मोदी सरकार अचानक रूस के खिलाफ क्यों खड़ी हो गई है? किन चिंताओं ने भारत को किया परेशान
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, जिन्होंने एक बार फिर से भारत के गुटनिरपेक्ष विचारधार की तरफदारी की थी, उन्होंने अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप की निंदा नहीं की और ना ही अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले की ही आलोचना की।
नई दिल्ली, सितंबर 23: चालीस साल पहले 21 सितंबर 1982 को भारत और सोवियत संघ इस बात पर सहमत हुए थे, कि दुनिया के सामने प्राथमिक कार्य परमाणु युद्ध को टालना है। क्रेमलिन में बैठक के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सोवियत राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेजनेव ने संबंध सुधार को मजबूत करके और विश्वास को बढ़ावा देकर तनाव को कम करने की आवश्यकता पर सहमति व्यक्त की थी। जबकि, भारतीय प्रधानमंत्री ने महाशक्तियों को हथियारों के भंडार से दूर रहने का आह्वान किया था। ब्रेजनेव ने प्रस्ताव दिया था, कि नाटो और वारसॉ संधि की घोषणा के मुताबिक, वे एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में अपनी गतिविधि के क्षेत्र का विस्तार करने से परहेज करेंगे। रूसी समाचार एजेंसी TASS ने दोनों देशों के नेताओं के बीच की वार्ता को "गर्म और मैत्रीपूर्ण" बताया था और कहा था, कि दोनों नेता "एशियाई राज्यों के क्षेत्र में विदेशी सैन्य ठिकानों की स्थापना के खिलाफ हैं, और संप्रभु राज्यों पर सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक दबाव के खिलाफ हैं।"
अफगानिस्तान युद्ध की निंदा नहीं
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, जिन्होंने एक बार फिर से भारत के गुटनिरपेक्ष विचारधार की तरफदारी की थी, उन्होंने अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप की निंदा नहीं की और ना ही अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले की ही आलोचना की। दिलचस्प बात यह है, कि उसी बैठक में, तत्कालीन भारतीय पीएम ने घोषणा की थी, कि भारतीय वायुसेना के दो परीक्षण पायलटों को 1984 में प्रतिष्ठित भारत-सोवियत अंतरिक्ष उड़ान के लिए चुना गया है, जिसमें स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा और विंग कमांडर रवीश मल्होत्रा शामिल थे। वहीं, 16 सितंबर को जब भारतीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने उज्बेकिस्तान के समरकंद में शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन के दौरान रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाकात की। बैठक की शुरुआत में, पीएम मोदी ने पुतिन से कहा था, कि "मैं जानता हूं कि आज का युग युद्ध का नहीं है और हमने आपसे कई बार फोन पर बात की है, कि लोकतंत्र, कूटनीति और संवाद ऐसी चीजें हैं जो दुनिया को छूती हैं। आज हमें इस बात पर चर्चा करने का मौका मिलेगा, कि आने वाले दिनों में हम किस तरह से शांति की राह पर आगे बढ़ सकते हैं और मुझे भी आपके दृष्टिकोण को समझने का अवसर मिलेगा।" पुतिन ने मोदी को जवाब दिया: "मैं यूक्रेन में संघर्ष पर आपकी स्थिति जानता हूं, आपकी चिंताएं जो आप लगातार व्यक्त करते हैं।"
मोदी की टिप्पणी से हैरान हुई दुनिया
युद्ध के सात महीने बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की टिप्पणी ने दुनिया का ध्यान खींचा है और भारतीय पीएम, जो लगातार पुतिन की आलोचना करने से दूर रहे हैं, उन्होंने व्यक्त किया है कि पश्चिमी शक्तियों के कानों में कौन सा संगीत बज रहा है। कुछ दिनों बाद, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन और अमेरिकी एनएसए जेक सुलिवन ने मोदी की टिप्पणियों के समर्थन में अपनी आवाज दी और रूसी राष्ट्रपति से यूक्रेन पर युद्ध को तुरंत समाप्त करने के लिए कहा। मैक्रों ने यह भी कहा कि जिन देशों ने "तटस्थ" और "गुटनिरपेक्ष" होना चुना है, वे "गलत" हैं और उन पर बोलने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी है। मैक्रों ने मंगलवार को न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपना भाषण देते हुए कहा कि, "भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी सही थे, जब उन्होंने कहा कि समय युद्ध का नहीं है। यह पश्चिम से बदला लेने के लिए नहीं है, या पूर्व के खिलाफ पश्चिम का विरोध करने के लिए नहीं है। यह हमारे संप्रभु समान राज्यों के लिए हमारे सामने आने वाली चुनौतियों का एक साथ सामना करने का सामूहिक समय है।" वहीं, वाशिंगटन डीसी में, अमेरिकी एनएसए जैक सुलिवन ने कहा कि, "मुझे लगता है कि प्रधान मंत्री मोदी ने जो कहा, वह सही और न्यायपूर्ण है और संयुक्त राज्य अमेरिका उसका स्वागत करता है।"
पुतिन के मौजूदा हालात क्या हैं?
