'ख़ूनी भीड़ और सिख ड्राइवर के बीच खड़े हो गए थे वाजपेयी'
संघ प्रचारक और बीजेपी सिद्धांतकार रहे केएन गोविंदाचार्य ने अटल बिहारी वाजपेयी से जुड़ी और भी बातें बीबीसी से साझा की हैं. एक सिख टैक्सी ड्राइवर की ओर युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की भीड़ आ रही थी. भीड़ और टैक्सी ड्राइवर के बीच अटल बिहारी वाजपेयी खड़े हो गए और वह तब तक वहां से नहीं हटे जब तक वहां पुलिस नहीं आ गई.
भारतीय जनता पाटी के सिद्धांतकार रहे के.एन. गोविंदाचार्य को आज से दो दशक पहले पार्टी से इस्तीफ़ा देना पड़ा था -- बहुत सारे लोग मानते हैं कि उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को आरएसएस का मुखौटा बताया था जिसके बाद दोनों के बीच संबंधों में खटास आ गई थी और आख़िरकार गोविंदाचार्य को पार्टी छोड़नी पड़ी.
हालाँकि गोविंदाचार्य लगातार इस बात से इंकार करते रहे हैं कि उन्होंने कभी वाजपेयी को मुखौटा कहा, लेकिन गोविंदाचार्य को नज़दीक से जानने वाले लोग कहते हैं कि वो संघ और बीजेपी के बीच हुई क्रॉस फ़ायर में फँस गए.
अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद गोविंदाचार्य उन्हें कैसे याद करते हैं और उनके क्या विवाद थे -- यही जानने की कोशिश की बीबीसी के रेडियो एडीटर राजेश जोशी ने.
अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व को आप कैसे मापते हैं?
उन्होंने हमेशा यह माना की व्यक्ति से बड़ा दल और दल से बड़ा देश, वह इस उक्ति को जीने वाले राजनेता थे. जब मैं बीजेपी में नहीं आया था तब उससे पहले ही सिख विरोधी दंगों के दौरान मुझे अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व ने प्रभावित किया था. एक सिख टैक्सी ड्राइवर की ओर युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की भीड़ आ रही थी. भीड़ और टैक्सी ड्राइवर के बीच अटल बिहारी वाजपेयी खड़े हो गए और वह तब तक वहां से नहीं हटे जब तक वहां पुलिस नहीं आ गई. यह अपनी कुछ निष्ठाओं को प्रदर्शित करता है, जिसमें राजनीतिक दृष्टि से तात्कालिक तौर पर वह अनुकूल नहीं था फिर भी सोचा उन्होंने की हर क़ीमत पर चुनावी जीत ज़रूरी नहीं है.
उनके ज़माने में जो भारतीय जनता पार्टी थी, तब की और अब की भारतीय जनता पार्टी में आपको क्या अंतर नज़र आता है?
मुझे लगता है कि अटल जी के लोकतांत्रिक मिज़ाज और अन्य के विचारों के कारण लोकतंत्र में जो आदर करने की मूल आत्मा होती है वह वातावरण भारतीय जनता पार्टी में था. 1984 का चुनाव हारने के बाद भी कार्यकर्ताओं का मनोबल नहीं गिरा. दो सीटों के बाद भी उठ आना, इसका आधार वही मूल आत्मा थी. अटल जी के व्यक्तित्व में सत्ता के पार देखने की दृष्टि थी. आज उसकी और भी ज़रूरत है और संवाद बढ़ाने की ज़रूरत है.
क्यों ज़रूरत है संवाद बढ़ाने की? अब सत्ता अपने बल पर बीजेपी ने हासिल की है तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह को क्या आवश्यकता है कि वह उस तरह का व्यवहार करें जो अटल बिहारी वाजपेयी ने किया?
देखिए, सत्ता केवल संख्याबल का विषय नहीं है, यह साख और इक़बाल का विषय भी है क्योंकि लोकतंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष यह तो रहेंगी ही. लेकिन विपक्ष की भी आदरपूर्ण भूमिका है. बीजेपी के लिए पहले आवश्यकता थी कि संवाद हो और पहल में योगदान हो. अब की आवश्यकता है कि सत्ता में रहने के कारण पहल हो और संवाद में योगदान हो.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त का नारा दिया था. इसके अलावा बीजेपी नेताओं ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की एक कच्चे नेता के तौर पर छवि बनाई जिसमें शहज़ादा, युवराज और पप्पू जैसे कई शब्दों का इस्तेमाल किया गया तो क्या यह संवाद अटल बिहारी वाजपेयी जैसा संवाद है?
ऐसी छवि बन गई इसका श्रेय श्री राहुल गांधी को भी दिया जाना चाहिए. लोगों ने ही ऐसा आंकलन किया ऐसा नहीं है क्योंकि उसमें तथ्यपरकता भी है. कांग्रेस मुक्त भारत का अगर सवाल है तो इसका आशय यह है कि जो राजनीति में जो कांग्रेसी संस्कृति आई है, उससे भारत को मुक्त होना चाहिए, यह उद्देश्य था.
कांग्रेसी संस्कृति को आप कैसे परिभाषित करेंगे?
1969 के पहले अलग बात थी. इसके बाद जब कांग्रेस में विभाजन हुआ तो उसमें सत्ता पाना केंद्र बिंदु बन गया. जब यह केंद्र बिंदु बनता है तो सर्वाधिकार, एकाधिकार ऊपर हो जाता है. इस दौरान कार्यकर्ताओं के आंकलन को आप अपनी कार्यशैली में शामिल नहीं कर पाते. कार्य संस्कृति के स्तर पर इंदिरा जी भी संजय गांधी जी के सामने असहाय सी पड़ गई थीं.
