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अफ़ग़ान शांति वार्ताः क्या पाकिस्तान पचा पाएगा भारत की मौजूदगी?

इस बातचीत में भारत को एक स्टेकहोल्डर के तौर पर मान्यता मिलना भारत की एक बड़ी उपलब्धि है. अब तक अफ़ग़ान शांति वार्ता में भारत को वैसी भूमिका नहीं मिल पा रही थी जिसकी माँग वो कर रहा था.

By प्रवीण शर्मा
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दिल्ली के हैदराबाद हाउस में अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ (फ़ाइल फ़ोटो)
Mohd Zakir/Hindustan Times
दिल्ली के हैदराबाद हाउस में अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ (फ़ाइल फ़ोटो)

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकेन ने अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी को एक चिट्ठी लिखी है. इसमें अफ़ग़ानिस्तान में शांति के लिए बातचीत को तेज़ करने की बात की गई है और कुछ उपाय सुझाए गए हैं.

अफ़ग़ानिस्तान के समाचार चैनल 'टोलो न्यूज़' ने रविवार, सात मार्च को इस चिट्ठी को छापा है. इसमें अफ़ग़ानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच शांति बहाली के लिए रुकी हुई बातचीत को फिर से शुरू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई में एक कॉन्फ्रेंस बुलाने की बात कही गई है.

इस कॉन्फ्रेंस में अंतरराष्ट्रीय स्टेकहोल्डर्स को शामिल करने के लिए कहा गया है. इस चिट्ठी में चार सुझाव दिए गए हैं. भारत के लिहाज़ से यह चिट्ठी काफ़ी अहमियत रखती है. इसमें अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया में भारत को भी एक हिस्सेदार के तौर पर माना गया है.

इसमें कहा गया है, "हम संयुक्त राष्ट्र से अनुरोध करना चाहते हैं कि वे रूस, चीन, पाकिस्तान, ईरान, भारत और अमेरिका के विदेश मंत्रियों और राजदूतों की मीटिंग बुलाएं ताकि अफ़ग़ानिस्तान में शांति को मदद करने वाली संयुक्त एप्रोच पर चर्चा की जा सके."

इस चिट्टी के आने के बाद अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया के लिए अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि ज़लमय ख़लीलज़ाद का फ़ोन भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर के पास आया और दोनों के बीच शांति वार्ता को लेकर हालिया घटनाक्रमों पर बातचीत हुई.

एस. जयशंकर ने एक ट्वीट में लिखा है, "अमेरिकी विदेश प्रतिनिधि ज़लमय ख़लीलज़ाद का कॉल आया. शांति वार्ता के संबंध में हालिया घटनाक्रमों पर चर्चा हुई. हम संपर्क में रहेंगे."

हालांकि, इन प्रस्तावों के साथ ही ब्लिंकेन ने यह भी स्पष्ट किया है कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से पूर्ण सैन्य वापसी की एक मई की डेडलाइन समेत सभी विकल्पों पर विचार कर रहा है. अमरीका और तालिबान के बीच फ़रवरी 2020 में शांति समझौते पर दस्तख़त हुए थे और इसके तहत विदेशी सैन्य बलों को अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर जाना है.

रूस नहीं चाहता था कि भारत बने बातचीत का हिस्सा

अंग्रेजी अख़बार 'द इंडियन एक्सप्रेस' के मुताबिक़, रूस और चीन के बीच बढ़ती नज़दीकी के बीच रूस ने जो तऱीका सुझाया था, उसमें रूस, चीन, अमेरिका, पाकिस्तान और ईरान को बातचीत में शामिल किए जाने की बात कही गई थी. इस प्रस्ताव में बातचीत से भारत को बाहर रखने की बात की गई थी.

एक अधिकारी ने अख़बार से बताया कि ऐसा पाकिस्तान के कहने पर किया गया था जो नहीं चाहता कि भारत इस इलाक़े में शांति के लिए तैयार किए जा रहे रोडमैप का हिस्सा बने.

लेकिन भारत इस पर लंबे वक़्त से काम कर रहा था और इसके लिए सभी भारत ने अफ़ग़ानिस्तान और उससे बाहर सभी अहम किरदारों से संपर्क साधा ताकि वह बातचीत की इस टेबल का हिस्सा बन सके.

अब इस टीम का हिस्सा होने के कारण भारत को उम्मीद है कि वह विशेष रूप से आतंकवाद, हिंसा, महिलाओं के अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर नियमों को तय करने में अहम भूमिका निभाएगा.

