अफगानिस्तान की बर्बादी के असल गुनहगार हैं रूस और अमेरिका
नई दिल्ली, 20 अगस्त। अफगानिस्तान का कभी गौरवमयी इतिहास था। लेकिन बदनसीबी से यह देश पिछले 48 साल से बारूद के ढेर पर बैठा हुआ है। कदम- कदम पर मौत। भुखमरी, गरीबी और अशिक्षा इसकी किस्मत पर जबरिया चस्पा कर दिया गया। आज तालिबान को अफगानिस्तान की बर्बादी का सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है। लेकिन हकीकत ये है अगर अफगानिस्तान सत्तापलट, नरसंहार, खूनी क्रांति और गृहयुद्ध का शिकार बना तो इसके लिए केवल और केवल रूस- अमेरिका जिम्मेवार हैं।
शीतयुद्ध के दौरान इन दो महाशक्तियों ने अफगानिस्तान का अपने राजनीतिक हित के लिए इस्तेमाल किया। जब मकसद पूरा हो गया तो निचोड़े हुए निंबू की तरह फेंक दिया। तालिबान को किसने पैदा किया ? अफगानिस्तान में रूस समर्थक साम्यवादी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए ही तो अमेरिका ने पाकिस्तान और सउदी अरब के साथ मिल तालिबान विद्रोहियों को खड़ा किया था। आज यही तालिबान अमेरिका को आंखें दिखा रहा है।
दो हाथी की लड़ाई में कुचली गयी घास
एक कहावत है- जब दो हाथी लड़ते हैं तो नुकसान उनका नहीं बल्कि सिर्फ घास का होता है। हाथी लड़-भिड़ कर जंगल में लौट जाते हैं लेकिन तब तक घास को रौंद चुके होते हैं। रूस और अमेरिका ने अफगानिस्तान को कैसे रौंदा ? इसको जानने के लिए इतिहास के झरोखे में झांकना होगा। मोहम्मद जहीर शाह 19 साल की उम्र में सन 1933 में अफगानिस्तान के राजा बने थे। जहीर शाह के राजतंत्रीय शासन में अफगानिस्तान एक व्यवस्थित देश था। उन्होंने देश का आधुनिकरण किया। वे अफगानिस्तान के अंतिम राजा थे और उन्होंने 40 साल तक हुकूमत की। उन्होंने देश को बाहरी ताकतों से बचाये रखा। लेकिन 1973 में जहीर शाह के चचेरे भाई और पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद दाउद खान ने तख्तापलट कर दिया। जहीर शाह छुट्टियां मनाने इटली गये हुए थे इस बीच दाउद खान से सैनिक क्रांति के जरिये सत्ता पर कब्जा जमा लिया। दाउद खान ने अफगानिस्तान में 225 साल साल से कायम राजतंत्र को खत्म कर देश को गणतंत्र घोषित कर दिया।
कूटनीति पर भूगोल का असर
उस समय सोवियत संघ एक विशाल देश था जिसकी सीमा यूरोप से लेकर एशिया तक फैली हुई थी। आज तुर्कमेनिस्तान, उजेबेकिस्तान, ताजाकिस्तान स्वतंत्र देश हैं लेकिन 1973 में ये देश सोवियत संघ का हिस्सा थे। यानी सोवियत संघ (रूस) की सीमा तब अफगानिस्तान से मिलती थी। उस समय सोवियत संघ और अमेरिका दुनिया की दो सबसे बड़ी ताकतें थीं। दोनों देश विश्व राजनीति में वर्चस्व के लिए होड़ कर रहे थे। दुनिया के अधिकतर देश दो खेमों (सोवियत संघ और अमेरिका) में बंट चुके थे। चूंकि अफगानिस्तान सोवियत संघ का पड़ोसी देश था इसलिए वह हमेशा यहां प्रभाव स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहता था। 1973 के तख्तापलट ने सोवियत संघ को यह मौका दे दिया।
व्यापार की आड़ में कुटिल राजनीति
1976 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान के शासक दाउद खां के एक साथ एक व्यापार समझौता किया। व्यापार के जरिये सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में धीरे-धीरे प्रभाव बढ़ाना शुरू किया। उसने दाउद खान के सामने अफगानी सेना के आधुनिकीकरण का प्रस्ताव रखा। दाऊद खां अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सेना को ताकतवर बनाना चाहते थे। सोवियत संघ ने अफगानी सेना को टैंक और मिसाइलों से लैस किया। अफगानी सैनिकों के लिए सोवियत संघ में प्रशिक्षण केन्द्र खोले गये। अफगानिस्तान के शिनदाद में एक आधुनिक सैन्य हवाई अड्डा विकसित किया गया। सोवियत संघ की मदद से अफगानिस्तान में सड़कों का जाल बिछाया गया। अफगानिस्तान में सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव से अमेरिका चिंतित हो गया। 1976 में अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर अफगानिस्तान पहुंच गये। किसिंजर को तब दुनिया में कुटनीति का सबसे माहिर व्यक्ति माना जाता था। इसकी वजह से अफगानिस्तान ने खुद को दोनों गुटों से अलग रखा। अफगानिस्तान को पश्चिम एशिया का प्रवेश द्वार माना जाता था। पश्चिम एशिया में तेल के अकूत भंडार को देखते हुए अमेरिका भी अफगानिस्तान में अपना प्रभाव कायम करना चाहता था।
