वुसत का ब्लॉग: भारत-पाकिस्तान, शाबाश! ऐसे ही लगे रहो ताकि दुनिया का मन लगा रहे
इससे दो फ़ायदें होंगे, बातचीत आगे नहीं बढ़ेगी. और दुनिया के सामने ये भी कहा जा सकेगा कि मैं तो बातचीत करना चाहता हूं लेकिन ये नहीं करना चाहता. पहले मिलने पर राज़ी हो जाना और फिर कोई पुरानी बात अचानक याद आ जाने पर मिलने से इंकार कर देना और फिर हाथ लंबे कर-करके एक दूसरे को कोसना.
ये बच्चों और पतियों को स्कूल और काम पर भेजकर पिछली गली में खुलने वाले दरवाज़ों पर खड़ी पड़ोसनों को तो जंचता है लेकिन पड़ोसी देशों को बिलकुल नहीं जमता.
लगता है दोनों ओर के नेतृत्व के दरम्यान ये साबित करने की होड़ लगी हुई है कि कौन कितना बड़ा ड्रामेबाज़ है?
पर अब ये स्क्रिप्ट भी फ़टीचर होती जा रहा है कि पहले अच्छी-अच्छी बातें करो फिर अचानक गालम-गलोच पर उतर आओ.
उसके बाद कुछ दिनों के लिए ख़ामोश हो जाओ और फिर अच्छी-अच्छी बातें शुरु कर दो. ये फ़ॉर्मूला इतना फ़िल्मी हो चुका है कि जब भी भारत और पाकिस्तान की तरफ़ से कोई एक दूसरे के लिए अच्छी बात निकालता है तो दिल डूबने लगता है कि ख़ुदा न करे आगे कुछ बुरा होने वाला है.
हर एपिसोड में भरे बाज़ार में एक-दूसरे को जूता दिखाने का हर बार वही पुराना अंदाज़ गोपाल फ़ेरीवाले से लेकर असलम नाई तक सबको रट चुका है. भगवान के लिए और कुछ नहीं तो स्क्रिप्ट में ही कुछ बदलाव ले आओ, कोई सीन ही ऊपर नीचे कर दो.
मसलन यही कर लो कि अगर दिल्ली या इस्लामाबाद में से कोई एक कहे कि आओ सखी वार्तालाप-वार्तालाप खेलें तो सामने वाला इंकार न करे बल्कि आमने-सामने बैठकर आहिस्ता से मुस्कुराते हुए दूसरे को कुछ ऐसी गंदी बात कह दे कि अगले के कान और मुंह आग बबूला हो जाएं. और जब वो गुस्से में उठकर वॉक आउट करे तो दूसरा देश हैरत से पूछे क्या हुआ? कहां जा रहे हैं हुज़ूर? बातचीत का शौक पूरा हो गया क्या?
इससे दो फ़ायदें होंगे, बातचीत आगे नहीं बढ़ेगी. और दुनिया के सामने ये भी कहा जा सकेगा कि मैं तो बातचीत करना चाहता हूं लेकिन ये नहीं करना चाहता. पहले मिलने पर राज़ी हो जाना और फिर कोई पुरानी बात अचानक याद आ जाने पर मिलने से इंकार कर देना और फिर हाथ लंबे कर-करके एक दूसरे को कोसना.
ये बच्चों और पतियों को स्कूल और काम पर भेजकर पिछली गली में खुलने वाले दरवाज़ों पर खड़ी पड़ोसनों को तो जंचता है लेकिन पड़ोसी देशों को बिलकुल नहीं जमता.
भले ही अंदर से कोई देश दूसरे के बारे में कितना क़मीना क्यों ना हो.
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मोदी हों या इमरान नाम में भला क्या रखा है?
आज के ज़माने में वैसे भी मार्केटिंग ही सबकुछ है. छूरी भी मारना हो तो ऐसे मुस्कुरा कर सफ़ाई से मारिए कि देखने वालों को पता ही न चले कि कब मार दी.
कुछ वक़्त तक जब भारत और पाकिस्तान एक दूसरे पर गुर्राते थे तो रूसी और अमरीकी उन्हें ठंडा करने के लिए दिल्ली और इस्लामाबाद की ओर दौड़ पड़ते थे.
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पर अब दुनिया को इतनी आदत हो गई है कि रूस और अमरीका छोड़ मोज़ाम्बीक और पपुआ न्यू गिनी को भी पता है कि ज़्यादा से ज़्यादा कुछ नहीं होगा ये ऐसे ही एक-दूसरे पर चीखते रहेंगे.
अब तक मुझ जैसों को ये पता था कि भारत के बारे में पाकिस्तान की पॉलिसी फ़ौज तय करती है.
पर भारत की ओर से इस बार जिस लहजे में पाकिस्तान को झाड़ा जा रहा है उससे न जाने क्यों लगता है कि जैसे दिल्ली की नई पाकिस्तान पॉलिसी सुषमा स्वराज या अजीत डोभाल ने नहीं बल्कि अर्नब गोस्वामी ने बनाई है.
शाबाश! ऐसे ही लगे रहो ताकि दुनिया का मन लगा रहे.
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