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1965 भारत-पाक युद्ध: 46 साल बाद पाकिस्तानी पायलट ने अफ़सोस जताया

ये पहला मौका था जब भारत-पाक की लड़ाई के बीच एक असैनिक विमान को निशाना बनाया गया.

By रेहान फ़ज़ल - बीबीसी संवाददाता
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19 सितंबर, 1965 की सुबह गुजरात के मुख्यमंत्री बलवंतराव मेहता बहुत तड़के ही उठ गए थे.

10 बजे उन्होंने एनसीसी की एक रैली को संबोधित किया. खाना खाने के लिए घर लौटे और दोपहर डेढ़ बजे अहमदाबाद हवाई अड्डे के लिए रवाना हो गए.

उनके साथ उनकी पत्नी सरोजबेन, उनके तीन सहयोगी और 'गुजरात सामाचार' का एक संवाददाता था.

सुनिए: 46 वर्ष का वो लंबा इंतज़ार

जैसे ही वो हवाई अड्डे पहुंचे, भारतीय वायुसेना के पूर्व पायलट जहाँगीर जंगू इंजीनियर ने उन्हें सेल्यूट किया.

विमान में बैठते ही इंजीनियर ने अपना ब्रीचक्राफ़्ट विमान स्टार्ट किया. उन्हें 400 किलोमीटर दूर द्वारका के पास मीठापुर जाना था जहाँ बलवंतराय मेहता एक रैली में भाषण देने वाले थे.

जहाज़ को शूट कर दें

उधर साढ़े तीन बजे के आसपास, पाकिस्तान के मौरीपुर एयरबेस पर फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट बुख़ारी और फ़्लाइंग ऑफ़िसर क़ैस हुसैन से कहा गया कि भुज के पास रडार पर एक विमान को चेक करें.

क़ैस अभी चार महीने पहले ही अमरीका से एफ़ 86 सेबर का कोर्स कर लौटे थे. क़ैस ने बीबीसी को बताया, "स्क्रैंबल का सायरन बजने के तीन मिनट बाद मैंने जहाज़ स्टार्ट किया. मेरे बदीन रडार स्टेशन ने मुझे सलाह दी कि मैं बीस हज़ार फ़ुट की ऊँचाई पर उड़ूँ. उसी ऊंचाई पर मैंने भारत की सीमा भी पार की."

"तीन चार मिनट बाद उन्होंने मुझे नीचे आने के लिए कहा. तीन हज़ार फ़ुट की ऊँचाई पर मुझे ये भारतीय जहाज़ दिखाई दिया जो भुज की तरफ़ जा रहा था. मैंने उसे मिठाली गाँव के ऊपर इंटरसेप्ट किया. जब मैंने देखा कि ये सिविलियन जहाज़ है तो मैंने उस पर छूटते ही फ़ायरिंग शुरू नहीं की. मैंने अपने कंट्रोलर को रिपोर्ट किया कि ये असैनिक जहाज़ है."

"मैं उस जहाज़ के इतने करीब गया कि मैं उसका नंबर भी पढ़ सकता था. मैंने कंट्रोलर को बताया कि इस पर विक्टर टैंगो लिखा हुआ है. ये आठ सीटर जहाज़ है. बताइए इसका क्या करना है?"

"उन्होंने मुझसे कहा कि आप वहीं रहें और हमारे निर्देश का इंतज़ार करें. इंतज़ार करते-करते तीन-चार मिनट गुज़र गए. मैं काफ़ी नीचे उड़ रहा था, इसलिए मुझे फ़िक्र हो रही थी कि वापस जाते समय मेरा ईंधन न ख़त्म हो जाए. लेकिन तभी मेरे पास हुक्म आया कि आप इस जहाज़ को शूट कर दें."

सभी लोग मारे गए

गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री बलवंतराय मेहता.
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गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री बलवंतराय मेहता.

लेकिन क़ैस ने तुरंत उस विमान को शूट नहीं किया. उन्होंने दोबारा कंट्रोल रूम से इस बात की तसदीक़ की कि क्या वो वास्तव में चाहते हैं कि उस विमान को गिरा दिया जाए.

