ब्रिटेन का लेस्टर ऐसा तो नहीं था फिर हिन्दू-मुसलमान कैसे हुआ?
1951 की जनगणना के मुताबिक़ दक्षिण एशिया से संबंध रखने वाले सिर्फ़ 624 लोग यहाँ रहते थे. अब 70 सालों के बाद इस शहर में ब्रिटिश साउथ एशियन सबसे अधिक जनसंख्या वाले समुदायों में से एक हैं.
कई दशकों से ब्रिटेन के लेस्टर की पहचान एक शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण शहर की थी लेकिन हाल के दिनों में हिंदू-मुस्लिम तनाव के बाद इस शहर के सौहार्द पर सवाल उठने लगे हैं.
1951 की जनगणना के मुताबिक़ दक्षिण एशिया से संबंध रखने वाले सिर्फ़ 624 लोग यहाँ रहते थे. अब 70 सालों के बाद इस शहर में ब्रिटिश साउथ एशियन सबसे अधिक जनसंख्या वाले समुदायों में से एक हैं.
जंग के बाद भारतीय उप महाद्वीप से मुख्य तौर पर दो मौक़ों पर लोगों ने यहां का रुख किया और ये जनगणना से पहले हुआ.
सबसे पहला मौक़ा था 1947 में, जब भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान बना. धार्मिक हिंसा के बीच 10 से 12 करोड़ लोग विस्थापित हुए. इसके अलावा 1948 में ब्रिटिश नेशनल एक्ट के तहत कॉमनवेल्थ नागरिकों को ब्रिटेन में कहीं भी जा कर बसने का अधिकार था.
कई लोग जो बँटवारे के बाद परेशान थे, उन्हें ब्रिटेन बुलाया गया ताकि वो अपनी नई ज़िंदगी शुरू करें और ब्रिटेन के निर्माण में मदद करें.
1950 से दशक में भारत और पाकिस्तान के कई लोग उन लोगों की मदद से लेस्टर पहुँचे, जो पहले से वहां बसे हुए थे. इसे चेन माइग्रेशन कहते हैं. लेस्टर एक बेहतर शहर था और वहाँ डनलप, इपिरीयल टाइपराइटर्स, और कई होज़री मिल्स में लोगों के लिए नौकरियां मौजूद थीं.
यहाँ आने वाले कई लोग पहले सस्ते प्राइवेट घरों में रहने लगे जो कि उत्तर में स्पिनी हिल और पूरब में बेलग्रेव रोड इलाक़े थे. हाल के दिनों में इन्हीं इलाक़ों में तनाव फैला है.
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पंजाब के आए कई लोग
ज़्यादातर लोग पंजाब से आए जो कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों में है. इनमें सिख, मुस्लिम और हिंदू शामिल थे.
इन लोगों ने बँटवारे और धार्मिक हिंसा का दर्द झेला था. लेकिन ये लोग लेस्टर में साथ काम करते थे. इंडियन वर्कर्स असोसिएशन के साथ ये लोग नस्लवाद के ख़िलाफ़ और समानता के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते थे.
साठ के दशक में वहाँ काम कर रहें पुरुषों की पत्नियां और बच्चे उनके साथ रहने आ गए. 1965 से आसपास पूर्वी अफ़्रीका और दक्षिणी अफ़्रीका से भी लोग इस शहर में आने लगे. इसके अलावा यहां गुजराती भी आए.
इन लोगों को कई प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा क्योंकि ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आने वाले तन्गानिक्या और ज़ांज़ीबार (जो बाद में तन्ज़ानिया और कीनिया बने), वो आज़ाद हो गए थे.
कई लोग बेलग्रेव, रशी मीड और मेल्टन रोड में बसने लगे. 1972 में, जब यूगांडा के पीएम ने एशियाई मूल के लोगों को बाहर निकाला तो लेस्टर सिटी काउंसिल को वहां और लोगों के आने की उम्मीद थी. उन्होंने लोगों को आने से रोकने के लिए यूगांडा के प्रेस में विज्ञापन दिए जिसे पढ़कर लोग न आना चाहें.
लेकिन फिर भी लोगों के आने का सिलसिला जारी रहा. पूर्वी अफ़्रीका से एशियाई मूल के कई लोग आए और अपना व्यापार शुरू किया.