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भारत के लिए कितना अहम है अफ़ग़ान शांति प्रयासों में शामिल होना?

इस बातचीत में भारत को एक स्टेकहोल्डर के तौर पर मान्यता मिलना भारत की एक बड़ी उपलब्धि है. अब तक अफ़ग़ानिस्तान की शांति वार्ता में भारत को वैसी भूमिका नहीं मिल पा रही थी जिसकी माँग भारत कर रहा था. भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में इंफ्रास्ट्रक्चर समेत विकास के कामों में योगदान और मानवीय मदद की है.

साथ ही अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपनी पुरानी दोस्ती के चलते भी भारत वहां ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाना चाहता है. एक्सपर्ट्स भी मानते हैं कि ब्लिंकेन की चिट्ठी में भारत को बातचीत में शामिल किए जाने का ज़िक्र एक महत्वपूर्ण बात है.

ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन की एसोसिएट फेलो कृति एम शाह मूल रूप से अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के मामलों पर नज़र रखती हैं.

कृति कहती हैं, "भारत के लिहाज़ से यह एक अहम बात है. भारत का अभी तक न शांति वार्ताओं में कोई बड़ा रोल नहीं रहा है और भारत ने पीछे रहकर काम किया है ताकि पाकिस्तान को ये न लगे कि भारत उसे तंग कर रहा है. लेकिन, अफ़ग़ानिस्तान में भारत ने बड़ी भूमिका निभाई है. इसके अलावा भारत लंबे वक़्त से कह रहा है कि दूसरे क्षेत्रीय देशों को भी अफ़ग़ान शांति वार्ता में हिस्सा बनाया जाना चाहिए."

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अभी तक शांति प्रक्रिया के लिए जितनी भी बातचीत हुई है उसमें भारत की भूमिका को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी गई थी. अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाली के लिए पाकिस्तान को ही सबसे बड़ा स्टेकहोल्डर माना जाता था, लेकिन, पहली बार न सिर्फ़ पाकिस्तान बल्कि दूसरे क्षेत्रीय मुल्कों को भी इसका हिस्सा बनाया जा रहा है.

ख़ास बात यह है कि इसमें ईरान को भी शामिल किया जा रहा है.

गेटवे हाउस के इंटरनेशनल सिक्योरिटी स्टडीज प्रोग्राम के फ़ेलो समीर पाटिल कहते हैं, "अभी तक अमेरिका को लगता था कि अफ़ग़ानिस्तान में शांति के लिए सबसे बड़ी भूमिका पाकिस्तान की होगी. अब अमेरिका इस नीति से हट रहा है. अब वह सभी देशों को साथ लेकर इस बातचीत को आगे बढ़ाना चाहता है."

पाटिल बताते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप के वक्त पर शुरू की गई अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया में भारत की उतनी भूमिका नहीं थी. लेकिन, अब नए आए बाइडन प्रशासन में इस ग़लती को ठीक किए जाने की कोशिश की जा रही है. भारत के साथ ही ईरान, रूस को शामिल किया गया है. अमेरिका का फ़ोकस यह है कि अफ़ग़ानिस्तान में शांति प्रक्रिया में पड़ोसी मुल्कों को भी तरजीह दी जाए ताकि शांति समझौता टिकाऊ हो और लंबे वक्त तक चले.

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तालिबान को मिल रही तवज्जो कम होगी?

पिछला समझौता होने के बाद भी तालिबान ने हिंसा में कोई कमी नहीं की. तालिबान ने इस समझौते का पूरी तरह से पालन नहीं किया. ऐसे में तालिबान को कम तवज्जो दिया जाना भारत के लिए फ़ायदेमंद है.

पाटिल कहते हैं कि पिछली बार की बातचीत में तालिबान को बड़ी भूमिका दी गई थी, लेकिन इस बार दूसरे देशों को भी अहम हिस्सेदार माना गया है.

पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार ज़ैग़म खान कहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान के समाधान के लिए पाकिस्तान पर अमेरिका का ज़रूरत से ज़्यादा दबाव था. पहले पाकिस्तान पर अमेरिकी सैन्य अभियान में हिस्सा लेने का दबाव रहा. बाद में जब बातचीत शुरू हुई तो पाकिस्तान पर ये जोर था कि वह तालिबान पर दबाव बनाकर उसे समझौते के लिए राज़ी करे. अब इसमें रूस, चीन, ईरान को भी शामिल किया गया है. पाकिस्तान हमेशा से चाहता था कि पड़ोसी मुल्कों को इसमें शामिल किया जाए. ऐसे में यह एक अच्छी चीज़ है.

