भारतीय एक्टिविस्ट, जिन्होंने बदल दिया ब्रिटेन का चेहरा
इन दोस्तों ने भारत की आज़ादी में मदद की और ब्रिटेन में भेदभाव को चुनौती दी.
ब्रिटेन दूसरे विश्व युद्ध की तबाही से उबरने के लिए कॉमनवेल्थ (राष्ट्रमंडल) की तरफ़ देख रहा था.
लेकिन मज़दूरों की कमी के उस दौर में बहुत से अहम काम करने वाले प्रवासी मज़दूर भेदभाव और नस्लवाद का सामना कर रहे थे.
युद्ध शुरू होने से कुछ समय पहले ही ब्रिटेन पहुँचे दो भारतीय दोस्त भविष्य के ब्रिटेन में बड़ा बदलाव लाने वाले थे.
वीपी हंसरानी और उजागर सिंह ने पंजाब के अपने छोटे से गाँव रुरका कलां से ब्रिटेन का सफ़र बड़ी उम्मीदों के साथ तय किया था.
1928 इंस्टिट्यूट से जुड़ी डॉ. निकेता वेद मानती हैं कि इन दो युवा दोस्तों ने ना सिर्फ़ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी भूमिका निभाई बल्कि समकालीन ब्रितानी एशियाई लोगों के लिए बुनियाद भी डाली.
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित होकर दोनों दोस्तों ने युद्ध शुरू होने के कुछ दिन बाद ही कोवेंट्री में इंडियन वर्कर्स एसोसिएशन-आईडब्ल्यूए (भारतीय कामगार यूनियन) की स्थापना कर दी थी.
मैल्कम-एक्स
आगे चलकर देश भर में इस संगठन की शाखाएं खुलीं और प्रवासी मज़दूरों के कल्याण से जुड़े मुद्दों को उठाया गया.
1965 में मैल्कम-एक्स की वेस्ट मिडलैंड्स यात्रा ने इस संस्था को नक़्शे पर ला दिया था. लेकिन हंसरानी और सिंह को बहुत पहले ही पता चल गया था कि बेहतर ज़िंदगी के लिए उन्हें क़दम उठाने ही होंगे.
लंदन में भारतीय कामगरों के साथ रहने के बाद दोनों ही दोस्त 1939 में वेस्ट मिडलैंड्स चले आए थे. उन्हें बर्मिंगम में एक मेटल वर्क फ़ैक्ट्री में काम मिल गया था.
हंसरानी ने इस बारे में लिखा था, "ये बहुत मुश्किल काम था, बहुत गर्म और भारी और हालात बहुत अच्छे नहीं थे. सप्ताह के 6 दिन काम करने के ढाई पाउंड मिलते थे."
वो कहते हैं, "उजागर ने मुझसे कहा कि हम कोवेंट्री जाएंगे और अच्छा वेतन वाला काम देखेंगे और साथ ही रहने की जगह भी खोजेंगे."
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हंसरानी को कुछ हाथ-पैर मारने के बाद फेरीवाले का काम करने के लिए प्रमाण पत्र मिल गया.
अपने संस्मरणों में वो लिखते हैं कि दो पाउंड और दस शिलिंग से उन्होंने टाई, रूमाल, रेज़र ब्लेड, निकर और मेजपोश ख़रीदे और बेचने शुरू किए.
उन्होंने ये भी लिखा है कि वो और उनके मित्र किस तरह जर्मनी के हवाई हमलों के दौरान बमों से बचते थे. वो बमबारी की रातें कोवेंट्री के बाहर मैदान में बिताते थे.
उधर भारत में आज़ादी का आंदोलन मज़बूत हो रहा था और ब्रितानी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ आक्रोश बढ़ रहा था.
अपने अहिंसक आंदोलन से महात्मा गांधी दुनियाभर में चर्चित हो गए थे. उन्हें लगता था कि ब्रितानी राज में भारतीय के साथ अन्याय हो रहा है और उन्होंने इसे अपने अहिंसक तरीक़ों से चुनौती दी थी.
लेकिन युद्ध के छिड़ने से भारत की आज़ादी की तरफ़ उठने वाले क़दम भी रुक गए थे.