हालांकि, रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने "आंशिक लामबंदी" की घोषणा की है, लेकिन पश्चिम में कई विश्लेषकों ने इसे पुतिन के एक खतरनाक कदम के रूप में व्याख्यायित किया है, जो एक ऐसे युद्ध से गर्मी का सामना कर रहे हैं जिसे त्वरित और दर्द रहित माना जाता था। लेकिन, दिलचस्प बात यह है कि पुतिन ने अचानक आंशिक लामबंदी की घोषणा क्यों कर दी? गुलाग: ए हिस्ट्री एंड द वाशिंगटन पोस्ट के पूर्व स्तंभकार और पुलित्जर पुरस्कार विजेता लेखक ऐनी एपलबौम ने द अटलांटिक में लिखा है कि, "अगर एक अमेरिकी राष्ट्रपति अपने भाषण की घोषणा करता है और मान लीजिए रात 8 बजे का समय तय किया जाता है और फिर अगर उनका भाषण नहीं होता है, तो फिर उसका विश्लेषण काफी खराब होगा, अराजकता और अव्यवस्था होगी और व्हाइट हाउस को उसका जवाब देना होगा। और रूस में भी कुछ ऐसा ही हुआ। रूसी राष्ट्रपति भवन ने पहले पुतिन के भाषण की घोषणा की, पत्रकारों को चेतावनी दी गई और फिर बिना स्पष्टीकरण के वो गायब हो गए। हालांकिस व्लादिमीर पुतिन ने आखिरकार सुबह के वक्त राष्ट्र के नाम अपना संबोधन जारी किया, लेकिन वही निष्कर्ष लागू होते हैं: अराजकता, अव्यवस्था, अनिर्णय। क्रेमलिन को संकट में होना चाहिए।"
अब लड़खड़ा रहे हैं पुतिन?
अमेरिका स्थित इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ वॉर, जो पिछले 211 दिनों से (24 फरवरी से) युद्ध पर नजर रख रहा है, उसने कहा है कि, 21 सितंबर को पुतिन की "आंशिक लामबंदी" की घोषणा "रूस की लड़खड़ाहट में कई समस्याओं को दर्शाती है।" यूक्रेन पर आक्रमण के बाद जो घटनाएं घटी हैं और जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई मास्को अगले कई सालों तक नहीं कर पाएगी और आने वाले कई महीनों तक रूसी सैनिकों को कोई ज्यादा शक्ति नहीं मिलेगी और इस युद्ध में रूसी सैनिकों को जितना नुकसान हुआ है, साल 2023 तक उतने सैनिकों को और सैन्य साधनों को बनाए रखना अब रूस के लिए संभव नहीं होगा। लेकिन, ये पुतिन की घबराहट है और यही समझा जा सकता है, कि सर्दी आने से पहले इस युद्ध को खत्म कर लिया जाए। पुतिन ने इसके साथ ही परमाणु युद्ध की भी साफ शब्दों में धमकी दे दी, जिसका विरोध रूस में भी किया गया और युद्ध की आलोचना करने वाली पॉपस्टार अल्ला पुगाचेवा की रूसी सेना को बदनाम करने के आरोप में जांच की जा रही है।
रूस के अंदर क्या हालात हैं?
