मोदी को घेरने के लिए क्या है विपक्षी दलों का 'माया'जाल?
ऐसे में लगता है कि बसपा आए या न आए, विपक्ष संसद में बहुत आक्रामक होगा. जितने भी मुद्दे ऊपर गिनाए हैं, उन्हें लेकर विपक्ष सत्ताधारी पार्टी को मिलकर घेरेगा.
विपक्ष प्रधानमंत्री से जवाब मांगेगा. संसद में कभी-कभार ही बोलने वाले प्रधानमंत्री से जवाब देने की मांग की जाएगी, हालांकि यह देखना होगा कि विपक्ष उनसे जवाब लेने में कितना क़ामयाब होगा.
11 दिसंबर को राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिज़ोरम में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे आएंगे और इसी दिन से संसद का शीतकालीन सत्र भी शुरू हो रहा है.
इससे पहले दिल्ली में सोमवार को विपक्षी दलों की एक बैठक होने जा रही है जिसमें प्रमुख विपक्षी दलों के नेता हिस्सा लेंगे.
अधिकतर विपक्षी दलों ने तो इसमें शामिल रहने के लिए सहमति जता दी है मगर अभी तक बहुजन समाज पार्टी का रुख़ स्पष्ट नहीं हुआ है.
यह पता नहीं चल पाया है कि बसपा प्रमुख मायावती इस बैठक में हिस्सा लेंगी या नहीं.
विपक्ष की इस बैठक को बुलाए जाने के पीछे क्या लक्ष्य हैं और इसमें मायावती की मौजूद या ग़ैरमौजूद रहने के क्या मायने होंगे, यह जानने के लिए बीबीसी संवाददाता आदर्श राठौर ने बात की वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामासेषन से. पढ़ें उनका नज़रिया, उनके शब्दों में-
केंद्र सरकार को घेरने की रणनीति
11 तारीख़ से संसद का शीतलकालीन सत्र शुरू हो रहा. यह एक तरह से बजट सत्र तो होगा ही, मगर इसका इसलिए भी महत्व है कि इसमें सरकार कई महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराना चाहती है. ऐसे में यह विपक्ष के पास एनडीए को संसद में घेरने का सुनहरा मौक़ा है.
विपक्ष पहले भी इस तरह के मौक़े गंवा चुका है क्योंकि शोर-शराबे से आपको कोई ख़ास सफलता नहीं मिलती. इसलिए लगता है कि विपक्ष की मीटिंग रणनीतिक रूप से यह तैयारी करने की होगी कि वे भाजपा को किन-किन मुद्दों पर घेर सकते हैं.
रफ़ाल सौदा तो विपक्ष के हाथ में है ही और यह काफ़ी बड़ा मुद्दा है. उत्तर प्रदेश में क़ानून-व्यवस्था चरमराने को लेकर भी सरकार को घेरा जा सकता है. इसके अलावा कृषि से जुड़े मसले भी उठाए जा सकते हैं. गांवों में किसानों को हो रही तकलीफ़ों को भी उठाया जाएगा. किसानों का मुद्दा हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में छाया रहा था.
इसका बात का भी बहुत महत्व होगा कि इस बैठक में कौन-कौन सी पार्टियां शामिल होती हैं. उदाहरण के लिए अगर बहुजन समाज पार्टी आती है तो इससे विपक्ष की एकता और मज़बूत होगी. अगर वह नहीं आती हैं तो यह विपक्ष के लिए झटका होगा.
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बसपा: एक अहम कड़ी
आम आदमी पार्टी का हालांकि संसद में सीटों के लिहाज़ से अधिक महत्व नहीं है मगर उन्होंने कहा है कि वे बैठक में आएंगे. लेकिन विपक्षी एकता में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी बसपा है. दलित पार्टी होने की वजह से और मायावती जैसी मज़बूत नेता होने के कारण वह न केवल उत्तर प्रदेश में महत्व रखती है बल्कि पूरे देश में उसकी एक भूमिका है.
ऐसे में यह बैठक विपक्ष की एकता के लिए बहुत बड़ी परीक्षा है, ख़ासकर 2019 के चुनावों से पहले. अभी तक मायावती का जो रवैया रहा है, वह समान दूरी बनाकर रखने का है. मायावती न तो हां कहती हैं और न ही न कहती हैं. वह बसपा संस्थापक कांशीराम के ही शब्दों को दोहरा रही हैं- कांग्रेस नागनाथ है तो बीजेपी सांपनाथ.
इसका मतलब है कि वह बीजेपी और कांग्रेस को फ़िलहाल एक ही तराज़ू पर रखकर तौल रही हैं. यानी कि मायावती अभी विपक्ष के साथ जाने के लिए तैयार नहीं हैं. वह किसी मौक़े का इंतज़ार कर रही हैं. हो सकता है कि वह लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने का फ़ैसला कर लें. मगर इस समय उनका मूड भांपना मुश्किल है.