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1939 में क्रिसमस की पूर्व संध्या कोवेंट्री के एक इलाक़े के एक घर में एक जैसी विचारधारा वाला कुछ प्रवासी जुटे. इनमें उजागर सिंह और वीपी हंसरानी भी शामिल थे. उन्होंने ब्रिटेन में रह रहे प्रवासियों में भारत के आज़ादी आंदोलन के प्रति जागरूकता लाने के लिए एक संस्था बनाने पर चर्चा की.
हंसरानी के पोते अरुण वेद कहते हैं, "इसका गठन ना सिर्फ़ भारतीय कामगरों को भारत के हालात से अवगत कराने के लिए किया गया था बल्कि पूर्ण आज़ादी के लिए प्रयास करने के लिए किया गया था."
"वो कोई हिंसक समूह नहीं थे, बल्कि वो कार्यकर्ता थे जो चर्चा करते थे और गठजोड़ बनाते थे."
उजागर सिंह इस संस्था के कोषाध्यक्ष बने और हंसरानी संस्था के मासिक न्यूज़ बुलेटिन आज़ाद हिंद का संपादन करते थे. हंसरानी ने भारत में शिक्षा हासिल की थी.
वेद बताते हैं, "इसका काम लोगों में जागरूकता लाना था लेकिन ये भारत में ब्रितानी साम्राज्य के पाखंड पर भी रोशनी डाल रहा था."
वो कहते हैं, "हम नाज़ियों और जर्मन साम्राज्यवाद से लड़ रहे थे और उसी समय ब्रिटेन का अपना एक साम्राज्य था जो भारतीयों, अफ़्रीकियों और कैरीबियाई लोगों को दूसरे दर्जे का नागरिक समझता था."
"आईडब्ल्यूए और इंडिया लीग जैसे समूहों ने इस पाखंड को ज़ोर-शोर से उठाया और सहयात्रियों और लोगों के बीच एकजुटता पैदा की."
ब्रिटेन में रह रहे भारतीय पर शोध करने और उन्हें रेखांकित करने के लिए स्थापित थिंक टैंक द 1928 इंस्टिट्यूट वीपी हंसरानी और उजागर सिंह जैसे ही छुपे हुए हीरो की कहानियां सामने ला रहा है.
पहले इसे इंडिया लीग के नाम से जाना जाता था लेकिन यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़र्ड के साथ इसके काम के चलते इसे अब नई पहचान दी गई है.
कमिंग टू कोवेंट्री- स्टोरीज़ ऑफ़ द साउथ एशियन पॉयनीयर्स किताब और शोध प्रोजेक्ट की लेखिका डॉ. पीपा विर्दी बताती हैं कि उस दौ में इंग्लैंड में रह रहे लोगों में एक ख़ास रेडिकल राजनीतिक विचारधारा थी लेकिन ये उस दौर में पंजाब में चल रहे आज़ादी आंदोलन से भी प्रभावित थी.
"एक वामपंथी प्रगतिशील राजनीति थी, जिसका व्यापक असर हो रहा था और आईडब्ल्यूए भी उससे ही प्रभावित थी."
क़त्ल की एक वारदात ने इस समूह को ब्रितानी इंटेलिजेंस सेवाओं के रडार पर ला दिया और इसके नेताओं पर निगरानी रखी जाने लगी.
13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में उधम सिंह ने माइकल ओ डायर को गोली मार दी.
कोवेंट्री में आईडब्ल्यूए की बैठकों में हिस्सा लेने वाले उधम सिंह पंजाब के पूर्व लैफ्टिनेंट गवर्नर को 1919 में हुए जलियांवाला बाग़ नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार मानते थे. पंजाब के अमृतसर में एक सभा में हिस्सा ले रहे सैकड़ों भारतीय नागरिकों पर ब्रितानी सैनिकों ने गोली चला दी थी.
माइकल ओ डायर की हत्या के आरोप में उधम सिंह को फांसी दे दी गई थी.
इंडिया ऑफ़िस के रिकॉर्ड बताते हैं कि इस हत्याकांड के बाद इस समूह के बारे में रिपोर्टें लिखीं गईं थीं, जिनमें कहा गया था कि भले ही इस समूह से जुड़े लोग हिंसक ना हो लेकिन उनमें बड़ी संख्या में ऐसे सदस्य हैं जो हिंसक तरीक़ों का समर्थन करते हैं और दूसरे लोगों को भी इस पर सहमत होने के लिए प्रेरित करते हैं.