क़ैस हुसैन याद करते हैं, "कंट्रोलर ने कहा कि आप इसे शूट करिए. मैंने 100 फ़ुट की दूरी से उस पर निशाना लेकर एक बर्स्ट फ़ायर किया. मैंने देखा कि उसके बाएं विंग से कोई चीज़ उड़ी है. उसके बाद मैंने अपनी स्पीड धीमी कर उसे थोड़ा लंबा फ़ायर दिया. फिर मैंने देखा कि उसके दाहिने इंजन से लपटें निकलने लगीं."

"फिर उसने नोज़ ओवर किया और 90 डिग्री की स्टीप डाइव लेता हुआ ज़मीन की तरफ़ गया. जैसे ही उसने ज़मीन को हिट किया वो आग के गोले में बदल गया और मुझे तभी लग गया कि जहाज़ में बैठे सभी लोग मारे गए हैं."

शूटिंग से पहले जहाज़ ने अपने विंग्स हिलाए

क़ैस बताते हैं कि शूटिंग से पहले उस विमान ने उन्हें बार-बार संकेत देने की कोशिश की थी कि वो एक असैनिक विमान है.

"जब मैंने उस जहाज़ को इंटरसेप्ट किया तो उसने अपने विंग्स को हिलाना शुरू किया जिसका मतलब होता है, हैव मर्सी ऑन मी. लेकिन दिक्कत ये थी कि हमें शक था कि ये सीमा के इतने नज़दीक उड़ रहा है. कहीं ये वहाँ की तस्वीरें तो नहीं ले रहा है?"

"बलवंतराय मेहता का तो किसी को ख़्याल ही नहीं आया कि वो और उनकी श्रीमती और छह सात बंदे जहाज़ में होंगे. ऐसा भी कोई तरीका नहीं था कि रेडियो के ज़रिए ये पता लगाया जा सके कि उस जहाज़ के अंदर कौन है?"

सैनिक कामों के लिए असैनिक विमानों का इस्तेमाल

पाकिस्तान के एक उड्डयन इतिहासकार कैसर तुफ़ैल लिखते हैं, "भारत और पाकिस्तान दोनों ने 1965 और 1971 की दोनों लड़ाइयों में सैनिक कामों के लिए सिविलियन जहाज़ों का इस्तेमाल किया था. इसलिए हर विमान की सैनिक क्षमताओं का आकलन किया जा रहा था."

"सिर्फ़ संयुक्त राष्ट्र और रेड क्रॉस के विमानों में उनकी पहचान बड़ी-बड़ी दिखाई देती है. उस समय के उड्डयन कानूनों में इस तरह की ग़लती न करने के लिए कोई प्रावधान नहीं था. 1977 में कहीं जाकर उसे जिनेवा कन्वेंशन का हिस्सा बनाया गया."

कई अनुत्तरित सवाल

उसी दिन शाम को 7 बजे के बुलेटिन में आकाशवाणी ने घोषणा की कि एक पाकिस्तानी विमान ने भारत के एक सिविलियन जहाज़ को गिरा दिया है जिसमें गुजरात के मुख्यमंत्री बलवंतराय मेहता सवार थे.

पीवीएस जगनमोहन और समीर चोपड़ा अपनी किताब 'द इंडिया पाकिस्तान एयर वॉर ऑफ़ 1965' में लिखते हैं, "नलिया के तहसीलदार को क्रैश साइट पर भेजा गया. वहाँ उन्हें गुजरात सामाचार के पत्रकार का जला हुआ परिचय पत्र मिला."

"कई सवालों के जवाब अभी तक नहीं मिल पाए हैं, मसलन जहाज़ को लड़ाई की जगह पर बिना किसी एस्कॉर्ट विमान के क्यों जाने दिया गया? क्या जहाज़ भारतीय वायु सेना की जानकारी के बिना वहाँ गया?"

चार महीने बाद इस पूरे मामले की जाँच रिपोर्ट आई. इसके अनुसार, "मुंबई के वायुसेना प्रशासन ने मुख्यमंत्री के विमान को उड़ने की अनुमति नहीं दी थी. जब गुजरात सरकार ने ज़ोर डाला तो वायु सेना ने कहा था कि अगर आप जाना ही चाहते हैं तो अपने रिस्क पर वहाँ जाइए."

