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PK का पंगा (Panga): प्रशांत किशोर और पवन वर्मा को मिली किस जुर्रत की सजा?

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नई दिल्ली- प्रशांत किशोर और पवन वर्मा को आखिरकार जेडीयू ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा ही दिया है। इन दोनों नेताओं ने कई बार पार्टी को अपने बयानों की वजह से परेशानी में डाला था। दल की राय से सार्वजनिक मंच पर अलग राय जाहिर कर देते थे। खासकर प्रशांत किशोर ने पार्टी के अंदर अपनी स्थिति ऐसी बना ली थी कि वह नीतीश के बाद नंबर दो की हैसियत में आ गए थे। पार्टी के पुराने और कद्दावर नेताओं को इन हवा-हवाई नेताओं का दबदबा अक्सर खटकता भी था, लेकिन लाचारी में वह कुछ बोल नहीं पाते थे और सब कुछ बर्दाश्त करते चले आ रहे थे। हवा-हवाई इसलिए कि इन दोनों नेताओं का प्रदेश की राजनीति में अपना कोई जनाधार नहीं है और ये पूरी तरह से पार्टी और नेतृत्व के भरोसे सत्ताधारी पार्टी में अपना धाक जमाए हुए थे। नीतीश की वजह से पार्टी में उनकी हर गुस्ताखियां बर्दाश्त कर ली जाती थीं। लेकिन, इस बार उन्होंने पंगा खुद नीतीश कुमार से ही ले लिया था और वही उनपर भारी पड़ गया। आइए जानते हैं कैसे जेडीयू में अचानक एंट्री लेकर ये दोनों जिस तरह शिखर पर पहुंचाए गए थे, उसी तरह से एक झटके में दल से बाहर कर दिए गए।

दोनों ने खोला था पार्टी की नीतियों के खिलाफ मोर्चा

दोनों ने खोला था पार्टी की नीतियों के खिलाफ मोर्चा

चुनावी रणनीतिकार से राजनेता बने प्रशांत किशोर शुरू से नागरिकता संशोधन कानून पर पार्टी लाइन से अलग राग अलाप रहे थे। जेडीयू ने संसद में इस कानून को बनाने में सरकार की मदद की, लेकिन प्रशांत किशोर इस कानून के खिलाफ विपक्षी नेताओं के सुर में सुर मिला रहे थे। उन्होंने इस मुद्दे पर राहुल और प्रियंका गांधी वाड्रा के स्टैंड पर तारीफ में कसीदे तक पढ़े। शायद नीतीश ने अंदरूनी लोकतंत्र के दिखावे में उनकी बातों पर पहले ज्यादा ध्यान ही नहीं दिया। दूसरी तरफ पवन वर्मा दिल्ली चुनाव में पार्टी के बीजेपी के साथ गठबंधन को लेकर बहुत नाराज हो गए थे। उन्होंने इस गठबंधन का विरोध करते हुए बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार को ही उनका आदर्श याद दिलाने की कोशिश की थी।

दोनों के निशाने पर थी भाजपा की नीतियां

दोनों के निशाने पर थी भाजपा की नीतियां

प्रशांत किशोर जब से भाजपा की चुनावी रणनीति बनाकर उससे दूर हुए, उन्होंने बीजेपी की नीतियों का विरोध करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। नागरिकता संशोधन कानून पर उन्होंने जिस तरह से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ बयानबाजी शुरू की थी, उसे जदयू का नेतृत्व पचा नहीं पा रहा था। उन्हें पार्टी की ओर से लगातार नजरअंदाज करने की कोशिश की गई, हिदायत भी दी गई, लेकिन उन्होंने अपनी पार्टी को असहज करना नहीं छोड़ा। भाजपा-जदयू पहले ही साफ कर चुके हैं कि बिहार में अगला चुनाव नीतीश के नेतृत्व में लड़ेंगे, गठबंधन का दायरा दिल्ली तक बढ़ गया है, ऐसे में पीके के बयानों को और पचा पाना पार्टी के लिए मुश्किल हो रहा था। पवन वर्मा को तो बीजेपी से दिल्ली की नई दोस्ती इतनी खटक गई कि वह अपनी ही पार्टी और नेतृत्व के खिलाफ मीडिया में चले गए।

