छत्तीसगढ़ में भी सीबीआई की नो एन्ट्री, क्या केंद्र को है सीबीआई पर भरोसा?
नई दिल्ली। सीबीआई की साख धूल चाट रही है। इसका एक और प्रमाण छत्तीसगढ़ सरकार ने दिया है। वह सामान्य सहमति सरकार ने वापस ले ली जिसके आधार पर सीबीआई प्रदेश में किसी जांच को अंजाम दे सकती थी। इससे पहले आन्ध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने अपने-अपने प्रदेश में सीबीआई के लिए 'प्रतिबंध' को लागू किया था। अब सीबीआई इन सरकारों से पूछ कर ही वहां किसी जांच, गिरफ्तारी या अपने अन्य अधिकारों का इस्तेमाल कर सकेगी।
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संघीय व्यवस्था के लिए ख़तरे की घंटी
प्रांतीय सरकारों ने जो कदम उठाए हैं वह संघीय व्यवस्था के लिए ख़तरे की घंटी है। केन्द्र सरकार को अपने ख़िलाफ़ मान लेने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। शिकायतें तो पहले से भी रही हैं। मगर, उन शिकायतों में बदले की भावना नहीं हुआ करती थी। विरोधी दलों की सरकारें केंद्र सरकार से अपने साथ सौतेले व्यवहार की शिकायतें करती रही थीं। मगर, नवंबर 2018 से नया ट्रेंड देखने को मिला है। केंद्रीय जांच एजेंसी को अपने विरुद्ध ‘केंद्र सरकार का हथियार' मानते हुए राज्य सरकारों ने उसे अपने-अपने प्रांतों में प्रतिबंधित करना शुरू किया है। सवाल ये है कि इस ख़तरनाक प्रवृत्ति के लिए ज़िम्मेदार कौन?
इधर सीबीआई डायरेक्टर की छुट्टी, उधर छत्तीसगढ़ सरकार का फैसला
छत्तीसगढ़ की सरकार का फैसला उस दिन आया जब प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली सेलेक्ट कमेटी सीबीआई डायरेक्टर को उनके पद से हटाने का फैसला ले रही थी और उन्हें डीजी फायर सर्विस में ट्रांसफर कर रही थी। महज 21 दिन का बाकी कार्यकाल सीबीआई डायरेक्टर को पूरा करने नहीं दिया गया। 77 दिनों तक उन्हें उनकी ड्यूटी से अलग करते हुए जबरन छुट्टी पर भेजा गया। यह सब करने के लिए ‘आधी रात का ड्रामा' हुआ था। सीबीआई खुद अपने ही दफ्तर में छापेमारी कर रही थी। सीबीआई के डायरेक्टर और स्पेशल डायरेक्टर के बीच लड़ाई में एक को बचाने और दूसरे को फंसाने की कोशिश करती केंद्र सरकार साफ तौर पर दिख रही थी जिसका पूरा ब्योरा यहां देने की जरूरत नहीं है।
‘हवा’हो गयी सीबीआई की सम्प्रभु स्थिति
केन्द्र सरकार सीबीआई के साथ जिस तरीके से पेश आयी, उससे सीबीआई की सम्प्रभु स्थिति ‘हवा' हो गयी। सीबीआई डायरेक्टर को काम करने नहीं दिया गया। इस पद का कार्यकाल निश्चित होता है। किसी अभूतपूर्व स्थिति के पैदा होने पर केवल और केवल वही सेलेक्ट कमेटी फैसला ले सकती है जिसने उन्हें नियुक्त किया है। मगर, केन्द्र सरकार ने इसका उल्लंघन कर सीबीआई की सम्प्रभुत्ता पर प्राणघातक हमला कर डाला। ‘सीबीआई अब केंद्र सरकार के कब्जे वाली सीबीआई' में बदल चुकी थी। सुप्रीम कोर्ट में फरियाद लेकर पहुंचे सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा ने 77 दिन बाद इस सीबीआई को केंद्र के कब्जे से आज़ादी जरूर दिलायी। मगर, यह आज़ादी दो दिन भी नहीं टिक सकी।