पोलिटिको ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि, रूस से बाहर जाने वाली फ्लाइट की टिकटों की कीमतें आसमान छू रही हैं और लोग किसी भी हाल में रूस से बाहर निकलना चाहते हैं, ताकि उन्हें युद्ध में शामिल नहीं होना पड़े। रूसी आउटलेट आरबीसी के अनुसार, मास्को से उन देशों के लिए सीधी उड़ानें जिन्हें प्रवेश करने के लिए वीजा की आवश्यकता नहीं है,स जिनमें तुर्की, अजरबैजान और आर्मेनिया भी शामिल हैं, उन देशों के फ्लाइट्स के टिकट कब का खत्म हो चुके हैं और पोलिटिको ने यह भी कहा कि मॉस्को से इस्तांबुल के लिए तुर्की एयरलाइंस की सीधी उड़ानें 350 यूरो से बढ़कर 2,870 यूरो हो गई हैं। एसोसिएटेड प्रेस ने बताया कि मास्को और सेंट पीटर्सबर्ग सहित 37 रूसी शहरों में युद्ध विरोधी विरोध प्रदर्शनों में 800 से अधिक रूसियों को गिरफ्तार किया गया है।
बाहर से देखने पर क्या पता चलता है?
हालांकि, मोदी की टिप्पणियों ने सुर्खियां बटोरीं हैं, लेकिन एससीओ सम्मेलन में ही चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बैठक में पुतिन की टिप्पणी भी काफी महत्वपूर्ण है, जहां रूसी राष्ट्रपति ने स्वीकार किया, कि शी जिनपिंग के पास यूक्रेन में उनके युद्ध के बारे में "प्रश्न और चिंताएं" हैं। कई विश्लेषकों ने इसे एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा है और इसने पहली बार संकेत दिया कि बीजिंग रूसी कार्रवाइयों से खुद को दूर करने की कोशिश कर रहा है। रूस-चीन की धुरी पश्चिम के लिए, खासकर भारत के लिए चिंता का विषय रही है।
यूक्रेन युद्ध और भारत की चिंताएं
ऐसे समय में जब भारत अपनी रक्षा आवश्यकताओं के 60 से 70% के लिए रूस पर निर्भर है, रूसी हथियारों की आपूर्ति प्रभावित हो सकती है और भारतीय अधिकारियों के मन में इस बात को लेकर चिंता है। हालांकि, इसको लेकर पहले पश्चिमी अधिकारियों ने झंडी दिखाई थी, जिसे नई दिल्ली ने कम करके आंका था। लेकिन, अब जैसे-जैसे रूसी सेना अधिक सैनिकों को अपने बेड़े में शामिल करने के लिए संघर्ष करती दिख रही है, दिल्ली की चिंताएं बढ़ती जा रही है। रूस ने फिलहाल 3 लाख रिजर्व सैनिकों को यूक्रेन भेजने का फैसला किया है, लेकिन अभी तक साफ नहीं हो पाया है, कि इनमें से कितने रिजर्व सैनिक असल में लड़ने के काबिल भी हैं और कितने सैनिकों को रूस हथियार भी दे पाएगा। वहीं, भारत के दृष्टिकोण से, मास्को के लिए संदेश स्पष्ट और साफ है, कि युद्ध को समाप्त करें, और हमेशा की तरह व्यापार में वापस आ जाएं। भारतीय सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडे ने इस सप्ताह रेखांकित किया है कि उनके पास अभी भी पूर्वी लद्दाख में एलएसी के साथ "दो टकराव प्वाइंट्स" हैं, जो डेपसांग मैदानी इलाकों और डेमचोक में चारडिंग ला नाला में गतिरोध का जिक्र करते हैं।
दिल्ली की चिंताओं को समझेगा रूस?
ऐसा पहली बार हुआ है, जब भारत-चीन सीमा पर लगातार तीसरे साल लगभग 60,000 सैनिक जुटे हुए हैं, और मॉस्को से रक्षा आपूर्ति कमजोर और बिखरती हुई दिख रही है, और एक बार जब फिर से सर्दी आने वाली है, तो दिल्ली में कुछ लोगों को लगता है कि यह भारत के हित में भी है, कि यूक्रेन युद्ध को जल्दी खत्म करना चाहिए। दिल्ली के नजरिए से देखें तो पीएम मोदी ने कुछ भी नया नहीं कहा है, लेकिन, इसे सार्वजनिक रूप से और स्पष्ट रूप से कहना एक शक्तिशाली संदेश है, कि दिल्ली को अपनी रक्षा जरूरतों के लिए एक लचीला और विश्वसनीय आपूर्ति श्रृंखला सुनिश्चित करने के लिए मास्को की आवश्यकता है। इसलिए, इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक, युद्ध छोड़ने के बारे में अपने रूसी समकक्षों को दिया गया संदेश कुछ हद तक सुसंगत रहा है, क्योंकि यह रूस के साथ रणनीतिक सहयोग में भारत के हित में रहा है, जो अंतरिक्ष से लेकर रक्षा क्षेत्र तक फैला हुआ है।