नीतीश से पंगा लेना पड़ गया महंगा

नीतीश से पंगा लेना पड़ गया महंगा

इस बात में कोई दो राय नहीं कि चाहे पवन वर्मा हों या प्रशांत किशोर, दोनों का जनता के बीच अपना कोई जनाधार नहीं रहा है। दोनों नीतीश कुमार के रहमो करम और उनकी खुशी से ही पार्टी में बड़े नेता का दर्जा ले पाए थे। लेकिन, जब नीतीश ने प्रशांत किशोर को अमित शाह के कहने पर पार्टी में लाने की बात कही तो पीके ने सीधे पार्टी सुप्रीमो के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया। उन्होंने ट्वीट करके यहां तक कह दिया कि 'नीतीश कुमार, इससे ज्यादा पतन क्या होगा कि आप को झूठ बोलना पड़ा कि आपने कैसे मुझे जेडीयू में शामिल कराया था। आपने मुझे अपनी तरह का ही साबित करने की नाकाम कोशिश की। और अगर आप सच बोल रहे हैं तो कौन आप पर भरोसा करेगा कि आप में अब भी साहस है कि अमित शाह की सिफारिश से आए किसी व्यक्ति को न सुनें!' जब पीके ये ट्वीट कर रहे होंगे तभी वह मान चुके होंगे कि जेडीयू में उनका दाना-पानी अब उठने ही वाला है। इसी तरह पवन वर्मा ने सीधे नीतीश कुमार को खत लिखकर उनसे स्पष्टीकरण मांग लिया था कि एनआरसी और सीएए के मुद्दे पर उनकी राय क्या है। ऊपर से उन्होंने गुस्ताखी ये कर दी कि उन्होंने बीजेपी,आरएसएस और पीएम मोदी को लेकर नीतीश के साथ अपनी कथित आपसी बातचीत को सार्वजनिक कर दिया था।

नीतीश को छोड़ जदयू नेताओं को कभी नहीं भाए पीके

नीतीश को छोड़ जदयू नेताओं को कभी नहीं भाए पीके

प्रशांत किशोर अक्टूबर 2018 में औपचारिक तौर पर जेडीयू में शामिल हुए थे और नीतीश ने उन्हें सीधे पार्टी का उपाध्यक्ष बना दिया। जाहिर है कि नीतीश का यह कदम उनके करीबी नेताओं को भी खटक रहा था, लेकिन वह पीके के खिलाफ कुछ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। जेडीयू के अंदर के लोग बताते हैं कि पार्टी के अंदर उन्हें किसी ने कभी पसंद नहीं किया और न ही उनकी कोई स्वीकार्यता रही, सिर्फ नीतीश की वजह से सबको चुप रहना पड़ा। इसलिए जैसे ही उन्होंने आलाकमान के खिलाफ मोर्चा खोला, पार्टी के प्रवक्ताओं ने उनकी तुलना करॉना वायरस से करना शुरू कर दिया। उन्हें अपनी हैसियत देखकर बात करने की नसीहत दी जाने लगी।

जेडीयू में रहकर भी दूसरी पार्टियों की सेवाओं में जुटे रहे पीके

जेडीयू में रहकर भी दूसरी पार्टियों की सेवाओं में जुटे रहे पीके

पीके का करियर परवान तब चढ़ा जब उन्हें 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के चुनावी कैंपेन का हिस्सा बनने का मौका मिला। लेकिन, उसके बाद उन्होंने कई बड़ी पार्टियों के लिए रणनीति बनाने का काम किया। 2015 में बिहार में नीतीश कुमार की जेडीयू के लिए, 2017 में यूपी में कांग्रेस के लिए काम किया, जिसमें यूपी विधानसभा चुनाव में उनकी सारी रणनीति धाराशायी हो गई। बाद में उन्होंने जेडीयू में रहते हुए भी दूसरे राजनीतिक दलों की चुनावी रणनीतियां बनाने का कॉन्ट्रैक्ट लेना शुरू कर दिया। उन्होंने आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी का कैंपेन संभाला तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की टीएमसी और दिल्ली चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के चुनाव अभियान की भी धार तेज करने में जुटे हुए हैं। पार्टी से तल्खी की एक वजह ये भी हो सकती है कि उनकी पार्टी यहां बीजेपी के सहयोग से 4 सीटों पर चुनाव मैदान में है और वह अपनी ही पार्टी के खिलाफ रणनीतियां बनाने के लिए आम आदमी पार्टी से डील कर चुके हैं।

राजनीति में नीतीश की वजह से पवन वर्मा को मिली पहचान

राजनीति में नीतीश की वजह से पवन वर्मा को मिली पहचान

पवन वर्मा को भी जेडीयू में लाने में पीके की अहम भूमिका मानी जाती है। बिहार जाने से पहले वह दिल्ली में रहकर पार्टी की राजनीति कर रहे थे। उन्हें जेडीयू में जितना बड़ा कद हासिल हुआ उसके पीछे की वजह ये रही कि वह नीतीश कुमार के करीबी बन गए थे। हालांकि, पिछले कुछ वक्त से उन्हें पार्टी में कोई ज्यादा भाव नहीं मिल रहा था। ऐसे में नीतीश के खिलाफ सीधा मोर्चा खोलकर उन्होंने पार्टी में अपना गड्ढा खुद खोद लिया।

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English summary
What mistake was made by Prashant Kishore and Pawan Verma in JDU?
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