Budget 2023: विकास दर की गति हो दहाई, लेकिन काबू में बनी रहे मंहगाई
इस बजट में वित्तमंत्री सीतारामन के सामने औद्योगिक विकास को बरकरार रखने के साथ मंहगाई को काबू में रखने की चुनौती है। बढ़ती आर्थिक असमानता और घटती आय से परेशान करोड़ों नागरिकों की चिंता भी वित्त मंत्री को करनी पड़ेगी।
Budget 2023: एक फरवरी को केंद्र की मोदी सरकार का 11वां और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के कार्यकाल का पांचवा बजट प्रस्तुत होगा। इस बजट से देश के अंदर विभिन्न वर्ग उत्पादक, व्यापारी, उपभोक्ता आदि अपनी अपेक्षाएं संजोए हुए हैं। उद्योग जगत और व्यापारी वर्ग की अपेक्षाएं मुख्यतया उत्पादन और व्यापार को सुगम बनाए जाने वाली नीतियों अथवा लाभांश बढ़ाने के उपायों के इर्द-गिर्द घूमती है। उपभोक्ता वर्ग और उसमें भी निम्न व मध्यम आय वर्ग जिनकी संख्या कमोबेश 90% से भी अधिक है उनकी अपेक्षाएं बुनियादी जरूरतों से जुड़ी होती है जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, घर, आवागमन, कपड़ा और खानपान पर होने वाले मासिक खर्च हैं।
पिछले दो ढाई साल का समय कोरोना के संक्रमण के साथ गुजरा है। आर्थिक उतार-चढ़ाव के कारण देश के लगभग 60% लोगों की आमदनी घटी है। आमदनी कम होने के कारण आर्थिक असमानता में भी गुणात्मक बढ़ोतरी हुई है। चढ़ती हुई महंगाई असमानता बढ़ाने का प्रमुख कारण है, इसलिए इस बार के बजट में इस तरह का प्रावधान होना जरूरी है जो महंगाई को नियंत्रित करते हुए अंत्योदय एवं समावेशित विकास का मार्ग प्रशस्त करे।
हालांकि दुनिया के सभी देशों में महंगाई सिरदर्द बनी हुई है। अमेरिका में महंगाई 40 साल के उच्च स्तर पर है। वहां केवल 1 साल में रोजमर्रा की वस्तुएं 28% तक महंगी हो गई है। पहले कोरोना संकट और फिर उसके बाद रूस यूक्रेन युद्ध के कारण बढ़े सरकारी खर्चे को इसका जिम्मेदार माना जा रहा है। कमोबेश यही हाल यूरोप का भी है, जहां तेल की बढ़ती कीमतों पर सवार महंगाई ने 24 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। यूरो का इस्तेमाल करने वाले जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन जैसी मजबूत इकोनामी में भी महंगाई का असर है।
भारत में उपभोक्ता महंगाई बढ़ने की मुख्य वजह महंगा आयात, सप्लाई चेन की समस्या, सरकार का बढ़ता राजकोषीय घाटा और भारतीय रिजर्व बैंक की आसान मौद्रिक नीति है। महंगे तेल और घटती आमदनी ने महंगाई के दंश को और अधिक तीखा कर रखा है। ज्यादातर अर्थशास्त्रियों को इस बात का अंदेशा है कि अभी यह दौर आगे भी जारी रह सकता है। ऐसे में हमें ठोस कदम उठाने की जरूरत होगी। महंगाई ऐसे समय में विकराल होती जा रही है जब देश की बेरोजगारी दर भी अपने उच्च स्तर पर बनी हुई है।
सरकार द्वारा प्रस्तुत हाल के आंकड़े में थोक मूल्य सूचकांक में महंगाई दर के कम होने का दावा किया गया है पर आटा, दूध, दाल जैसे जरूरी खाद्य वस्तुओं के उपभोक्ता मूल्य लगातार बढ़ते रहे हैं। इस वृद्धि से आम आदमी की रसोई का बजट बढ़ जाता है और उसे अन्य जरूरतों पर खर्च में कटौती करनी पड़ती है। इसके इतर बढ़ती महंगाई दर अर्थव्यवस्था को एकतरफा नुकसान पहुंचा सकती है जैसे विकास दर में कमी, आर्थिक असमानता, पूंजी पलायन, रुपए का अवमूल्यन, व्यापार घाटा बढ़ना इत्यादि।
