क्विक अलर्ट के लिए
अभी सब्सक्राइव करें  
क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

बार-बार हिंसा के बावजूद उसने वो रिश्ता क्यों नहीं छोड़ा

कई साल तक घरेलू हिंसा और प्रताड़ना झेल चुकी ये महिला आख़िर कैसे उससे बाहर निकल पाई. हिंसक रिश्ते से निकलना इतना मुश्किल क्यों है.

By BBC News हिन्दी
Google Oneindia News

किसी रिश्ते में प्यार की जगह हिंसा ले ले तो उससे बाहर निकलने में औरत क्यों हिचकती है? वो क्यों बर्दाश्त करती है, नज़रअंदाज़ करती है, माफ़ करती है और उस चक्रव्यूह में फंसी रहती है?

Why didnt she leave the relationship despite repeated violence

दिल्ली में रह रही महाराष्ट्र की श्रद्धा वालकर के मामले में ऐसे सभी सवाल उठे. पुलिस के मुताबिक़, श्रद्धा घरेलू हिंसा झेलती रहीं और आख़िर में उनके लिव-इन पार्टनर ने उनकी 'हत्या की' और 35 टुकड़े करके कई जगहों पर फेंक दिया.

पढ़ी-लिखी, सशक्त, आज़ाद ख़्याल औरत भी ऐसे रिश्ते में क्यों फंसी रहती है जिसमें उसकी इज़्ज़त न हो और उसके साथ मारपीट हो?

दीपिका* को अपने पति से अलग होने में सात साल लग गए. उस पहले थप्पड़ से लेकर फ़्रैक्चर की नौबत आने तक और आख़िरकार उस रिश्ते से बाहर निकलने में उन्हें इतना वक्त क्यों लगा? आख़िर में किसने मदद की? और बाहर निकलने के बाद क्या हुआ? ये सब सवाल मैंने उनसे पूछे और उन्होंने दिल खोल कर बताई अपनी कहानी.

(चेतावनी - इस आपबीती में मानसिक और शारीरिक हिंसा का वर्णन है जो आपको परेशान कर सकता है)


वो मुझे जान से मार सकते थे. ये तो मेरा नसीब था कि मैं उससे पहले उस रिश्ते से बाहर निकल पाई.

हमें बड़ा ही ऐसे किया जाता है कि हम शादी में, प्यार में, उस बंधन में यक़ीन करते हैं. मानते हैं कि सब ठीक हो जाएगा, कि आप बर्दाश्त कर सकते हैं.

मेरे लिए भी शुरुआत ऐसे ही हुई थी.

जब मेरे पति ने मुझे पहली बार थप्पड़ मारा, मैंने ख़ुद को समझाया था कि वो तनाव में हैं. ये बस ग़ुस्सा है, चला जाएगा.

हमारी शादी को कुछ दो साल हुए थे और एक मिसकैरिज के बाद मेरी बेटी का जन्म हुआ था.

गर्भवती होने के दौरान कॉम्प्लिकेशन की वजह से चार महीने बेड रेस्ट पर रहना पड़ा था. मैं मां के घर चली गई थी जो उन्हें पसंद नहीं आया.

ये भी पढ़ें:- पति पर गर्भवती महिला को जलाने का आरोप, क़ानून में कार्रवाई के लिए क्या हैं प्रावधान

जब हमारी बेटी साढ़े सात महीने में ही पैदा हो गई तो तनाव और बढ़ा. उसका वज़न सिर्फ़ डेढ़ किलो था.

अस्पताल में ऑपरेशन थिएटर से कमरे में आने के बाद मैं अभी होश में आई ही थी कि वो वहीं चिल्लाने लगे, सामान फेंकने लगे और उन्हें शांत करने के लिए नर्सों को बुलाना पड़ा.

उन्हें मेरे मां-बाप से चिढ़ होने लगी थी. तो उन्होंने मुझे उनसे दूर कर दिया. कहा कि मेरी ज़िंदगी में या तो मां-बाप रह सकते हैं या वो.