ये पहला मौका था कि भारत और पाकिस्तान की लड़ाई के बीच एक असैनिक विमान को निशाना बनाया गया था.

बलवंतराय मेहता भारत के पहले राजनीतिज्ञ थे जो सीमा पर एक सैनिक एक्शन में मारे गए थे.

45 मिनट तक बचने के लिए उड़ते रहे

बीबीसी स्टूडियो में जहांगीर इंजीनियर की बेटी फ़रीदा सिंह के साथ रेहान फ़ज़ल.
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बीबीसी स्टूडियो में जहांगीर इंजीनियर की बेटी फ़रीदा सिंह के साथ रेहान फ़ज़ल.

जहाज़ के पायलट जहांगीर इंजीनियर का परिवार उस समय दिल्ली में रहता था. उनकी बेटी फ़रीदा सिंह को सबसे पहले ये ख़बर उनके चाचा एयर मार्शल इंजीनियर से फ़ोन पर मिली कि उनके पिता और इंजीनियर के भाई इस दुनिया में नहीं रहे.

फ़रीदा सिंह ने बीबीसी को बताया, "पहले सुनकर तो दुख हुआ ही. जब डिटेल्स आए तो और दुख हुआ. वो अपना पीछा कर रहे जहाज़ से बचने के लिए 45 मिनट तक उड़ते रहे. वो खुद फ़ाइटर पायलट थे. उन्हें इस बात का अंदाज़ा था कि छोटे जहाज़ में सेबर जेट की तुलना में पेट्रोल कम ख़र्च होता है."

"वो काफ़ी देर तक अपने जहाज़ को ऊपर नीचे करते रहे. क़ैस हुसैन ने उन पर तब फ़ायरिंग शुरू की जब उनके विमान में बहुत कम पैट्रोल रह गया था. वो जब इस मिशन के बाद जब मौरीपुर हवाई बेस पर उतरे तो उसमें इतना कम पैट्रोल था उनका इंजिन फ़्लेम आउट हो गया था और उनके जहाज़ को टो करके ले जाना पड़ा था. आप कह सकते हैं कि डैडी ऑलमोस्ट मेड इट."

क़ैस हुसैन का अफ़सोस का ईमेल

इसके बाद इस घटना पर कोई ख़ास चर्चा नहीं हुई. क़ैस हुसैन भी इस ट्रेजेडी को अपने दिल में भरे, चुपचाप रहे.

46 साल बाद पाकिस्तान के एक अख़बार में कैसर तुफ़ैल का एक लेख छपा जिसमें उन्होंने इंजीनियर के विमान को युद्ध क्षेत्र में जाने की अनुमति देने के लिए भारतीय ट्रैफ़िक कंट्रोलर्स को ज़िम्मेदार ठहराया.

तब क़ैस ने तय किया कि वो भारतीय विमान के पायलट की बेटी फ़रीदा से संपर्क कर इस हादसे पर अपना अफ़सोस प्रकट करेंगे.

क़ैस हुसैन याद करते हैं, "11 फरवरी, 1965 को मेरे दोस्त कैसर तुफ़ैल ने कहा कि ये कहानी ऐसी है जिसका अब कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं है सिवाए आपके. उन्होंने मेरा इंटरव्यू लिया और वो 'डिफ़ेंस जर्नल पाकिस्तान' में छपा. फिर मेरे पास भारत की जाँच कमेटी की रिपोर्ट आई जिसमें कहा गया था कि इंजीनियर का जहाज़ लैंड कर चुका था. उसे दो पाकिस्तानी जहाज़ों ने स्ट्रैफ़िंग करके ज़मीन पर तबाह किया."

"मुझे लगा कि इनके परिवार वालों को ये तक नहीं पता है कि किन परिस्थितियों में उनकी मौत हुई थी. मुझे लगा कि मुझे उन लोगों को ढूंढ कर सही-सही बात बतानी चाहिए. मैंने इसका ज़िक्र अपने दोस्त नवीद रियाज़ से किया."