अफगानिस्तान में कम्युनिस्टों की धमक
1973 में जब दाउद खां ने जहीर शाह का तख्ता पलटा था तब अफगानिस्तान की दो कम्युनिस्ट पार्टियों ने उनका सहयोग किया था। अफगानिस्तान में साम्यावदी दल के दो धड़े थे- खलक पार्टी और परचम पार्टी। लेकिन जब दाऊद खां के शासन के कुछ दिन हुए तो कम्युनिस्ट उनका विरोध करने लगे। वे सरकार पर आरोप लगाने लगे कि शासन में वामपंथी नीतियों को स्थान नहीं दिया जा रहा। इस असंतोष को दबाने के लिए दाउद खां ने परचम पार्टी के नेता हसन शार्क को कैबिनेट मंत्री बना दिया। सोवियत संघ की शह पर कम्युनिस्ट अफगानिस्तान में लगातार मजबूत हो रहे थे। खलक पार्टी पहले से दाउद का विरोध कर रही थी। वामपंथियों के बढ़ते विरोध से आजिज दाऊद खां ने 1977 में हसन शार्क को मंत्री पद से बर्खास्त कर दिया।
राष्ट्रपति की हत्या
इसी राजनीतिक उथल पुथल के बीच एक कम्युनिस्ट नेता अली अकबर खैबर की हत्या हो गयी। इसके बाद वामपंथियों का आंदोलन उग्र हो गया। खलक और परचम पार्टियां एक हो गयीं। एक नयी कम्युनिस्ट पार्टी बनी जिसका नाम रखा गया लोकतांत्रिक खलक पार्टी। इस पार्टी को सोवियत संघ का भरपूर समर्थन प्राप्त था। सोवियत संघ के प्रभाववाले अफगानी सैन्य अफसर भी दाऊद शासन के असंतुष्ट थे। इन असंतुष्ट सैन्य अफसरों ने खलक पार्टी और सोवियत संघ की मदद से खूनी क्रांति कर दी। राष्ट्रपति दाउद खां और उनके समर्थकों की हत्या कर दी गयी। ये अप्रैल 1978 की बात है। कम्युनिस्ट पार्टी के नेता नूर मोहम्मद तराकी नये राष्ट्रपति बने। अफगानिस्तान में एक खांटी कम्युनिस्ट सरकार का गठन हुआ। सोवियत संघ ने तत्काल तराकी सरकार को मान्यता दे दी।
नास्तिक कम्युनिस्टों से खफा हुए कट्टरपंथी
अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट सरकार के बनने से अमेरिका, पाकिस्तान और ईरान बौखला गये। ईरान और पाकिस्तान को डर हो गया है कि कहीं यह कम्युनिस्ट सरकार पख्तूनों को भड़का कर उनके देश में अस्थिरता न पैदा कर दे। ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के पख्तून-बलूच अपनी कबायली संस्कृति बचाये रखने के लिए अलग देश चाहते थे। दूसरी तरफ अमेरिका को यह महसूस होने लगा कि अफगानिस्तान में तराकी सरकार के गठन से उसकी डिप्लोमेटिक हार हुई है। अफगानिस्तान के कट्टर इस्लामी संगठनों को भी अपने लिए खतरा महसूस होने लगा। चूंकि वामपंथी नास्तिक थे इसलिए वे मार्क्स की नीतियों के हिसाब से शासन चलाना चाहते थे। इस शासन में धर्म और शरिया कानून का कोई हस्तक्षेप नहीं था। तब इस्लामी संगठनों ने तराकी सरकार का हिंसक विरोध शुरू कर दिया। इस बीच अफगानिस्तान की सत्तारुढ़ कम्युनिस्ट पार्टी में मतभेद गहराने लगे। सितम्बर 1979 में एक और विद्रोह हुआ जिसमें हफिजुल्ला अमीन ने नूर मोहम्मद तराकी को सत्ता से बेदल कर दिया। अमीन के शासन में असंतोष की आग और भड़क गयी। अफगानिस्तान को इस्लामिक देश बनाने की मांग करने वाले विद्रोहियों (मुजाहिदीन) ने कुछ सीमावर्ती प्रांतों पर कब्जा जमा लिया। अफगानिस्तान में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो गयी।
अफगान गृहयुद्ध