सबसे पहले बंगाल और आन्ध्र ने उठायी आवाज़
जब सीबीआई की सम्प्रभुत्ता गिरवी हो गयी, तो ‘केन्द्र के कब्जे वाली सीबीआई' के लिए सबसे पहले पश्चिम बंगाल और आन्ध्र प्रदेश की गैर बीजेपी सरकारों ने अपने दरवाजे बंद कर लिए। एक बार फिर जब सुप्रीम कोर्ट से आज़ादी जीतकर लौटी सीबीआई से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली सेलेक्ट कमेटी ने इस आज़ादी को छीन लिया, तो अब छत्तीसगढ़ सरकार ने बेचैनी दिखलायी है।
आन्ध्र
सरकार
से
सीबीआई
को
भी
थी
शिकायत
नवंबर
2018
में
ही
सीबीआई
ने
आन्ध्र
प्रदेश
की
सरकार
पर
उन
सूचनाओं
को
लीक
करने
का
आरोप
लगाया
था
जिसमें
भ्रष्टाचार
के
मामले
में
कार्रवाई
की
गोपनीय
सूचना
प्रदेश
सरकार
को
भेजी
गयी
थी।
उस
वजह
से
भ्रष्ट
अफसरों
के
बच
निकलने
का
आरोप
सीबीआई
ने
लगाया
था।
निश्चित
रूप
से
आन्ध्र
सरकार
जब
सीबीआई
के
लिए
दरवाजे
बंद
कर
रही
थी,
तो
इस
घटना
की
भी
इसमें
भूमिका
रही
होगी।
इस
बात
से
भी
इनकार
नहीं
किया
जा
सकता
कि
आन्ध्र
प्रदेश
की
सरकार
के
फैसले
में
भ्रष्ट
लोगों
पर
आंच
न
आए,
यह
सुनिश्चित
करने
का
मकसद
हो।
सत्ता के पावर से भ्रष्ट-भ्रष्टाचार को मिलती है ताकत
वजह ये है कि भ्रष्ट और भ्रष्टाचार को ताकत हमेशा सत्ता के पावर से ही मिलती रही है। सरकार चाहे केन्द्र की हो या प्रांत की, भ्रष्टाचार के बीच ही पलती-बढ़ती-चलती रही है। मगर, इस भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की व्यवस्था भी केंद्र व राज्य की सरकारों ने ही बनायी है। चिन्ता का विषय ये है कि यह व्यवस्था अब चरमराती दिख रही है। एक अपराधी जेल में रहकर अपराध करता है तो उसे उसके गृह प्रदेश से दूर की जेल में शिफ्ट करने की व्यवस्था इसका कारगर इलाज है। इसी तरह किसी प्रांत में अफसर भ्रष्ट होते हैं, तो उन पर अंकुश लगाने की व्यवस्था प्रांत से बाहर की हो तो वह ज्यादा कारगर हो सकता है। इसी तरह केंद्र में भ्रष्टाचार को पनपने देने और विकसित होने से रोकने के लिए भी स्वतंत्र और सम्प्रभु जांच संस्थान की जरूरत होती है। इन दोनों ही जरूरतों के लिए सीबीआई जैसी संस्थान का अस्तित्व बचाना जरूरी है।
न केंद्र को रहा सीबीआई पर भरोसा, न राज्य सरकारों को
दुर्भाग्य से स्थिति ऐसी बनी कि केन्द्र सरकार को भी सीबीआई पर भरोसा नहीं रहा और राज्य सरकारों को भी। भ्रष्टाचार ने सीबीआई में भी अपनी पैठ मजबूत कर ली। जबकि, नियंत्रण व्यवस्था भ्रष्ट तंत्र की साजिश का शिकार हो गया।