इसलिए बैठक के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह होगी कि बसपा इसमें आएगी या नहीं. नहीं आती है तो यूपी में विपक्ष की एकता के लिए समाजवादी पार्टी, बसपा और राष्ट्रीय लोकदल को मिलाने की कोशिशों को धक्का लगेगा.
समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल तो विपक्षी एकता वाले प्रयोग में शामिल हैं मगर बसपा के न आने से विपक्ष में वह एकता नहीं दिखाई देगी जो गोरखपुर, फूलपुर या अन्य उपचुनावों में दिखाई दी थी. यह उत्तर प्रदेश में विपक्ष के लिए अच्छी ख़बर नहीं होगी और बीजेपी को थोड़ी राहत ज़रूर मिलेगी.
कुशवाहा का रवैया
राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी हालांकि बीएसपी की तरह बहुत बड़ी पार्टी नहीं है मगर जहां तक कुशवाहा वोटों का सवाल है, इस पार्टी का है. मगर कई महीनों से यह तय नहीं हो पा रहा है कि इसके प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा आगे भी एनडीए में रहना चाहते हैं या नहीं.
कुशवाहा की पार्टी को इस बैठक का निमंत्रण गया है. ऐसे में अगर वह आते हैं तो इसका मतलब होगा कि उन्होंने एनडीए से बाहर आने का एलान कर दिया है. लेकिन बीजेपी उन्हें किसी तरह एनडीए में रखने की कोशिश कर रही है क्योंकि वह जानती है कि लोकसभा चुनाव में बिहार में उसे कड़ी चुनौती मिलने वाली है. इस बार हालात 2014 से जुदा हैं क्योंकि तेजस्वी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल मज़बूत हुआ है.
इस पूरे परिदृश्य में कुशवाहा के पास अपने वोट तो हैं ही. ऐसे में बीएसपी के साथ कुशवाहा की इस छोटी-सी पार्टी का भी महत्व दिख रहा है. सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही उन्हें अपने ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं.
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अम्मा के बाद अन्नाद्रमुक का क्या रुख़?
दक्षिण की बात करें तो अन्नाद्रमुक का रवैया भी दिलचस्प होगा. अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि वह एनडीए के साथ जाना चाहती है या न्यूट्रल रहना चाहती है.
भाजपा का तमिलनाडु में बहुत महत्व तो है नहीं. ऐसे में देखना होगा कि अन्नाद्रमुक क्या करती है. कुशवाहा की पार्टी की तरह अन्नाद्रमुक कभी हां, कभी ना कर रही है. अभी समझ नहीं आ रहा कि वह आख़िरकार क्या करेगी.
डीएमके तो कांग्रेस के साथ ही है. ऐसे में विपक्षी एकता की बात करनी हो तो इन दो-तीन पहलुओं पर हमें नज़र रखनी होगी. फिर पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों पर भी नज़र रखनी होगी.
ये नतीजे तय करेंगे कि शीतकालीन सत्र में क्या होगा. तेलंगाना और मिज़ोरम में भारतीय जनता पार्टी का प्रभाव नहीं है. ऐसे में बाक़ी के तीन राज्यों में से अगर कांग्रेस दो प्रदेश भी जीत लेती है तो यह कांग्रेस की जीत मानी जाएगी. दो राज्यों में हार से बीजेपी को बड़ा न सही मगर धक्का तो लगेगा. साथ ही विपक्ष का मनोबल बढ़ जाएगा.
ऐसे में लगता है कि बसपा आए या न आए, विपक्ष संसद में बहुत आक्रामक होगा. जितने भी मुद्दे ऊपर गिनाए हैं, उन्हें लेकर विपक्ष सत्ताधारी पार्टी को मिलकर घेरेगा.
विपक्ष प्रधानमंत्री से जवाब मांगेगा. संसद में कभी-कभार ही बोलने वाले प्रधानमंत्री से जवाब देने की मांग की जाएगी, हालांकि यह देखना होगा कि विपक्ष उनसे जवाब लेने में कितना क़ामयाब होगा.
सबसे बड़ी बात यह कि इस स्थिति में एनडीए के अंदर हलचल होगी? इन हालात में वह एकजुट रह पाएगा या नहीं? कहीं जनता दल यूनाइटेड जैसे दल बीजेपी को परेशान करने की स्थिति में तो नहीं आ जाएंगे? वैसे भी नीतीश और भाजपा का रिश्ता बहुत सुहाना नहीं रहा है और इसमें कई उतार-चढ़ाव रहे हैं.
ऐसे में अगर तीन में दो विधानसभा चुनाव कांग्रेस जीतती है तो एनडीए को अंदर से भी चुनौती मिल सकती है. बाहर से तो विपक्ष घेरेगा ही.