"उनके ज़रिए मुझे जंगू इंजीनियर की बेटी फ़रीदा सिंह का ईमेल मिला. 6 अगस्त 2011 को मैंने उन्हें एक ईमेल लिखा जिसमें मैंने सारा किस्सा बयान किया. मैंने लिखा कि मानव ज़िंदगी का ख़त्म होना सबके लिए दुख की बात होती है और मैं इसका अपवाद नहीं हूँ. मुझे आपके वालिद की मौत पर बहुत अफ़सोस है. अगर कभी मुझे मौका मिला तो मैं खुद आपके सामने आकर इस घटना पर अपना अफ़सोस प्रकट करूँगा."

"माफ़ी मैंने नहीं माँगी क्योंकि जब फ़ाइटर पायलट अंडर ऑर्डर होता है तो दो सूरतें होती हैं. अगर वो मिस करता है तो कोर्ट ऑफ़ इनक्वाएरी होती है कि आपने क्यों मिस किया? और अगर वो जानकर नहीं मारता तो ये कोर्ट मार्शल ऑफ़ेंस होता है कि आपने आदेश का उल्लंघन किया."

वो कहते हैं, "मैं नहीं चाहता था कि मैं इनमें से किसी आरोप का हिस्सा बनूँ."

फ़रीदा का जवाब

उधर फ़रीदा सिंह को पहले ये पता ही नहीं चला कि क़ैस हुसैन ने उन्हें इस तरह की मेल लिखी है.

उन्होंने बीबीसी को बताया, "मुझे पता चला कि वो पायलट जिसने मेरे पिता के विमान को गिराया था, मुझे ढूंढ रहा है. मुझे ये सुनकर एक झटका सा लगा. मैं थोड़ा-सा झिझकी भी क्योंकि मैं अपने पिता की मौत के बारे में दोबारा कुछ नहीं सुनना चाहती थी."

"उन दिनों मैं अपना ईमेल रोज़ नहीं खोलती थी. मेरे एक दोस्त ने मुझे फ़ोन कर कहा कि आप के नाम इंडियन एक्सप्रेस में एक चिट्ठी छपी है. मैंने तुरंत अपना ईमेल खोला और उसे जवाब देने में एक मिनट की भी देरी नहीं की. उसके पीछे सबसे बड़ा कारण ये था कि उनके ख़त में कोई लाग लपेट नहीं था और वो दिल से लिखा गया था."

वो बताती हैं, "उन्हें उस बात के लिए काफ़ी दुख था. उन्होंने लिखा कि मैं ऐसा नहीं करना चाहता था. ये अपने आप में बहुत बड़ी बात थी. वो व्यक्तिगत रूप से मेरे पिता के ख़िलाफ़ नहीं थे. ये लड़ाई थी."

क़ैस कहते हैं, "उनका बहुत ही अच्छा ईमेल था. मैंने तो सिर्फ़ एक क़दम आगे बढ़ाया था लेकिन उन्होंने कई क़दम आगे बढ़ाए.."

'लड़ाई में हम सब प्यादे हैं'

फ़रीदा कहती हैं कि मुझे इस बात पर आश्चर्य है कि क़ैस ने 46 साल बाद ऐसा क्यों किया, "लेकिन एक चीज़ मेरे ज़हन में आई कि अगर दो देशों के बीच दुश्मनी है तो कोई तो उस पर मलहम लगाए. उन्होंने पहल की."

"मैं कोई ऐसी चीज़ नहीं लिखना चाहती थी जो उन्हें बुरी लगे...मैंने एक मिनट के लिए भी नहीं सोचा कि ये पायलट की ग़लती है. वो एक लड़ाई लड़ रहे थे. बड़े अच्छे लोगों को भी लड़ाई में वो चीज़ें करनी पड़ती हैं जो उन्हें पसंद नहीं होती है."

"मैंने उन्हें लिखा कि लड़ाई के खेल में हम सब लोग प्यादे होते हैं... मैंने उन्हें लिखा कि इसके बाद मैं उम्मीद करती हूँ कि आपको शाँति मिलेगी."

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English summary
1965 Indo Pak war: Pakistani pilot apologized 46 years later.
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