ग़ुस्से में उन्होंने घर छोड़ दिया. मैंने भीख मांगी कि वो लौट आएं क्योंकि हमारी छोटी-सी बच्ची को पिता की ज़रूरत थी.

वो लौटे, लेकिन इस शर्त पर कि जब वो घर में होंगे तो मेरे परिवार का और कोई नहीं होगा. वो मुझ पर पूरा नियंत्रण चाहते थे.

'वो पहला थप्पड़'

ऐसा लगता था मानो वो राक्षस बन गए हों. मेरे परिवार को बहुत भला-बुरा कहते थे, बेइज़्ज़ती करते थे.

इसे 'वर्बल अब्यूज़' कहते हैं, लेकिन इस बारे में मेरी कोई समझ नहीं थी. साल 2005 था. इन मुद्दों पर खुलकर बात नहीं होती थी.

आख़िरकार एक दिन बातों ने हिंसा का रूप लिया और ग़ुस्से में उन्होंने मुझे पहली बार थप्पड़ मारा.

फिर फ़ौरन मेरे पैरों पर गिर गए, माफ़ी मांगने लगे. कहा अपना हाथ काट लेंगे. मेरे लिए फूल लेकर आए.

मैंने भी सोचा कि बस ये एक थप्पड़ था. सिर्फ़ ग़ुस्सा था, फिर दोबारा कभी नहीं होगा. उन्हें माफ़ कर दिया और हम साइकॉलजिस्ट के पास गए.

ये भी पढ़ें:- शादी में बलात्कार: किन देशों ने इसे गुनाह माना है

पहले साइकॉलजिस्ट ने ग़ुस्सा कम करने की दवा दी. पर मेरे पति ने वो तीन दिन ली और छोड़ दी.

दूसरे के पास गए तो उन्होंने सलाह दी, "आप अपने पति की हर बात में हां में हाँ मिलाएं तभी तनाव कम रहेगा!"

लेकिन ये कोई रास्ता नहीं था क्योंकि जिस दिन मैंने अपने पति की बात नहीं मानी, उन्होंने मुझे फिर थप्पड़ मारा.

'जब थप्पड़ निशान छोड़ने लगे'

मैं दोबारा गर्भवती हुई और अब बेटा पैदा हुआ. पर झगड़े बरक़रार रहे. इस बार मेरे पति ने जब थप्पड़ मारा तो निशान रह गया.

मैंने उसे मां-बाप से छिपाया और जहां पढ़ाती थी उस स्कूल में कुछ बहाना किया.

दो बच्चों के साथ घर छोड़ना मुमकिन है, ये विश्वास ही नहीं था मुझे.

वही चक्र चलने लगा. वो मुझे मारते, माफ़ी मांगते, तनाव को दोष देते, मुझे दोष देते, कहते अपनी जान ले लेंगे, ख़ुद को कमरे में बंद कर लेते.

हम एक और काउंसलर के पास गए. उन्होंने कहा, "ये हर शादी में होता है. ये घरेलू हिंसा नहीं है क्योंकि वो रोज़ आपको नहीं मारते. घर जाएं और अपने रिश्ते पर काम करें."

यानी मैंने तीन बार काउंसलर्स का रुख़ किया. पर बुरी क़िस्मत कि उनमें से किसी ने सही राह नहीं दिखाई. और मैं उनकी बताई ग़लत सलाह को मानती रही.

मारपीट रुकी नहीं. अगली बार जब मेरे पति ने मारा, मेरी गोद में हमारा दो साल का बेटा था.

ये भी पढ़ें:-दिल्ली गैंगरेप- निर्भया ने कैसे बदली ये ज़िंदगियां

उसे बचाने की कोशिश में मैं गिर गई और सिर पर चोट लग गई.

आख़िर मैंने घर छोड़ दिया. बच्चों के साथ एक बेडरूम के फ़्लैट में रहने लगी. आर्थिक तौर पर सक्षम थी तो ये कर पाई, लेकिन पूरे मन से नहीं.