इस गृहयुद्ध से सोवियत संघ परेशान हो गया। अंत में उसने अफगानिस्तान की सत्ता पर सीधी पकड़ बनाने के लिए एक और सैनिक विद्रोह कराया। बबराक करमाल ने अमीन की सत्ता पलट दी। करमाल ने अगानिस्तान में राजनीतिक स्थिरता के लिए सोवियत संघ से मदद मांगी। 27 दिसम्बर 1979 को करीब 15 हजार सोवियत सैनिक आधुनिक हथियारों के जखीरे के साथ अफगानिस्तान में दाखिल हो गये। इससे विश्व राजनीति में खलबली मच गयी। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पहली बार इतनी बड़ी संख्या में रूसी सैनिकों ने किसी दूसरे देश में प्रवेश किया था। सोवियत सैनिकों ने विद्रोहियों को अपनी ताकत से कुचल दिया। करमाल सरकार मजबूती से कायम हो गयी।
मास्को ओलम्पिक का विरोध
अफगानिस्तान में सोवियत संघ की सीधी दखल से अमेरिका आगबबूला हो गया। 1980 में मास्को में ओलम्पिक खेल होना था। अमेरिका ने सोवियत संघ को अलग थलग करने के लिए पूरी दुनिया में उस बात की मुहिम चलायी कि वे अफगानिस्तान की घटना के विरोध में मास्को ओलम्पिक का बहिष्कार करें। अमेरिकी गुट के देशों ने ऐसा किया भी। लेकिन सोवियत संध पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा। सोवियत सेना के दमन से घबरा कर विद्रोही मुजाहिदीन पड़ोसी देश पाकिस्तान में भाग गये। इनमें अधिकतर पख्तून थे। वे इस्लाम के समर्थक और कम्युनिस्टों के विरोधी थे। अमेरिका के राष्ट्रपति उस समय जिमी कार्टर थे। कार्टर ने अपनी कुटनीतिक पराजय को छिपाने के लिए कुटिल चाल चली। पाकिस्तान में शरण लेने वाले अफगान विद्रोहियों को उन्होंने सैन्य प्रशिक्षण देने की योजना बनायी। इन्हें हथियार और धन मुहैया कराया गया। पाकिस्तान के शिविर में इन विद्रोहियों को ट्रेनिंग दी जाने लगी। सऊदी अरब, चीन भी इसमें साथ हो गये। इन शिविरों में करीब 90 हजार विद्रोहियों को सैन्य प्रशिक्षण दिया गया जिसमें मोहम्मद उमर भी था जिसने बाद में तालिबान की स्थापना की। तब अमेरिका ने तालिबान को खड़ा करने में सबसे अधिक धन खर्च किया। तलिबान के लड़ाके वे थे जो पख्तून इलाके के धार्मिक स्कूलों में पढ़ाई कर रहे थे। बाद में तालिबान संगठन में ताजिक और उज्बेक छात्र भी शामिल हो गये।
कायरों की तरह भागे रूसी और अमेरिकी
विद्रोहियों से लड़ते लड़ते सोवियत संघ के बहुत सैनिक मारे गये। बहुत लंबे समय तक सोवियत सैनिक अगानिस्तान में रूक नहीं सकते थे। धीरे-धीरे सोवियत संघ की अफगानिस्तान में रुचि कम होने लगी। इस बीच दिसम्बर 1991 में सोवियत संघ में साम्यवादी शासन का खात्मा हो गया। अफगानिस्तान की सीमा से लगे उजबेकिस्तान, तजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान जैसे सोवियत संघ के गणराज्य आजाद मुल्क हो गये। सोवियत संघ का नाम बदल कर रूस हो गया। रूस के हाथ खींचने से 1992 के आसपास अफगानी सत्ता कमजोर होने लगी। इसकी वजह से वहां गृहयुद्ध शुरू हो गया। 1994 में तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा जमा लिया। तलिबान शासन में अफगानिस्तान दुनिया भर के आतंकवादियों का अड्डा बन गया। अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन ने भी अफगानिस्तान में अपना ठिकाना बना लिया। इसी बीच 11 सितम्बर 2001 को अलकायदा के आतंकियों ने अमेरिका के ट्विन टावर को विमान आत्मघाती हमले में धाराशायी कर दिया। अमेरिका ने जिस अलकायदा को पाल-पोस कर खड़ा किया उसी ने उसे रक्तरंजित कर दिया। अमेरिका ने तालिबान को हुक्म दिया कि वह लादेन को उसके हवाले करे। जब तालिबान ने ऐसा नहीं किया तो अमेरिका ने 2001 में उसकी सत्ता उखाड़ फेंकी। लेकिन रूस हो या अमेरिका, दोनों में से कोई तालिबान को जड़ से नहीं खत्म कर पाया। रूसियों की तरह आखिरकार अमेरिकी सैनिकों ने भी एक दिन अफगानिस्तान छोड़ दिया। इसके बाद अफगानिस्तान की लुंजपुंज अशरफ गनी सरकार को हटा कर तालिबानियों ने शासन पर कब्जा कर लिया। अगर रूस ने 1973 में अफगानिस्तान के शासक जहीर शाह को हटाने की साजिश नहीं रची होती तो शायद अमेरिका भी यहां टांग नहीं अड़ाता। दोनों लड़े, भिड़े और अड़े। लेकिन अंत में हुआ क्या ? अफगान नागरिकों को मौत के दरिया में डूबो कर दोनों चलते बने।