लोकसभा, राज्यसभा के बाद यूपी से भी बसपा का अंत
आखिर क्यों मायावती लगातार तीन चुनाव हार गई, क्या यूपी में लगातार तीसरी हार उनकी राजनीति में पतन की शुरुआत है।
लखनऊ। उत्तर प्रदेश में एक बार फिर से बहुजन समाज पार्टी को बड़ी हार का सामना करना पड़ा है, पहले लोकसभा में बसपा को एक भी सीट हासिल नहीं हुई और अब मायावती के लिए 2017 में बड़ा झटका लगा है, पार्टी 2012 की हार के बाद एक बार फिर से प्रदेश में बुरी हार का मुंह देख रही हैं। ऐसे में यूपी में लगातार तीन हार के बाद मायावती के राजनीतिक भविष्य के लिए काफी बड़ा संकट खड़ा हो गया है। एक तरफ जहां केंद्र की राजनीति में में मायावती लोकसभा से पूरी तरह से दूर हो गई हैं तो दूसरी तरफ उनके लिए राज्यसभा के दरवाजे भी बंद होते दिख रहे हैं। ऐसे में इस यूपी की राजनीति में बसपा के पतन के पीछे कई वजहें हैं आईए डालते हैं एक नजर।
सिर्फ दलितों तक सिमटी बसपा
बहुजन समाज पार्टी को प्रदेश की सबसे बड़ी दलित पार्टी के तौर पर देखा जाता है, जिस वक्त बसपा का गठन हुआ था उस वक्त काशीराम दलितों के साथ अन्य पिछड़ी और गरीब जातियों को भी अपनी ओर करने की पूरी कोशिश करते थे, लेकिन मायावती ने समय के साथ इस वोटबैंक को धीरे-धीरे पीछे करती गई और वह पूरी तरह से दलित वोट बैंक पर केंद्रित हो गई। यूपी में बसपा की की कमान संभाल रही मायावती ने दलितों की राजनीति से इतर दूसरी जातियों को अपनी राजनीति का हिस्सा नहीं बनाया, जिसका खामियाजा उन्हें इस चुनाव में भुगतना पड़ा है, ऐेसे में मायावती को अपनी पूरी राजनीतिक कार्यशैली और रणनीति पर फिर से विचार करना होगा।
विपक्ष में नहीं निभाई कोई भूमिका
उत्तर प्रदेश में 2012 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद बसपा के पास सिर्फ 80 सीटें बची, बावजूद इसके वह प्रदेश की सबसे बड़ी दूसरी पार्टी थी और एक बेहतर विपक्षी की भूमिका निभा सकती थी, लेकिन उन्होंने 2012 के चुनावों में हार के बाद प्रदेश की राजनीति से अपनी सक्रियता लगभग खत्म कर दी, जिसके चलते बसपा धीरे-धीरे ही सही लेकिन पार्टी यहां अपनी मौजूदगी को गंवाती गई। विपक्ष में बसपा के नेता स्वामी प्रसाद मौर्या ने चुनाव से पहले पार्टी का हाथ छोड़ दिया और इसके बाद बृजेश पाठक समेत तमाम नेताओं ने पार्टी का दामन छोड़ा, लेकिन मायावती इन सब के बाद परिस्थितियों को भांपने में पूरी तरह से विफल रही।
बसपा मतलब मायावती
बसपा की हार के लिए सबसे बड़ी वजह खुद मायावती ही बनी, पार्टी के भीतर एक किसी दूसरे चेहरे पर नजर डालें तो एक भी चेहरा ऐसा नहीं दिखता है जो मीडिया में पार्टी की राय और रणनीति को सामने रख सके। मायावती खुद ही पार्टी की अध्यक्ष और प्रवक्ता है, पार्टी के भीतर आपको एक भी ऐसा चेहरा नहीं दिखता है जो पार्टी के प्रवक्ता की भूमिका निभा सके, पार्टी की ओर से जो भी राय और बात रखनी होती है वह खुद मायावती मीडिया के सामने आकर रखती हैं, ऐेसे में पार्टी के भीतर एक भी दूसरे नेता का ना होना उनके खिलाफ जाता है।
इस बार भी आरक्षण
मायावती ने यूपी के चुनाव में तकरीबन हर रैली में आरक्षण के मुद्दे को आगे रखा और लोगों को यह समझाने की कोशिश की कि अगर भाजपा सत्ता में आती है तो वह अल्पसंख्यकों, मुस्लिमों और दलितों के आरक्षण को खत्म कर देगी, वह तमाम रैलियों में मुस्लिमों को आरक्षण देने और उनके लिए तमाम लोक लुभावने वायदे करती रही। यही नहीं उन्होंने दलितों की बात तमाम रैलियों में तो की लेकिन जिस तरह से आज भी यूपी में दलितों का हाल बदतर है उससे इस जाति में भी बड़ा बदलाव आता दिख रहा है।
बदलती अर्थव्यवस्था को समझ नहीं पाई
मौजूदा समय डिजिटल युग है और सोशल मीडिया काफी सक्रिय भूमिका चुनावों में निभाता है और युवा इस प्लेटफॉर्म पर काफी सक्रिय है। आज के बदलते दौर पर में जिस तरह से मायावती ने पुराने ढर्रे पर चलते हुए चुनाव लड़ा और फिर से आरक्षण के मुद्दे को ही लोगों के बीच आगे बढ़ाया वह उनके लिए नुकसानदायक साबित हुए, ऐसे में समय है कि मायावती अपनी राजनीति और देश की बदलती अर्थव्यवस्था को समझते हुए राजनीति बड़ा बदलाव लाएं जोकि उनके लिए काफी अहम साबित हो सकता है।