अब भी मैंने अपने मां-बाप को हिंसा के बारे में नहीं बताया, सिर्फ़ बहस और झगड़ों के बारे में बताया. मुझे लगता था कि मेरे पति को पता चला कि मेरे मां-बाप जानते हैं तो हमें और दूर करेंगे, और नाराज़ होंगे, और मारपीट होगी.

शादी की ताक़त में बहुत यक़ीन था तब मुझे. ये नहीं समझ रही थी कि मेरी शादी में अब प्यार नहीं है, सिर्फ़ डर है.

किसी रिश्ते में जब एक इंसान का हाथ उठ जाता है, यानी वो आपकी इज़्ज़त करना बंद कर देता है. वो पहला थप्पड़ ही बर्दाश्त नहीं करना चाहिए, पर हम निभाते जाते हैं क्योंकि यही सीखा है.

मैं भी ख़ुद को दोष देती, अपने फ़ैसलों पर सवाल उठाती. ये मानती कि मैं सब ठीक कर सकती हूँ.

मेरे पति का फिर वही रोना, माफ़ी मांगना, सुधर जाने का वादा करना भी बार-बार शादी को बचाने की उम्मीद पैदा करता था.

ठहर कर सोचने, सही आकलन करने से रोकता था. उसी उम्मीद में तीन महीने बाद मैं घर लौट आई.

'जब मैंने घर छोड़ा, लेकिन फिर लौट आई'

कुछ ही समय बाद, मेरे बेटे के तीन साल पूरे होने के बाद, एक दिन फिर झगड़ा हुआ और इस बार मेरे पति ने मेरा सिर दीवार में दे मारा और मारपीट की.

मेरे घुटने में फ़्रैक्चर हो गया, डॉक्टर के पास गई और प्लास्टर चढ़वाया. वापस आई तो उन्होंने कहा मैं ड्रामा कर रही हूँ और फिर मारपीट की.

मैं बहुत डर गई थी. हिम्मत जुटाकर आख़िरकार मां-बाप को हिंसा के बारे में बताया और पुलिस थाने गई.

मैं फिर अलग रहने लगी. मेरे बच्चों के लिए वो बहुत मुश्किल वक़्त था. वो दो तरफ़ खिंच रहे थे.

मेरे पति की बहन और पिता बार-बार फ़ोन कर के कहते कि मैं वापस आ जाऊँ तो वो बदल जाएँगे.

ये मेरी दूसरी शादी थी. मैं उसे ठीक करना चाहती थी.

ये भी पढ़ें:- श्रद्धा वालकर केस: टॉक्सिक रिलेशनशिप क्या है, इससे कैसे बाहर निकल सकते हैं?

मेरी पहली शादी लव मैरिज थी. तब मैं सिर्फ़ 20 साल की थी. सही पार्टनर चुनने की समझ नहीं थी. एक साल में ही मैंने तलाक़ ले लिया.

उसके बाद 16 साल तक मैंने शादी के बारे में नहीं सोचा. मैं बहुत ख़ुश थी. अपने पैरों पर खड़ी थी. टीचर की अपनी नौकरी मुझे अच्छी लगती थी. एक आज़ाद जीवन जी रही थी.

मां-बाप ने दबाव डाला, डेटिंग साइट पर प्रोफ़ाइल बनाई. ये मुझे वहीं मिले. वो बहुत ख़्याल रखते थे. मेरे लिए अपना शहर छोड़ कर मेरे शहर में आने को तैयार थे. शादी के बहुत इच्छुक थे.

मिलने के सात महीने में हमारी शादी हो गई. हम दोनों की उम्र ज़्यादा थी तो जल्दी बच्चा चाहते थे. मैं गर्भवती हुई पर दो महीने में ही मिसकैरिज हो गया.

याद करती हूं तो एहसास होता है कि सब तभी से बदलने लगा. वो नाराज़ रहने लगे. किसी को मेरे पास नहीं आने देते थे. मेरी मां को भी नहीं. तब सबने कहा था, "नई शादी है, होता है."