इस्लामाबाद स्थित इंडिपेंडेंट उर्दू के मैनेजिंग एडिटर हारून रशीद कहते हैं, "पाकिस्तान की नीति यही रही है कि शांति लाने की जो कि भी कोशिश हो वो अफ़ग़ान आधारित होनी चाहिए. ऐसे में यूएन और दूसरे देशों को इसमें शामिल करके इस प्रक्रिया को पेचीदा करने की कोशिश दिखाई दे रही है."

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हारून रशीद कहते हैं कि चूंकि अमेरिका बड़ा देश है और अफ़ग़ानिस्तान में स्टेकहोल्डर है, ऐसे में अगर वह ऐसा सुझाव दे रहा है तो पाकिस्तान इसका स्वागत ही करेगा. इसकी एक वजह यह भी है कि क़तर में चल रही बातचीत के फ़िलहाल कोई नतीजे नज़र नहीं आ रहे हैं.

हारून कहते हैं कि तालिबान किसी साझा सरकार के हक़ में नहीं हैं. वे अपनी बहुमत वाली सरकार बनाना चाहते हैं. साथ ही उन्होंने एक मई की डेडलाइन पर भी सख़्त रुख़ अपना रखा है.

हालांकि, ज़ैग़म खान कहते हैं कि पाकिस्तान ये नहीं चाहता होगा कि अमेरिका अचानक से अफ़ग़ानिस्तान से चला जाए. इसके कई तरह के नुक़सान पाकिस्तान को उठाने पड़ सकते हैं.

वे कहते हैं, "सुरक्षा हालात गड़बड़ाने से पाकिस्तान में अफ़ग़ान शरणार्थियों की आमद बढ़ सकती है, साथ ही कारोबारी नुक़सान भी हो सकते हैं. इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा बढ़ने से पाकिस्तान में भी हिंसा में इज़ाफ़ा हो सकता है."

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पाकिस्तान के लिए चिंता की बात

हालांकि, अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाली की बातचीत में भारत को शामिल किए जाने का ज़िक्र पाकिस्तान के लिए बेचैनी का सबब है. पाकिस्तान नहीं चाहता है कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत की मौजूदगी मज़बूत हो. दूसरी ओर, अफ़ग़ानिस्तान और भारत के संबंध पिछले कुछ वर्षों में मज़बूत हुए हैं.

भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में कंस्ट्रक्शन और विकास के दूसरे कामों में सक्रियता से योगदान दिया है. कृति कहती हैं, "हमें देखना होगा कि पाकिस्तान इस पर कैसे रिएक्ट करता है या भारत को इससे बाहर रखने के लिए कितनी कोशिशें करता है. पाकिस्तान नहीं चाहेगा कि भारत को बड़ा रोल मिले."

हालांकि, बाइडन ने अभी तक पाकिस्तान को दरकिनार करने की बात नहीं की है. पाटिल कहते हैं, "इस प्रक्रिया में एक स्टेकहोल्डर होने से अब भारत ये बता सकता है कि किस तरह से ख़ुद पाकिस्तान ही अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाल होने की राह में अड़चनें पैदा करता है."

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तालिबान की पूरी लीडरशिप पाकिस्तान में बैठी है. ऐसे में भारत यह कह सकता है कि अगर पाकिस्तान तालिबान के नेतृत्व पर दबाव डाले तो शांति बहाली मुमकिन हो सकती है. दूसरी ओर, पाकिस्तान की हमेशा से ये चिंता रही है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान का इस्तेमाल पाकिस्तान में तोड़फोड़ की गतिविधियां चलाने में करता है.

पाकिस्तान का मानना रहा है कि चूंकि भारत की सीमाएं अफ़ग़ानिस्तान से नहीं लगती हैं ऐसे में उसे अफ़ग़ानिस्तान के मामलों में शामिल होने का हक़ नहीं है.

ज़ैग़म खान कहते हैं, "पाकिस्तान 1947 से ही मानता आ रहा है कि भारत उसे दो तरफ़ से घेरने के लिए अफ़ग़ानिस्तान का इस्तेमाल करता है. पाकिस्तान शुरू से ही अफ़ग़ानिस्तान से भारत को बाहर रखने के लिए कोशिशों में लगा रहा है. हालांकि, उसे कुछ हद तक सफलता भी मिली है, लेकिन इसकी कॉस्ट बहुत ज़्यादा है."