इन रिपोर्टों में आज़ाद हिंद को एक आक्रामक उर्दू बुलेटिन बताया गया था और कहा गया था कि अपने मुखर लेखों की वजह से ये भारतीय समुदाय के बीच लोकप्रिय हो सकता है.
ब्रितानी लाइब्रेरी में अपने दादा की फ़ाइल देखने के बाद वेद कहते हैं कि मुझे नहीं लगता कि उन्हें पता होगा कि उन पर निगरानी रखी जा रही है.
वेद कहते हैं कि हंसरानी ब्रितानी इंटेलीजेंस सेवाओं के रडार पर अपने लेखन की वजह से आए होंगे क्योंकि वो ही भाषण लिखते थे और अख़बार संपादित करते थे. इसके अलावा वो संगठन के कार्यकर्ताओं को संगठित भी करते थे.
धार्मिक हिंसा
1947 में भारत को ब्रिटेन से आज़ादी मिली और देश दो हिस्सों में बँट गया. दसियों लाख लोगों को अपने घर छोड़कर इधर-उधर होना पड़ा, जिससे समूचे क्षेत्र में तनाव पैदा हो गया.
क़रीब एक करोड़ बीस लाख लोग शरणार्थी बन गए. धार्मिक आधार पर हुई हिंसा में दसियों हज़ार लोग मारे गए.
युद्ध के बाद ब्रिटेन में काम करने वालों की कमी हो रही थी. 1948 में पारित ब्रितानी नागरिकता क़ानून ने कॉमनवेल्थ देशों के लोगों को बिना वीज़ा के ब्रिटेन में काम करने का अधिकार दे दिया.
आज़ादी का मक़सद पूरा हो चुका था और ब्रिटेन में भारतीय मूल के प्रवासियों की एक नई लहर आ रही थी. ऐेसे में आईडब्ल्यू ने प्रवासियों के मुद्दों को अपना मक़सद बना लिया.
लंदन के साउथहॉल और वूल्वरहैंपटन समेत ऐसे इलाक़ों में संगठन की शाखाएं खुल गईं जहां भारतीय प्रवासियों की आबादी थी.
वर्तमान अध्यक्ष अवतार सिंह बताते हैं कि अध्यक्ष की संस्तुति पर स्थानीय एसोसिएशनों ने एकजुट होकर इंडियन वर्कर्स एसोसिएशन ग्रेट ब्रिटेन का गठन किया.
1958 में आईडब्ल्यूए की बर्मिंगम शाखा के गठन में अहम भूमिका निभाने वाले सिंह उसके प्रमुख कार्यकर्ता भी थे.
वो कहते हैं कि उस दौर में नस्लवाद बहुत ज़्यादा था. स्थानीय पबों में और कार्यस्थलों पर भारतीय मूल के लोगों के साथ भेदभाव किया जाता था.
अश्वेत और एशियाई मूल के प्रवासियों को आमतौर पर पबों में दाख़िल नहीं होने दिया जाता था और मकान मालिक उन्हें घर किराए पर देने से कतराते थे.
"उस समय कोई क़ानून नहीं था, कोई भी बेरोकटोक नस्लवाद कर सकता था."
"ऐसे में आईडब्ल्यूए ने इसके ख़िलाफ़ राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू किया ताकि सरकार पर दबाव बनाया जा सके."
धीरे-धीरे यह ट्रेड यूनियन अभियान के क़रीब आती गई और इसने अपने आप को भेदभाव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए प्रतिबद्ध कर लिया.
इसके साथ-साथ ये प्रवासियों को नए देश में अपना एक समुदाय होने का अहसास भी देती थी.
अवतार सिंह कहते हैं, "अमेरिकी राजनीतिक कार्यकर्ता मैल्कम एक्स ने आईडब्ल्यूए के निमंत्रण पर 1965 में स्मेथविक की यात्रा की. इसने हमारे अभियान को दुनिया के नक़्शे पर ला दिया था."
मार्शल स्ट्रीट के कुछ निवासी काउंसल पर खाली मकानों को ख़रीदने और उन्हें सिर्फ़ गोरे लोगों के लिए उपलब्ध कराने का दबाव बना रहे थे.
मैल्कम एक्स ने पत्रकारों से कहा था कि वो यहाँ इसलिए आ रहे हैं क्योंकि वो अश्वेत लोगों के साथ हो रहे व्यवहार से दुखी हैं.