चूंकि भविष्य का निर्माण वर्तमान की नींव पर होता है इसलिए अर्थव्यवस्था के मौजूदा स्वरूप पर गौर करना जरूरी है। वर्ष 2020-21 में देश का राजकोषीय घाटा बढ़कर 9.3% हो गया था जिसे वर्ष 21-22 में घटाकर सकल घरेलू उत्पाद का 6.8% और वर्ष 2025-26 तक 4.5% करने का लक्ष्य रखा गया था। वास्तविक आंकड़े के आधार पर लक्ष्य के मुताबिक बेहतर उपलब्धि के अनुमान हैं।
मौजूदा वित्त वर्ष में सकल कर राजस्व में वृद्धि हुई है। साथ ही जीएसटी कर संग्रह लगातार कई महीनों से एक लाख 40 हजार करोड़ से ऊपर का रहा है। दिसंबर महीने में तो जीएसटी कर संग्रह डेढ़ लाख करोड़ के ऊपर पहुंच गया। भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 3.2 ट्रिलियन डॉलर के आसपास पहुंच गया है। कोरोना महामारी से उबरने के बाद देश की अर्थव्यवस्था में निवेश की संभावना बढ़ गई है, इसलिए आने वाले दिनों में आर्थिक विकास को तेज गति दे सकती है परंतु यक्ष प्रश्न यह है कि क्या इससे बढती आर्थिक असमानता कम होगी? इसका उत्तर इस बात पर निर्भर है कि बजटीय प्रावधान महंगाई को कितना नियंत्रित कर पाते हैं।
इसलिए वर्ष 23-24 के बजट में ऐसे प्रावधान करने होंगे जिनसे विकास दर की गति ऐतिहासिक रूप से दहाई अंक में पहुंचे परंतु महंगाई भी नियंत्रण में रहे। यह तभी संभव होगा जब सरकार की राजकोषीय नीति और रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति में समन्वय और संतुलन हो। बजट में विकास की गति तेज रखने के लिए राजकोषीय नीति के तहत पूंजीगत व्यय को बढ़ाना होगा जिससे आधारभूत अवसंरचना में तेज विकास होता रहे।
बेहतर आधारभूत अवसंरचना निजी क्षेत्र और विदेशी पूंजी निवेश को आकर्षित करती है और जीडीपी की वृद्धि दर को बढ़ाती है। सरकारी उपभोग का खर्च भी कम करना होगा जिससे कि राजकोषीय घाटा नियंत्रित किया जा सके क्योंकि राजकोषीय घाटा बढ़ने से महंगाई बढ़ती ही बढ़ती है। ऐसा इसलिए होता है कि बढ़े हुए राजकोषीय घाटे की भरपाई के लिए सरकार को या तो ऋण लेना पड़ता है या और अधिक मात्रा में मुद्रा छापनी पड़ती है।
अर्थव्यवस्था में अंदर से ऋण लेने से ब्याज दर बढ़ जाती है जिसका प्रतिकूल असर निजी निवेश और निजी क्षेत्र में हो रहे औद्योगिक उत्पादन के मूल्यों पर पड़ता है। बाहर से ऋण लेने अथवा मुद्रा छापने पर देश में मौद्रिक तरलता बढ़ जाती है, लोगों के हाथ में अधिक पैसा होता है जिससे मांग बढ़ती है और आपूर्ति के उसी स्तर पर बने रहने पर कीमतों में वृद्धि होती जाती है।
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किसी भी बजट का सर्वोपरि लक्ष्य आर्थव्यवस्था की मजबूती पर केंद्रित होता है। मौजूदा वित्त मंत्री भी इस परंपरा को आगे बढ़ाती हैं तो हमें बजट में राजकोषीय स्थिति में सुधार पर फोकस के साथ-साथ देश के आम आदमी को आवश्यक सहूलियत को साध कर चलना होगा। कहने में तो यह बहुत सरल है लेकिन दोनों कसौटियों पर खरा उतरना बहुत आसान नहीं है।
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)