इसमें रीटेल, होज़री और उत्पादन के बिज़नेस शामिल थे. बाहर से आने वालों की संख्या बढ़ती गई और इसी के साथ दक्षिणपंथी नेशनल फ्रंट इलाक़े में मज़बूत होता गया.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन के प्रोफ़ेसर गुरहरपाल सिंह लेस्टर में अपना पूरा जीवन ग़ुजार चुके हैं, वो 1964 में पंजाब से आए थे. उनके पिता वॉकर्स क्रिस्प्स फ़ैक्ट्री में मैनेजर थे.
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नस्लवाद के ख़िलाफ़ मिलकर लड़े
वो स्कूल और आस पड़ोस में बढ़ते नस्लवाद को याद करते हैं. उन्हें नेशनल फ्रंट के मार्च के पैदा होने वाला डर भी याद है.
इस धुर दक्षिणपंथी पार्टी के लिए 1976 का चुनाव बहुत ख़ास था, उन्हें शहर के 18 प्रतिशत वोट मिले.
पूरे दशक में नस्लवाद के ख़िलाफ़ मुस्लिम सिख और हिंदू साथ मिलकर आवाज़ उठाते रहे. हालांकि सड़कों पर नेशनल फ्रंट और नस्लवाद विरोधी गुटों के बीच झड़पें होती थीं.
1976 में क़ानून बदला और लोकल काउंसिल को अलग-अलग समुदायो के बीच संबंध स्थापित करने का ज़िम्मा दिया गया.
80 के दशक में ब्रिटिश साउथ एशियन लोगों को सिटी काउंसिल में जगह मिली. स्थानीय प्राधिकरण ने सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों को बढ़ावा देना शुरू किया.
इस दशक में लेस्टर एशियाई त्योहारों का शहर बन गया. दिवाली, बैसाखी और ईद, सभी त्योहारों के जश्न में हज़ारों लोग इकट्ठा होने लगे.
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ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर तारिक़ महमूद कहते हैं कि लेस्टर एक मॉडल सिटी की तरह बन गया था.
लेकिन कई बार भारतीय उपमहाद्वीप के मुद्दे लेस्टर की सड़कों पर हावी होने लगे. प्रोफ़ेसर सिंह बताते हैं कि इंदिरा गांधी की सरकार के समय स्वर्ण मंदिर में सेना के दाखिल होने के बाद से सिख चरमपंथियो के 'अचानक हमले' हो जाते थे.
भारत में 2002 में हुए गुजरात दंगों की ख़बरें प्रोफ़ेसर सिंह ने टीवी पर देखी थी. वो कहते हैं, "वैश्विक मीडिया द्वारा इतने बड़े पैमाने पर, चौबीसो घंटे कवर किया जाना वाला ये पहला दंगा था." वो कहते हैं इस दौरान लेस्टर की सड़कों पर भी कई लोग उतरे थे,
पीड़ितों के पक्ष में कई प्रदर्शन हुए थे, लेकिन हिंसा कभी नहीं हुई."
उनके मुताबिक़ साल 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से भारत की राजनीति को लेस्टर में अलग नज़रिए से देखा जाने लगा है.
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बीजेपी के आने के बाद से यहां रहने वालों में एक तरह के राष्ट्रवाद की भावना आ गई है. वो कहते हैं, "बीजेपी गुजराती हिंदू समुदाय में बहुत पॉपुलर है और ये इस समुदाय के नज़रिए और राजनीति में झलकता है."
प्रोफ़ेसर सिंह कहते हैं कि हाल के दिनों में भी उन्होंने शहर की जनसांख्यिकी को बदलते देखा है.
वो कहते हैं, "दक्षिण एशियाई लोग दक्षिण अफ़्रीका और मलावी से आएं, साथ ही भारत से भी कई लोग आए हैं जो कि हार्ड-लाइन हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति के बीच पले-बढ़ें हैं."
उनका कहना है कि नए लोगों के आने के अलावा लेस्टर के दक्षिण एशियाई समुदाय के लोगों के लिए दूसरी समस्याएं भी हैं-समाजिक मुद्दे और बेरोज़गारी का मुद्दा. और अब समुदायों के बीच दूरियां भी बढ़ने लगी हैं.
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