West Bengal Election 2021 : क्या ममता को सत्ता में आने से रोक लेगी भाजपा?
West Bengal Assembly Elections 2021: पश्चिम बंगाल में जैसे-जैसे ममता बनर्जी का उदय हुआ वामपंथ का वैसे-वैसे पतन हुआ। राजनीति में शक्ति का संतुलन एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। वामपंथी दल मृतप्राय हो गये। कांग्रेस भी बीते दिनों की कहानी बन गयी। ऐसे में भाजपा का उदय हुआ। कहा जाता है कि वामपंथ के ध्वंस पर ही भाजपा का निर्माण हुआ है। 'स्ट्रीट फाइटर’ ममता बनर्जी ने जब वामपंथी विचारवाद को ध्वस्त किया तो उससे जुड़े लोग असंजस के दोराहे पर खड़े हो गये। उन्हें लगा कि भाजपा ही तृणमूल को चुनौती दे सकती है। तब वे लाल से केसरिया हो गये। भाजपा से जुड़ने वाले पश्चिम बंगाल के लोग अब खुद को श्यामा प्रसाद मुखर्जी से जोड़ कर देख रहे हैं। एक तरह से बंगाल ही भारतीय जनसंघ (भाजपा का पुराना रूप) की जन्मभूमि रही है। बंगाल विभूति डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जनसंघ के संस्थापक सदस्य थे। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कारण एक समय पश्चिम बंगाल में जनसंघ का बहुत प्रभाव था। 1952 के पहले आम चुनाव में पंडित नेहरू की आंधी के बावजूद पश्चिम बंगाल में जनसंघ के दो सांसद और 9 विधायक जीते थे। बेआसरा हुए वामपंथी अब डॉ. मुखर्जी में ही अपना गौरपूर्ण अतीत देख रहे हैं।
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भाजपाई हो गये वामपंथी ?
आज से दस साल पहले भाजपा का पश्चिम बंगाल में कोई आधार नहीं था। संगठन के नाम पर खानापूर्ति थी। 2011 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 294 सीटों में से 289 पर चुनाव लड़ा था। सिर्फ 4.06 प्रतिशत वोट मिले और खाता तक नहीं खुला। 2016 में भाजपा ने फिर 291 सीटों पर चुनाव लड़ा जिसमें केवल 3 पर जीत मिली। वोट शेयर 10.16 फीसदी रहा। यानी भाजपा संगठन के मामले में 2016 तक भी बहुत कमजोर थी। ऐसा क्या हुआ कि सिर्फ तीन साल में भाजपा का वोट शेयर 40 फीसदी जा पहुंचा। न संगठन, न कैडर फिर ये चमत्कार कैसै हो गया ? जानकारों का कहना है कि ममता बनर्जी की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति ने आम बंगाली जनमानस को भाजपा की तरफ मोड़ दिया। प्रतिक्रिया में वैसे लोगों ने भी भाजपा को वोट किया जो इसके समर्थक नहीं थे। तृणमूल कैडरों की दादागिरी से उबे लोगों ने भाजपा को वोट किया। वामपंथी दलों से जुड़े लोग मृणमूल शासन में ठेके-पट्टों और दूसरे लाभों से वंचित थे। बदलाव की उम्मीद वे भाजपाई हो गये। किसी भूखे व्यक्ति के लिए विचारवाद की कोई अहमियत नहीं।
बदलाव के संकेत !
2019 का लोकसभा चुनाव पश्चिम बंगाल के लिए टर्निंग प्वाइंट है। ठीक वैसे जैसे कि 2009 में हुआ था। भाजपा का दो सीटों से 18 पर पहुंचना एक बड़ा संकेत है। 1998 में कांग्रेस से निकलने के बाद ममता पश्चिम बंगाल में पांव जमाने के लिए संघर्ष कर रहीं थीं। 2004 के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी 42 में से केवल अपनी सीट जीत पायीं। 2009 के लोकसभा चुनाव में ममता एक से 19 पर पहुंच गयीं। तभी ये संभावना व्यक्त की जाने लगी थी कि अब पश्चिम बंगाल राजनीति बदलाव के मुहाने पर खड़ा है। वामपंथी कैडरों के दहशत से लोग त्रस्त थे। नंदीग्राम और सिंगूर के आंदोलन ने वामपंथियों को खोखला कर दिया। जब 2011 में विधानसभा के चुनाव हुए तो ममता बनर्जी ने 34 साल पुरानी वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंका। उस समय भी यही माना जाता था कि वामपंथियों को सत्ता से हटाना बहुत मुश्किल है। लेकिन जनता जब बदलाव का मन बना लेती है तो सारे गुणा-भाग धरे के धरे रह जाते हैं। 2021 के चुनाव के पहले भी बदलाव की फिंजा तैयार हो रही है। तृणमूल कांग्रेस में कुछ न कुछ तो गड़बड़ है जिससे भगदड़ मची हुई है। जैसे तृणमूल के असंतुष्ट नेता आज भाजपा को मजबूत कर रहे हैं वैसे ही दस साल पहले कांग्रेस और वाम दलों के बागी नेताओं ने ममता को मजबूत किया था।
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क्या एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर प्रभावी है ?
एबीपी सी-वोटर सर्वे के मुताबिक तो ममता बनर्जी एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर से जूझ रही हैं। उनके खिलाफ सत्ता विरोधी लहर है। सर्वे में शामिल करीब 27 फीसदी लोगों ने ममता सरकार से नाखुशी जाहिर की है। तृणमूल के ऱणनीतिकार प्रशांत किशोर (पीके) का कहना है ममता बनर्जी सौ फीसदी वोटों के लिए प्रयास कर रही हैं जब कि भाजपा केवल 70 फीसदी वोटों के लिए ही मेहनत कर रही है। इसलिए भाजपा कभी जीत नहीं सकती। इस बयान का मतलब ये निकाला जा रहा है पश्चिम बंगाल के 30 फीसदी मुस्लिम वोटर भाजपा को वोट नहीं करने वाले। पीके के कहने का मतलब है कि ये 30 फीसदी वोट एकमुश्त तृणमूल को मिलेंगे। शुभेंदु अधिकारी पीके की इस थ्योरी को जनता में खूब उछाल रहे हैं। ममता बनर्जी पर आरोप लगाया जा रहा है कि वे सत्ता बचाने के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर चल रही हैं। जय श्रीराम के नारे पर ममता के भड़कने से भाजपा की राह और आसान हो गयी है। असदुद्दीन ओवैसी के बंगाल में चुनाव लड़ने से पीके की 30 फीसदी की थ्योरी कमजोर हो सकती है। जानाकारों का कहना है कि अगर भाजपा सत्ता में नहीं भी आयी तो वह तृणमूल को बहुमत पाने से रोक सकती है।
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