अहम
मामलों
में
हथियार
डालती
रही
है
सीबीआई
जिन
मामलों
में
राजनीति
होती
है
उन
मामलों
में
सीबीआई
नतीजे
नहीं
निकाल
पाती।
जेएनयू
में
लापता
छात्र
नजीब
अहमद
को
खोज
नहीं
पाती
सीबीआई,
तो
चारा
घोटाले
में
सीबीआई
लालू
प्रसाद
के
ख़िलाफ़
तब
सफल
होती
है
जब
केंद्र
की
सत्ता
पर
लालू
प्रसाद
की
पकड़
कमजोर
पड़
जाती
है।
सीबीआई
शिबू
सोरेने
पर
अभियोग
साबित
करने
में
कामयाब
होती
है
जब
केंद्रीय
राजनीति
में
पकड़
ढीली
हो
चुकी
होती
है।
जब-जब
चुनाव
आता
है
सीबीआई
राजनेताओं
के
मुद्दे
उखाड़ती
दिखती
है।
चुनाव
ख़त्म
होती
है
उसकी
चाल
वही
हो
जाती
है
जो
केन्द्र
सरकार
के
लिए
उपयुक्त
रहती
है।
राजनीतिक बदले का हथियार बनती रही है सीबीआई
प्रांतीय सरकारें अगर आज यह महसूस करने लगी हैं कि सीबीआई राजनीतिक बदले के लिए केंद्रीय सत्ता पर काबिज रहने वाले दल या गठबंधन का हथियार हैं तो उससे बचने के लिए वैध और आसान तरीका यही है कि उसे अपने प्रांत में निषेध कर दिया जाए। या फिर जांच के लिए अनुमति का याचक बना दिया जाए। अब तक तीन राज्य सरकारों ने सीबीआई के लिए ऐसा किया है। कोई अनहोनी नहीं होगी जब कोई बीजेपी शासित राज्य भी सीबीआई को अपने प्रदेश में अनुमति लेने की शर्त में बांध दे। वजह ये है कि भ्रष्ट लोग सरकारों के साथ होते हैं। कभी ये विजय माल्या बनकर तो कभी नीरव मोदी बनकर या मेहुल चौकसी बनकर सरकार के साथ नज़र आते हैं। राज्य सरकारों की छाया में भी ऐसे भ्रष्ट लोग पल रहे होते हैं जिनकी रक्षा के लिए सरकारें कदम उठाने का भ्रातृत्व निभाती रहती है।
भ्रष्टाचार
पर
नियंत्रण
के
लिए
राजनीतिक
दल
साझा
सोच
विकसित
करें
वक्त
है
जब
राजनीतिक
दल
इस
पर
एक
सोच
विकसित
करें।
जनता
के
प्रति
जवाबदेह
सरकार
देने
की
जिम्मेदारी
राजनीतिक
दलों
की
होती
है।
भ्रष्टाचार
को
मिटाने
का
संकल्प
भी
इन्हीं
का
होता
है।
जब
इनकी
सरकारें
सत्ता
मे
आती
हैं
तो
वे
इन
संकल्पों
को
लागू
करते
हैं।
मगर,
भ्रष्ट
व्यवस्था
इन
सरकारों
को
अपनी
चपेट
में
ले
चुकी
होती
है।
वह
राजनीति
में
भी
पैठ
बना
चुकी
होती
है।
संकट
यही
है।
फिर
भी,
संघीय
ढांचे
को
बचाए
रखने
के
लिए,
भ्रष्ट
व्यवस्था
पर
अंकुश
बनाए
रखने
के
लिए
केन्द्र
और
राज्य
सरकारों
के
बीच
संबंधों
का
जो
ताना-बाना
है
वह
कमजोर
न
हो,
बल्कि
उसे
मजबूत
किया
जाए-
इस
पर
काम
राजनीतिक
दल
ही
कर
सकते
हैं।
चाहे
नरेंद्र
मोदी
हों
या
ममता
बनर्जी
या
चंद्र
बाबू
नायडू-
इनकी
सरकार
से
लेकर
राजनीतिक
दल
तक
पर
पूरी
पकड़
है।
इसका
फायदा
भी
हो
सकता
था
अगर
ये
सकारात्मक
होते।
मगर,
फिलहाल
इनके
ताकतवर
होने
से
व्यवस्था
को
नुकसान
हो
रहा
है।
भ्रष्ट
व्यवस्था
पर
नियंत्रण
की
इच्छाशक्ति
ही
इस
ताकत
का
सदुपयोग
कर
सकती
है।
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