हां, यह मानिए अगर कांग्रेसी संस्कृति से मुक्त होना है तो मान लीजिए की आप रावण के साथ प्रतिस्पर्धा में राम हैं तो राम अपना रामत्व खो दे रावण को हराने में ऐसा नहीं रहा है.
तो क्या आपको लगता है कि कांग्रेस की संस्कृति से होड़ करने में बीजेपी उस जैसी हो रही है?
हो रही है या नहीं, यह मैं नहीं कह रहा हूं. लेकिन उसके प्रति सावधानी बरतनी चाहिए. सबसे पहले फ़िल्टरिंग मशीन हो, सही बढ़ें ग़लत छट जाने चाहिए.
अगर आपको नरेंद्र मोदी और अमित शाह को अटल बिहारी वाजपेयी से जुड़ी कुछ चीज़ों को लेकर सलाह देने का मौक़ा मिले तो वे क्या होंगी?
इस पर मैं क्या टिप्पणी करूं, वह तो वक़्त ही बता देगा. लेकिन अटल जी का जीवन जिन राजनैतिक मान्यताओं पर चला है, वो सबकुछ सीखने लायक है, जैसे राजनीति जन अभिमुखी होनी चाहिए न कि सत्ता अभिमुखी, जनता के साथ संपर्क और साख, मतभेद से मनभेद न हो. अभिव्यक्ति में हमेशा ही शालीनता हो और दूसरे को अपनी ओर से छोटा बताने की कोशिश न हो.
कश्मीर हो या पाकिस्तान लोग अटल बिहारी वाजपेयी को याद कर रहे हैं तो ऐसी छवि नरेंद्र मोदी की क्यों नहीं है?
मुझे इसकी जानकारी नहीं है लेकिन इसमें पीएमओ की ज़िम्मेदारी ज़्यादा बनती है. मैं मानता हूं कि नीयत तो नरेंद्र जी की ठीक है और उनके समान परिश्रम करने में कोई उनका सानी नहीं है.
तमाम लोग कहते हैं कि उनके कार्यकाल में एक भय का वातावरण बना है. लिंचिंग हो रही है, गोरक्षा के नाम पर छोटे-छोटे समूह बन गए हैं, प्रधानमंत्री को इसको रोकने के लिए क्या करना चाहिए?
इसके लिए आवश्यक है कि विपक्ष को और विश्वास में लेना, उसकी भावनाओं और अभिमत का आदर करना. आपके पास संख्याबल है लेकिन सत्ता केवल संख्याबल से नहीं चलती है.
वो क्या परिस्थितियां थीं जब आपने अटल बिहारी वाजपेयी को मुखौटा कहा. प्रभाष जोशी हमेशा लिखते थे कि अटल बिहारीवाजपेयी संघ के मुखौटे हैं?
मुखौटा विवाद वस्तुतः छह अक्टूबर 1997 से 30 अक्टूबर तक चला. 30 अक्टूबर को अटल जी के बाद उस विवाद का पटाक्षेप हो गया. 1998 में जब कुशाभाऊ ठाकरे अध्यक्ष बने तो फिर मैं महामंत्री ही बनाया गया तो इससे यह सिद्ध होता है कि मुखौटा विवाद मेरा राजनीति से छुट्टी लेने का कारण नहीं था.
16 सितंबर के लगभग ब्रिटिश उच्चायोग के दो और एक भारतीय अधिकारी से मिलकर बातचीत हुई थी. बातचीत में उन्होंने पूछा था कि 1998 में अध्यक्ष कौन बनेगा. मैंने 10 नाम गिना दिए लेकिन उन्होंने कहा की आपने अटल जी का नाम क्यों नहीं लिया. इस पर मैंने कहा कि वह सबसे प्रसिद्ध नेता हैं और उनको अपने नेता के तौर पर प्रस्तुत करके हम अधिक वोट चाहेंगे.
पांचजन्य पत्रिका के संपादक स्वर्गीय भानु प्रताप शुक्ला का बीजेपी और संघ से तनाव हुआ तो उन्हें उस पद से मुक्त कर दिया गया लेकिन उससे पहले छह अक्तूबर को उनके कॉलम में लेख छपा जिसका शीर्षक था, 'अटल बिहारी वाजपेयी मुखोटा हैं: गोविंदाचार्य.'
उन्होंने ब्रिटिश उच्चायोग के दो अधिकारियों की बातचीत का हवाला देते हुए लिखा था कि पार्टी के केंद्रीय पदाधिकारी का अटल जी के बारे में ऐसा सोचना है. आडवाणी जी ने सुबह फोन कर मुझसे पूछा तो उन्होंने खंडन देने को कहा. मैंने खंडन भिजवा दिया. शाम को ब्रिटिश उच्चायोग ने भी इस ख़बर को लेकर खंडन जारी कर दिया.
इसके बाद यही ख़बर टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक सीनियर जर्नलिस्ट ने की जिसमें उसने शीर्षक दिया, 'गोविंदाचार्य कॉल्स अटल ए मास्क.'
भारतीय अधिकारी ने उस अंग्रेज़ी मास्क शब्द को भानु जी को मुखौटा कह दिया. इसके बाद आडवाणी जी ने कह दिया कि मैं इस्तीफ़ा दे दूं तो मैंने इस्तीफ़ा लिखकर रख लिया लेकिन उसे देने से पहले वाजपेयी जी ने मुझे अपने पास बुलवा लिया. मेरी और ब्रिटिश उच्चायोग दोनों और से सफ़ाई आई. मैंने कहा कि ऐसी हरकत करने के बजाय मेरे पास और भी काम हैं जिसके बाद वाजपेयी जी ने कहा कि छोड़ो यह सब और काम में लग जाओ.
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