बदल गया वर्ल्ड ऑर्डर, अब चीन और रूस की दोस्ती हुई अटूट, भारत को छोड़ देनी चाहिए गुटनिरपेक्ष नीति?
सबसे पहला और बड़ा अनुमान ये है, कि क्या चीन और रूस एक नये सैन्य गठबंधन के बारे में विचार कर रहे हैं, तो फिर ये कैसे बनेगा? कुछ समय पहले तक इसका उत्तर था, "इसकी कोई आवश्यकता नहीं है"।
नई दिल्ली, अगस्त 12: पहले अफगानिस्तान और फिर यूक्रेन युद्ध... बदलती परिस्थितियों के बीच विश्व के शक्तिशाली देशों का वर्ल्ड ऑर्डर भी बदल गया है और 13 अगस्त से चीन और रूस नया मिलिट्री गेम शुरू करने वाले हैं, लिहाजा भारत के लिए ये चिंताजनक रिपोर्ट है, क्योंकि एक तरफ भारत का सबसे बड़ा दुश्मन है, तो दूसरी तरह भारत का सबसे अच्छा दोस्त। लेकिन, अब सवाल उठ रहे हैं, कि क्या चीन और रूस की अटूट होती दोस्ती को देखते हुए भारत को भी गुटनिरपेक्ष स्थिति का त्याग कर देना चाहिए और जैसे दुनिया चल रही है, उसी खेल में शामिल हो जाना चाहिए?
चीन और रूस का नया मिलिट्री गेम
हालांकि, मिलिट्री गेम की ये स्क्रिप्ट 24 फरवरी 2022 को यूक्रेन पर रूसी आक्रमण से पहले ही लिखी गई थी, शायद 2021 में ही, जिसके मुताबिक विश्व के 38 देश सैन्य अभ्यास करने वाले हैं, जिसके मुताबिक 12 देश अपनी जमीन इस सैन्य अभ्यास के लिए देंगे, जिनमें खुद भारत भी शामिल है और भारत के साथ साथ ईरान, उज्बेकिस्तान और वेनेजुएला, नाइजर और रवांडा भी इस संयुक्त सैन्य अभ्यास में हिस्सा ले रहे हैं। लेकिन अब हम एक नए युग में जी रहे हैं, जिसकी शुरुआत यूक्रेन युद्ध और ताइवान संकट से उभर आया है। पुराने युग में, रूस और चीन 2005 से हर साल सैन्य युद्धाभ्यास कर रहे थे, लेकिन ये अपेक्षाकृत छोटे खेल थे और बहुत हद तक ये सैन्य अभ्यास आतंकवादी अभियानों के खिलाफ केन्द्रित होती थीं, कुछ ऐसा जो हाल ही में सीरिया में हुआ था, या अफ्रीका के हॉर्न के पास समुद्री डाकू के खिलाफ किया गया था, लेकिन अब ये मिलिट्री गेम बदल चुका है और इसका मकसद भी।
मॉस्को और बीजिंग का नया याराना
अब सवाल यह है कि आज के बारे में क्या करना चाहिए? क्या हम मॉस्को और बीजिंग के बीच सहयोग में भारी वृद्धि जैसा कुछ देखेंगे? और यह किस प्रकार की वृद्धि हो सकती है? अभी तक हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं, कि इस नई दोस्ती का मकसद क्या है और संकेत क्या हैं? रूस-चीनी सीमा के इस तरफ के सभी विशेषज्ञों ने हाल ही में नोम पेन्ह (कंबोडिया) में दो देशों के विदेश मंत्रियों, सर्गेई लावरोव और वांग यी की बैठक के बाद आधिकारिक टिप्पणियों में इस्तेमाल की जाने वाली अभूतपूर्व भाषा पर ध्यान दिया है। दोनों देशों ने आपसी व्यापार से लेकर "पश्चिम के आधिपत्य के प्रतिरोध" तक, लगभग हर चीज में भारी वृद्धि करने के अपने इरादे की घोषणा की है। ये शब्द केवल शब्द तक ही सीमित नहीं है, और अगर इस शब्द को गहराई से देखने की कोशिश करें, तो कई चीजों के बारे में पता चलता है और सबसे अहम बात ये, कि रूस अब चीन का छोटा भाई बनने के लिए तैयार हो गया है और दोनों को एक दूसरे की जरूरत है और तीसरी बात ये, कि दोनों के सामूहिक दुश्मन अमेरिका और सहयोगी देश हैं।
तो क्या बनेगा एक नया सैन्य गठबंधन?