अवतार सिंह बताते हैं, "वो पब जाना चाहते थे ऐसे में मैं उन्हें जानबूझकर एक ऐसे बार में ले गया, जहाँ अश्वेत लोगों को जाने नहीं दिया जाता था."
"उस स्ट्रीट पर एक घर में एक अश्वेत व्यक्ति रहता था, उन्होंने उससे बात की थी. वहाँ एक पोस्टर लगा था जिस पर लिखा था कि सिर्फ़ गोरे लोग ही घर लेने के लिए आवेदन करें. ये सब देखकर वो बहुत हैरान थे."
"उन्होंने टिप्पणी की थी कि यहाँ तो हालात अमेरिका से भी बदतर हैं."
इसके नौ दिन बाद न्यू यॉर्क में एक रैली में मैल्कम एक्स की गोली मारकर हत्या कर दी गई.
1970 के दशक में अधिक संख्या में दक्षिण एशियाई महिलायों ने काम करना शुरू किया. वो भी आईडब्ल्यूए की सदस्य बन गईं और कार्यस्थलों पर बेहतर परिस्थितियों के लिए आवाज़ उठाने लगीं.
1974 में लीसेस्टर इंपीरियल टाइपराइटर्स फ़ैक्ट्री में तीन महीनों तक हड़ताल चली. इसें अधिकतर एशियाई कामगरों ने हिस्सा लिया. आईडब्ल्यूए इसका समर्थन कर रही थी. हालांकि स्थानीय ट्रांस्पोर्ट और जनरल वर्कर्स यूनियन ने इसका समर्थन नहीं किया था. इसे लेकर विवाद भी हुआ था.
1964 में हैरोल्ड विल्सन के नेतृत्व में लेबर पार्टी की सरकार बनने के एक साल बाद रेस रिलेशंस एक्ट रेस पारित कर दिया गया था.
अवतार सिहं कहते हैं कि आईडब्ल्यूए के अभियान के चलते ही ये संभव हो सका था.
वो कहते हैं, "आईडब्ल्यूए ने 60 और 70 के दशक और फिर आगे 80-90 के दशक में अपनी भूमिका निभाई और ये अब भी अपना काम कर रही है."
1978 में उधम सिंह के सम्मान में सोहो रोड हैंड्सवर्थ में एक समाज कल्याण केंद्र की स्थापना की गई थी. अवतार सिंह इसके संस्थापक ट्रस्टी हैं.
वो कहते हैं कि कोवेंट्री में शुरू हुई ये संस्था नस्लवाद के अभियान चलाने में अग्रणी थी और इसकी लड़ाई समाज के सभी वर्गों की स्वीकार्यता के लिए थी.
महानगर का अभिजात वर्ग
पंजाब से आए दो दोस्त जो कोवेंट्री में आईडब्ल्यूए की स्थापना अगुआ थे वो इस अभियान से तो जुड़े ही रहे लेकिन आगे चलकर इंडिया लीग में भी प्रमुख भूमिका निभाई.
डॉ. निकिता वेद कहती हैं कि ये समूह भले ही आईडब्ल्यूए के साथ मिलकर काम करता था लेकिन इसके सदस्य महानगरों के अभिजात वर्ग से थे.
इसकी स्थापना 1928 में कृष्णा मेनन ने की थी लेकिन इससे बर्टरैंड रसल, एनेयूरिन बेवान और एचजी वेल्स जैसे वामपंथी विचारक भी जुड़े थे.
द 1928 इंस्टीट्यूट से जुड़ी डॉ. वेद कहती हैं कि पंजाब के एक छोटे से गांव से आए हंसरानी और सिंह अपने सभी संसाधनों का इस्तेमाल करके ब्रिटेन पहुंचे थे.
वो कहती हैं कि सामान्य शिक्षा के बावजूद उन्होंने उस दौर के महान साहित्यिकारों और अभिजात अंग्रेज़ों के साथ वक्त बिताया.
उजागर सिंह की वंशज बैरोनेस संदीप वर्मा हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स की सदस्य रहीं और संयुक्त राष्ट्र के महिला समूह का हिस्सा भी रहीं.
वो कहती हैं कि हंसरानी और सिंह ने सैकड़ों हिंदुस्तानी परिवारों को ब्रिटेन में बसने में मदद की.
"हमारी पीढ़ि अपनी आज़ादी और अधिकारों को लिए उनके बलिदानों की कृतज्ञ है और ये बात हमें भूलनी नहीं चाहिए."
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