ये भी पढ़ें:- भारत में हर 25 मिनट पर एक हाउसवाइफ़ क्यों ले लेती है अपनी जान

तब वो मुझे नहीं मारते थे. सामान फेंकते थे. कप तोड़ दिया करते थे. प्लेट फेंक कर तोड़ देते थे. घर में हर वक़्त तनाव रहने लगा था. ये भी एक तरह की हिंसा ही थी, बस मैंने तब ही समझा जब उन्होंने मुझे थप्पड़ मारा.

अब पलटकर देखती हूं तो सोचती हूं कि समाज की नज़रों में इज़्ज़त और शादी बचाने की चाहत जैसी कितनी वजहें मुझे रोकती रहीं. मैं अपना ख़्याल रखने की जगह, उनके बदलने का इंतज़ार करती रही.

फ़्रैक्चर के बाद, दूसरी बार घर छोड़ने के बाद भी मैं इसी उम्मीद के चलते फिर लौट आई. ये तय किया कि मैं अपनी शादी को एक आख़िरी मौका दूंगी.

'जब उन्होंने मेरे पिता को मारा'

क़रीब एक साल तक सब ठीक भी रहा. लेकिन फिर मेरे पति की नौकरी चली गई और उनके पिता गुज़र गए.

जीवन में तनाव बढ़ा तो मेरे साथ मारपीट फिर शुरू हो गई, और बहुत बढ़ गई. अब वो हर हफ़्ते एक या दो बार मुझे मारते.

उनके पिता की मौत के बाद वो इतना नाज़ुक वक्त था कि मैं न उन्हें छोड़ पा रही थी और न किसी को बता पा रही थी कि मारपीट फिर शुरू हो गई है.

एक रात नाराज़गी में उन्होंने घर की चीज़ें मुझ पर फेंकनी शुरू कर दीं. जो हाथ में आया - बोतलें, कुर्सियां... फिर मेरा गला दबाकर जान लेने की धमकी दी.

ये सब मेरे पांच और सात साल के बच्चों के सामने हो रहा था. घर का दरवाज़ा भी खुला था, पड़ोसियों ने भी देखा, घर आए मेरे भाई ने भी.

ये भी पढ़ें:- सुप्रीम कोर्ट ने टू-फ़िंगर टेस्ट पर लगाई रोक, जांच करने वाले होंगे दोषी

पर उस रात मैं पुलिस थाने जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. मैं बहुत डर गई थी. मेरे छोटे बच्चों के लिए ये सब बहुत घबराने वाला था.

दो दिन बाद मैं अपने बच्चों को लेकर अपने पिता के साथ कार में बैठी तो मेरे पति ने कार के आगे कूदकर हमें रोकने की कोशिश की.

और फिर जो हुआ वो बर्दाश्त के काबिल नहीं था. उन्होंने मेरे 78 साल के पिता को मारना शुरू कर दिया. पापा के नाक और कान से ख़ून निकलने लगा.

मैं उन्हें लेकर अस्पताल भागी और फिर पुलिस थाने. अब हर हद पार हो गई थी और हर उम्मीद टूट गई थी.

साल 2012 में, उस पहले थप्पड़ के सात साल बाद हम अलग हो गए.

तलाक़ मिलने में चार साल और लगे. और बच्चों की कस्टडी के लिए मुझे हमारे फ़्लैट में मेरा हिस्सा उन्हें देने के लिए राज़ी होना पड़ा.

शादी ख़त्म हो गई पर हिंसा वहीं ख़त्म नहीं हुई.

तलाक़ के बाद की हिंसा

मेरी वकील के ग़लत सुझाव को मानते हुए मैंने अपने पति पर घरेलू हिंसा का केस नहीं किया और इस वजह से तलाक़ के बावजूद उन्हें हफ़्ते में दो बार अपने बच्चों से मिलने का हक़ मिला.

मैं पुलिस थाने गई और कहा कि मैं अपने लिए और अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए डरती हूं पर मुझे जवाब मिला - वो आपके पति के भी बच्चे हैं, डर कैसा?

लेकिन मेरा डर ग़लत नहीं था.

