'उत्तर कोरिया की जेल में मैंने शव गाड़े'
जान जोखिम में डालकर उत्तर कोरिया से भागी दो महिलाओं की कहानी.
दक्षिण कोरिया की राजधानी सोल से क़रीब दो घंटे की दूरी पर एक छोटा सा शहर बर्फ़ की चादर में ढंका हुआ है.
तापमान माइनस 10 डिग्री तक गिर चुका है और सड़कों पर इंसान बमुश्किल दिखते हैं.
हमारी तलाश एक तहखाने नुमा वन-बेडरूम अपार्टमेंट में आकर ख़त्म होती है.
घंटी का जवाब 48 साल की एक महिला ने दिया और थोड़ा डरते हुए हमारे आईडी कार्ड देखे.
भीतर बैठने की जगह के नाम पर एक गद्दा बिछा हुआ है और इसी कमरे में किचन भी है और बाथरूम का दरवाज़ा भी.
15 साल पहले मि रियोंग (नाम बदला हुआ) उत्तर कोरिया की एक प्लास्टिक फैक्ट्री प्रमुख थीं.
बहन का परिवार भागकर दक्षिण कोरिया आया और टीवी पर इंटरव्यू दे दिया.
उत्तर में मौजूद इनके परिवार पर भी गाज गिरी और इनकी ज़िन्दग़ी जेलों में और चीन के गिरजाघरों में छुपते हुए बीती.
'बेटी वहीं पर छूट गई'
मि रियोंग बात करते हुए सिसकने लगती हैं.
उन्होंने कहा, "जेल में मार खाई, मुझसे दूसरों के शव गड़वाए गए और दो साल बाद बाहर आने पर मेरा तलाक़ करवा दिया गया. मेरी बेटी वहीं पर छूट गई और मैं चीन भाग गई".
चीन में कई साल छिपकर रहने के बावजूद मि उत्तर कोरिया में गरीबी में रह रही अपनी बेटी को निकाल नहीं सकीं.
दक्षिण के एक शहर में आकर बस चुकीं इनकी बहन ने किसी तरह इन्हे यहां बुलाया और शरण दिलवाने का सिलसिला शुरू हुआ.
मि रियांग ने बताया, "एक रेस्त्रां में 15 घंटे रोज़ की नौकरी करने लगी ताकि रहने की छत मिल जाए. इस तरह का मुश्किल काम करने की आदत भी नहीं थी. इस बीच मुझे हार्ट अटैक आया और महीनों बिस्तर पर बीते. कमाने के रास्ते बंद हो रहे थे और दक्षिण कोरिया में पेट भरना मुश्किल हो गया था. फिर बुज़ुर्ग लोगों की नर्सिंग का काम शुरू किया. बहुत ज़िल्लत होती है और बुरा व्यवहार सहना पड़ता है. लेकिन अपनी बेटी को निकालने के पैसे जुटाने के लिए सहती हूँ. बेटी अब भी उत्तर कोरिया नाम के नरक में फंसी है."
उत्तर से भागकर आने वालों की ख़ासी तादाद
1953 में ख़त्म हुए कोरियाई युद्ध के बाद से क़रीब तीस हज़ार लोग उत्तर कोरिया से भागकर दक्षिण आए हैं.
वे दशकों से जारी किम परिवार के शासन की दर्द भरी यादों को भुलाना चाहते हैं और नई ज़िन्दग़ी शुरू करने की आस में रहते हैं.
ग़ैरकानूनी तरीके से चीन होकर आने वालों की तादाद ज़्यादा हैं और दक्षिण कोरिया आने पर इनसे लंबी पूछताछ होती है.
संतुष्टि होने पर ही इन्हें इस समाज में बसाने का काम शुरू होता है.
अफ़सोस और लाचारी के अलावा उतर कोरिया से भागकर आए लोगों में गुस्सा भी है.
ज़्यादातर के क़रीबी रिश्तेदार अब भी वहां ख़तरे से बाहर नहीं हैं और इनके मुताबिक़ बदतर हालत में रखे गए हैं.
लेकिन इसके बावजूद मुन मि ह्वा जैसों ने उन्हें बाहर निकलाने की मुहिम जारी रखी है.
मुन मि ह्वा के पति उत्तर कोरियाई सेना में अफ़सर थे. परिवार में सब कुछ ठीक चल रहा था.
1990 के दशक में सूखा पड़ा और इनका परिवार भी मुश्किल में आया.
'वापस नहीं जाना चाहती'
इनके मुताबिक़, राजधानी प्योंगयांग से डेढ़ घंटे दूर बसे इनके शहर हयिरोंग-सी में खाने की किल्लत हो रही थी और विरोध दर्ज करने वालों को गोली मार दी जाती थी.
अपनी बेटियों के साथ देश छोड़कर भागीं मुन मि ह्वा ने लाओस में दक्षिण कोरियाई दूतावास में पहुंचकर शरण ली.
उन्होंने बताया, "मेरी एक बेटी बॉर्डर पार करने में खो गई. भागने के बाद पति को नौकरी से निकाल दिया गया और उनके भाई ने जाली कागज़ बनवाकर उन्हें बचा रखा है. वहां इंसान की कोई क़द्र नहीं, सब रोबोट बन चुके हैं. भले ही मेरी बेटियां छोटे होटलों में नौकरी करती हों और हमें यहाँ (दक्षिण कोरिया में) बराबरी का दर्जा न मिलता हो, मैं वापस नहीं जाना चाहती."
हाल के वर्षों में उत्तर से भाग कर आए लोगों की तादाद थोड़ी कम तो हुई है लेकिन अब भी जारी है. भाग कर आने पर भी कुछ चुनौतियां बनी रहती हैं.
ओकनीम चुंग दक्षिण कोरिया की सांसद हैं और उत्तर कोरियाई शरणार्थी कमेटी की प्रमुख भी रह चुकी हैं.
उन्होंने कहा, "हम पूरी कोशिश करते हैं कि उत्तर कोरिया से भागकर आने वालों को अपने लोकतांत्रिक समाज का हिस्सा बनाएं. लेकिन दिक़्कत ये है कि पांच-छह दशकों में इनकी सोच ऐसी बना दी गई है कि उसे बदलना आसान नहीं. दक्षिण कोरिया में इनके देश की विचारधारा के लोग भी नहीं हैं, शायद इसीलिए घुलने-मिलने में समय लगता है."
इधर जो उत्तर कोरियाई नागरिक भागकर दक्षिण कोरिया पहुँच भी गए हैं उनमें से ज़्यादातर आज भी पुरानी यादों से जूझ रहे हैं.
मि रियोंग ने विदा लेते समय कहा था, "मैं दक्षिण कोरिया के हर शहर में नहीं रह सकती क्योंकि बुरे तजुर्बे आसानी से भुलाए भी तो नहीं जा सकते".