सबसे पहला और बड़ा अनुमान ये है, कि क्या चीन और रूस एक नये सैन्य गठबंधन के बारे में विचार कर रहे हैं, तो फिर ये कैसे बनेगा? कुछ समय पहले तक इसका उत्तर था, "इसकी कोई आवश्यकता नहीं है"। क्योंकि, परिस्थितियां ऐसी नहीं थी और तब तक रूस ने यूक्रेन पर हमला नहीं किया था और अगर रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण नहीं किया होता, तो शायद उसे कभी भी चीन का छोटा भाई बनने की जरूरत भी नहीं होती, क्योंकि रूस टेक्नोलॉजी के मामले में अभी भी चीन से आगे है और अभी भी चीन, कई रूसी हथियार खरीदना चाहता है। वहीं, हार्डवेयर के मामले में भी रूस अब तक आत्मनिर्भर था। वहीं, ताइवान को लेकर भी चीन को सबसे बड़ा खतरा अमेरिका और पश्चिमी देशों का प्रतिबंध है और अगर ताइवान पर चीन कब्जा करने की कोशिश नहीं करता है, तो उसे भी रूस की कोई खास जरूरत नहीं थी, क्योंकि चीन भी अपनी आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर है। वहीं, ताइवान युद्ध भी चीन अकेले लड़ सकता है, लेकिन बात सिर्फ युद्ध तक ही सीमित नहीं रहेगी, ये चीन भी जानता है और रूस भी। इसीलिए, दोनों के पास एक ही थाली में खाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं हैं।
पुराने युग में चीन और रूस कैसे जुड़े?
पहले हथियारों के उत्पादन में रूस को ना चीन की जरूरत पड़ती थी और ना चीन को रूस की। हां, चीन रूस से कई हथियार जरूर खरीदना चाहता था, जैसे उसने रूसी एस-400 मिसाइल सिस्टम खरीदे हैं। लेकिन, 1990 के बाद रूस के लिए स्थितियां तेजी से बदलीं। सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस का हथियार उद्योग सिर्फ इसलिए ही जिंदा रह पाया, क्योंकि चीन ने भारी संख्या में हथियारों के ऑर्डर रूस को दे दिए थे और सोवियत आपदा में रूस अपने हथियार इंडस्ट्री को बचाने में कामयाब हो गया। वहीं, चीन ने भारी संख्या में रूसी हथियार खरीदकर खुद को सशस्त्र करना शुरू किया, क्योंकि चीन जानता था, कि वो इतनी मात्रा में हथियार उत्पादन करने में सक्षम नहीं है।
अब खत्म हो चुका है पुराना युग
पुराना युग अब कई वजहों के साथ समाप्त हो चुका है और दोनों देश हाइपरसोनिक मिसाइल बनाने में ना सिर्फ सक्षम हो चुके हैं, बल्कि परीक्षण भी कर चुके हैं। सामान्य तौर पर, चीन अब लड़ाकू जेट या मिसाइलों के उत्पादन में उतना ही मजबूत है, जितना कि रूस। रूस से चीन ने अब धीरे धीरे हथियार खरीदने की संख्या काफी कम कर दी है और अब रूसी सैन्य विशेषज्ञ उन टेक्नोलॉजी की तरफ कदम बढ़ाने के बारे में काम कर रहे हैं, जहां से वो चीन को अपने हथियार बाजार की तरफ आकर्षित कर सकें और जिन हथियारों में चीन को दिलचस्पी हो। वहीं, रूसी वैज्ञानिक उन क्षेत्रों की भी लिस्ट तैयार कर रहे हैं, जहां रूस पिछड़ गया है, जैसे जहाजों के निर्माण में। हालांकि, दोनों देश दिसंबर 2021 में सैन्य संपर्कों के एक संयुक्त कार्यक्रम के लिए सहमत जरूर हुए थे, लेकिन ये काफी मामूली है और ये कार्यक्रम यूक्रेन-ताइवान संकट से पहले तैयार किया गया था और ये कार्यक्रम सिर्फ 2025 तक के लिए है, यानि सिर्फ तीन और साल के बाद ये कार्यक्रम समाप्त हो जाएगा।