कुछ समय बाद मेरी बेटी ने मुझे बताया कि जब पापा उसे मिलते हैं, तो ग़लत तरीके से छूते हैं. बाथरूम में आ जाते हैं, कपड़ों में हाथ डालते हैं. वो तब सात साल की थी.

ये भी पढ़ें:- बीबीसी 100 वीमेन: क्या है अफ़गान महिलाओं का सीक्रेट

मैं टूट गई. अपनी बच्ची को उसके ही पिता से सुरक्षित रखने की नौबत आ गई थी.

मैंने हिम्मत कर पॉक्सो क़ानून में शिकायत की. मेरे पति ने पलटकर मुझ पर लापरवाह माँ होने के तीन केस कर दिए.

सबूतों की कमी के चलते कोर्ट ने मेरे पति को मेरी बेटी की शिकायत के लिए दोषी नहीं पाया. वो बरी हो गए. लेकिन अपनी बेटी से उनका रिश्ता उस दिन के बाद से ख़त्म हो गया है.

मेरे ख़िलाफ़ किए तीनों केस वो साबित नहीं कर पाए, हार गए.

अब मैंने वकील बदल लिए थे और उन्होंने सलाह दी कि मैं घरेलू हिंसा का केस दायर करूँ.

शायद मैं करती भी, पर मेरी ज़िंदगी ने मुझे सबसे बड़ा झटका दिया. मेरा बेटा स्कूल में गिरा और उसकी मौत हो गई. वो सिर्फ़ 10 साल का था.

ऐसा लगा मानो शरीर से लड़ने की सारी ताक़त काफ़ूर हो गई है. मैं बहुत लड़ी थी, अब रुक जाना चाहती थी.

ये भी पढ़ें:- एलजी ने कहा पत्नी के साथ बिना सहमति के सेक्स बलात्कार - BBC News हिंदी

इस दौरान मैं एक नई काउंसलर से भी मिली जिन्होंने मुझे प्रेरित किया कि मैं सबसे पहले अपना ख़्याल रखूं और उसे ही ध्यान में रखते हुए अपने सारे फ़ैसले लूँ. कोई क़दम उठाने का सही वक़्त मैं तय करूँ. जब ख़ुद को तैयार महसूस करूँ.

मेरी बेटी अब बड़ी हो गई है, कहती है अब वो लड़ेगी. जब बालिग़ हो जाएगी तब अपने ख़िलाफ़ की गई यौन हिंसा के लिए पिता के ख़िलाफ़ लड़ेगी, इंसाफ़ हासिल करेगी.

जहाँ तक मेरी बात है, मैंने सबको माफ़ कर दिया है. जितना मुझे लड़ना था, मैं लड़ी, और अब मैं सुकून से हूं. ज़िंदगी बहुत छोटी है और मैं उसे ग़ुस्से और नफ़रत में नहीं ज़ाया करना चाहती.

सबसे ज़रूरी ये है कि मैंने ख़ुद को माफ़ कर दिया है. अपने हिंसक रिश्ते से निकलने और अपने बच्चों को उस माहौल से निकालने में जो वक्त मैंने लिया, उसके लिए शर्मिंदगी और ग्लानि से बाहर निकल आई हूँ.

शुक्रगुज़ार हूँ कि मेरी जान नहीं गई. वक़्त लगा, खरोंचें आईं, पर अब मैं और मेरी बेटी आज़ाद हैं. बार-बार हिंसा, प्रताड़ना और बेटी के साथ...फिर भी वो रिश्ता क्यों नहीं छोड़ पाई.

(*महिला के अनुरोध पर उनकी पहचान गुप्त रखने लिए नाम बदल दिया गया है)

अगर आप किसी भी प्रकार की हिंसा झेल रही हैं, तो राष्ट्रीय महिला आयोग की हेल्पलाइन - +91 7827170170 - पर कॉल करें.

हिंसा के मामलों में मदद के लिए आप - +91 8793088814 - पर कॉल कर अक्स क्राइसिस लाइन से भी मदद मांग सकती हैं.

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)

BBC Hindi
Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
Why didn't she leave the relationship despite repeated violence
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X