिख चुकी हैं।
श्रद्धा मर्डर मामले में एक और कमी जो समाज के रूप में दिखाई देती है, वो यह है कि पिछले कुछ वर्षों में जब से ऐसी घटनाओं की सोशल मीडिया और आम मीडिया में खुलकर चर्चा होने लगी है, उस पूरे दौर में हमने लड़कियों को ऐसे दरिंदों से सावधान करने के लिए कुछ नहीं किया है। जैसे जैसे साइबर क्रिमिनल्स की गिनती बढ़ी, बैंक और दूसरे संगठन भी प्रचार के जरिये लोगों को आगाह करने लगे। बच्चों के साथ साइबर बुलीइंग होता दिखा तो उसके खिलाफ सचेत किया गया। लेकिन लड़कियों के मामलों में कुछ भी होता नहीं दिखता। इसकी तुलना ब्रिटेन के "ग्रूमिंग केसेस" से जरूर की जा सकती है। हाल ही में प्रधानमंत्री बने ऋषि सुनक ने एक बार ग्रूमिंग मामलों का जिक्र जरूर किया था।
ब्रिटेन के "ग्रूमिंग गैंग्स" में पाकिस्तानी मूल के पुरुष शामिल थे जो गोरी लड़कियों और कभी कभी सिख-हिन्दुओं की बेटियों को भी शिकार बनाते थे। ऐसे मामलों की संख्या हजारों तक पहुँच जाती, लेकिन कहीं उन्हें सांप्रदायिक न कह दिया जाये, इस डर से मामलों का खुलासा होने पर भी ब्रिटिश अधिकारियों ने चुप्पी साधे रखी।
अगस्त 2021 तक ऐसे 41 मामलों में सजा सुनाई जा चुकी थी और ये मामले 2004 से चल रहे थे। अपने बयान में ऋषि सुनक ने कहा था कि उनकी स्वयं की दो बेटियां हैं और राजनैतिक रूप से सही बातें करने के लिए वो बच्चों का यौन शोषण करने वाले अपराधियों को कोई रियायत नहीं दे सकते। रोथरहैम ग्रूमिंग गैंग्स के बारे में अनुमान लगाया जाता है कि इनके यौन शोषण का शिकार करीब 1400 बच्चियां हुई थी।
बलात्कार और यौन शोषण के ऐसे मामले भारत के लिए भी नए नहीं हैं। अजमेर ब्लैकमेल कांड नाम से कुख्यात एक ऐसे ही कांड में सैकड़ों स्कूल की बच्चियां, यौन शोषण और बलात्कार का शिकार बनी थीं। अजमेर दरगाह से जुड़े अपराधियों के बचाव में लगातार आ रही राजनैतिक रसूख वालों की धमकियों के आगे जहाँ मुक़दमे की शुरुआत करवाने वाला स्वयंसेवी संगठन "अजमेर महिला समूह" अपने कदम पीछे खीच चुका था, वहां आम लोग क्या टिकते?
मुकदमा करने वाली बारह में से दस लड़कियों ने मुक़दमे वापिस ले लिए। सिर्फ दो ने मुकदमा जारी रखा। मामले के अट्ठारह आरोपियों में से छह को पुलिस कभी गिरफ्तार नहीं कर पाई। मुख्य आरोपी फारुक चिश्ती, पागलपन के बहाने छूट गया और कई दूसरे बेल पर बाहर आने के बाद फिर कभी पुलिस के हाथ नहीं आये।
गायब-लापता-फरार बलात्कारियों में से एक 2012 में पुलिस के हत्थे चढ़ा। पच्चीस हज़ार का इनामी बदमाश, सलीम नफ़ीस चिश्ती, अज़मेर के ही खादिम मोहल्ले से गिरफ्तार किया गया था।
लगातार बढ़ती घटनाओं में कभी फ्रिज तो कभी सूटकेस में बंद लड़कियों की लाशें जब मिलती हैं, सिर्फ तभी बवाल होकर थम जाना काफी है क्या? विदेशों से लेकर भारत तक में इसी किस्म के ऐसे मामले हुए हैं जब सांप्रदायिक या रेसिस्ट न कह दिया जाये, इस डर से अधिकारियों ने अपराधियों पर नकेल ही नही कसी। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम लोग भी इसी डर से बड़ा खुलासा करने में डर रहे हैं?
बाकि इस तरह के मामलों को तात्कालिक भावनात्मक रूप से नहीं, थोड़ा सोच समझ के देखिये। क्या करना है, और क्या नहीं किया जा रहा, उसे समझना इतना मुश्किल तो नहीं है। नर्सरी से कॉलेज तक की शिक्षा में हमने कहीं बेटियों को बचाने की बात शामिल की भी है, या "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" का नारा ही लगाते हैं? बेटी को किससे बचाना है, क्या हम जानते हैं या फिर बेटी को किससे बचना है, ये बेटी जानती है?
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)