हारून कहते हैं कि भारत को बातचीत में शामिल करने पर पाकिस्तान को यक़ीनन ऐतराज़ होगा. हालांकि, विदेश दफ्तर के बयान से ही तस्वीर साफ़ हो पाएगी. वे कहते हैं कि हो सकता है कि पाकिस्तान खुलेआम इसका ज़िक्र नहीं करे, पर कूटनीतिक स्तर पर वह इसे अमरीका के साथ उठा सकता है. इससे तनाव पैदा हो सकता है.

वे कहते हैं कि ज़लमय ख़लीलज़ाद की भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर से भी बातचीत पाकिस्तान के लिए एक टेंशन की बात है.

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ज़्यादातर विश्लेषक मानते हैं कि ट्रंप के सत्ता से हटने और बाइडन के आने के बाद भी अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अमेरिका की नीति में कोई ख़ास शिफ़्ट नहीं आया है. ज़ैग़म ख़ान कहते हैं कि पाकिस्तान को डर था कि बाइडन के आने के बाद अमेरिका ट्रंप की पॉलिसी से हट सकता है और अफ़ग़ानिस्तान में समझौते की बजाय ताक़त का सहारा ले सकता है.

वे कहते हैं, "ये चिंता अब दूर हुई है. साथ ही पाकिस्तान इससे भी ख़ुश है कि इसमें बातचीत के ज़रिए शांति लाने की बात की गई है."

कृति कहती हैं कि अमेरिका की नीति में तो कोई ख़ास शिफ़्ट नहीं दिखता है. वे कहती हैं कि अमेरिकी सैन्य बलों को वहां से निकालने की एक मई की डेडलाइन में अभी तक कोई बदलाव नहीं आया है. हो सकता है कि नैटो के बल वहां पर बने रहें.

वे कहती हैं कि बाइडन भी अफ़ग़ानिस्तान से निकलना चाहते हैं, लेकिन वे वहां सुरक्षा के हालात पुख़्ता करने के बाद ही निकलना चाहते हैं. वे अफ़ग़ानिस्तान से निकलने के तरीक़ों पर भी फ़ोकस कर रहे हैं. पाकिस्तान के पत्रकार हारून और ज़ैग़म ख़ान भी मानते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अमेरिका की नीतियों में कोई बदलाव नहीं दिखता है.

हालांकि, कृति एक अहम बात की ओर इशारा करती हैं. वे कहती हैं कि अमेरिका की ग़लती ये है कि उन्होंने अभी तक पाकिस्तान के साथ कोई डील नहीं की है. ऐसे में अगर तालिबान के साथ समझौता हो भी जाए तो भी पाकिस्तान के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आएगा.

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हालांकि, भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों के एक्सपर्ट मान रहे हैं कि दोनों देशों के लिए अफ़ग़ान शांति वार्ता में शामिल होना अच्छी बात है. पाटिल कहते हैं, "भारत के साथ भी पाकिस्तान का अभी संघर्ष विराम समझौता हुआ है. ऐसे में हो सकता है कि पाकिस्तान कुछ वक्त तक भारत के साथ संबंधों के बहाल होने का इंतजार करे.

कृति कहती हैं, "अमेरिका को पाकिस्तान को मनाना होगा कि भारत के अफगानिस्तान में विकास के कामों से उसको कोई डर नहीं है."

दूसरी ओर, तुर्की को इसमें शामिल किया जाना भी पाकिस्तान के लिए राहत की बात होगी क्योंकि तुर्की के साथ पाकिस्तान के नजदीकी रिश्ते हैं.

ज़ायग़म खान कहते हैं, "मेरी निजी राय है कि भारत को इस समाधान में शामिल होना चाहिए. इसकी वजह यह है कि अफगानिस्तान के भारत से मजबूत रिश्ते हैं और वह चाहता है कि भारत इस प्रक्रिया में शामिल हो. दूसरी ओर, अमेरिका भी इस पूरे इलाके में भारत की भूमिका को मानता है. ऐसे में भारत को बाहर रखकर अफगानिस्तान में शांति बहाली मुश्किल हो सकती है. जब तक सभी पड़ोसी देशों के हितों का ध्यान नहीं रखा जाएगा, शांति बहाली मुश्किल होगी."

वे कहते हैं कि पाकिस्तान के लिए अनुकूल बात यह भी है कि अब बातचीत खाड़ी देशों में न होकर तुर्की में होगी जिसके पाकिस्तान के साथ नजदीकी रिश्ते हैं.

BBC Hindi
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English summary
Afghan peace talks: Will Pakistan be comfortable with India's presence?
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