1954 की तरह फिर बनी स्थिति
कुल मिलाकर, स्थिति काफी हद तक 1954 की तरह हो गई है, जब सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव अपनी पहली बीजिंग यात्रा पर आए थे। यूएसएसआर उस समय चीन को मजबूत करने के लिए बहुत इच्छुक था, लेकिन तत्कालीन अध्यक्ष माओ ने अपने अतिथि से सबसे पहला सवाल यही किया था, कि आप हमें परमाणु बम कैसे दे रहे हैं? और तभी ख्रुश्चेव ने कहा "नहीं, नहीं"। विचार करने के लिए बहुत सारी जटिलताएं थीं। मॉस्को, उस समय, इस तरह के कठोर कदमों के लिए तैयार नहीं था। सोवियत संघ ने उस वक्त उस सवाल को आश्चर्य के साथ एक नई वास्तविकता के उदय को देखा था, जहां दर्जनों नए स्वतंत्र राष्ट्र वैश्विक मंच पर प्रवेश कर रहे थे, हालांकि, उस वक्त उन्हें आने वाले विश्व के आकार के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
किस तरफ जा रही है नई दुनिया?
बहुत गौर से देखें, तो हमारी दुनिया अब एक ऐसे रास्ते पर आगे बढ़ चुकी है, जिसमें कोई स्पष्ट विचार नहीं है कि, कि चीजें किस तरफ आगे बढ़ रही हैं। आप सोच सकते हैं, कि सामान्य विचार केवल दो विरोधी वैश्विक शिविरों का फिर से उभरना है, जो आर्थिक, वैचारिक और तकनीकी रूप से एक-दूसरे से अलग-थलग हैं। कम से कम पश्चिम तो यही सोच रहा होगा। समाचार एजेंसी एपी के अनुसार, अमेरिकी कांग्रेस इस विचार को सक्रिय रूप से बढ़ावा दे रही है, कि खुफिया एजेंसी सीआईए को एक शक्तिशाली "चीनी घर" बनाना है, जैसा कि हाल ही में विदेश विभाग ने किया था। उस विचार का सार यह है, कि मध्य पूर्व अब ना दिलचस्प और ना ही खतरनाक, जबकि चीन दिलचस्प होने के साथ साथ खतरनाक भी है। अमेरिकी राजनीतिक सोच में रूस को चीन के जूनियर साझेदार के रूप में देखा जा रहा है, या चाहिए, या कम से कम इस तरह प्रचारित किया जा रहा है, ताकि उससे रूसी अस्मिता, उसके स्वाभिमान और उसके राष्ट्रवाद की प्रतिष्ठा पर ये एक झटका लगे।
भारत के लिए क्या है आगे की राह?
निश्चित तौर पर अमेरिकी प्रतिक्रिया ने चीन और रूस को काफी करीब कर दिया है और नये विश्व ऑर्डर में ये दोनों देश जिस 'गठबंधन' में बंधे हैं, वो काफी जटिल हो चुका है और उन्हें एक दूसरे की जरूरत है। लिहाजा, गुट निरपेक्ष के मजबूत रास्ते पर चलने वाले भारत को क्या अब अपना राह बदलकर अमेरिका की तरफ बढ़ा देनी चाहिए, जिसकी विश्वसनीयता हमेशा से संदिग्ध रही है! हालांकि, विशेषज्ञ तो यही मानते हैं, भारत को सबसे पहले अपनी शक्ति का विस्तार करना चाहिए, लेकिन अब भारत के लिए अमेरिका से दूर जाना संभव भी नहीं रहा है, क्योंकि हिमालय के साथ साथ खतरा इंडो-पैसिफिक, बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर में भी आने वाला है।
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