नज़रियाः बीजेपी को असम की नहीं, आम चुनाव की चिंता?
हालाँकि असम में जो कुछ हो रहा है वह 1985 में हुए असम समझौते के आधार पर हो रहा है. उसमें 1971 के बाद आए बांग्लादेशियों को वापस भेजने का वादा किया गया था.ऐसा समझौता किसी और राज्य में नहीं हुआ है. मगर बीजेपी को इससे क्या फ़र्क पड़ता है. वह तो राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर नया अभियान छेड़ सकती है.
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित कुमार शाह को एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण से नया उत्साह मिल गया है.
वे हुँकारा भरते हुए कहते फिर रहे हैं कि "विदेशी नागरिकों को चुन-चुनकर निकालूँगा." उन्हें हिंदू ध्रुवीकरण का नया मंत्र मिल गया है और अब वे इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में जुट गए हैं.
और अमित शाह ही क्यों, तमाम बीजेपी नेताओं ने इसे नए जुमले की तरह दोहराना शुरू कर दिया है. उन्हें लग रहा है कि राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा की छौंक लगाकर इस विवाद को चुनावों में भुनाया जा सकता है.
धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने की इसमें उन्हें अच्छी-खासी गुंज़ाइश दिखाई दे रही है इसलिए उन्होंने इसे तपाना शुरू कर दिया है.
विदेशी घुसपैठ के मुद्दे को बीजेपी असम में काफ़ी अरसे से भुनाने की कोशिश करती आ रही है और उसे इसमें सफलता भी मिली है.
एनआरसी के रूप में उसके भाग्य से छींका भी टूट गया और अब अमित शाह चालीस लाख विदेशियों का विवादित आँकड़ा बताकर चुनावी अभियान पर निकल पड़े हैं.
लेकिन असम बीजेपी धर्मसंकट में
हालाँकि राष्ट्रीय नेतृत्व के रुख़ के विपरीत असम में बीजेपी एनआरसी के सवाल पर धर्मसंकट में फँसी हुई है. वह अमित शाह की तरह आक्रामक नहीं हो पा रही. इसकी वज़ह भी साफ़ है. एनआरसी की अंतिम सूची में केवल मुसलमानों के ही नाम नहीं हैं. उसमें बड़ी तादाद में हिंदू भी शामिल हैं.
और तो और अंतिम सूची के हिसाब से उसके कई नेताओं या उनके परिजनों की नागरिकता भी ख़तरे में है. उसके विधायक रमाकांत देउरी और उनके परिजनों के नाम सूची में नहीं है.
इसके अलावा जनजातियों और गोरखा लोगों की तादाद भी अच्छी ख़ासी है. हिंदू जनजाति नामशूद्र के ही छह लाख लोगों के नाम सूची में नहीं हैं. वे पचास के दशक से बांग्लादेश से आकर बसते रहे हैं.
फिर चालीस लाख का आँकड़ा आगे जाकर कितना कम होगा इसका पता नहीं है. संभावना है कि इसमें उल्लेखनीय कमी आएगी.
ऐसी सूरत में विदेशी नागरिकों की संख्या के बारे में जो दावे वह करती रही है उसकी हवा भी निकल सकती है.
ज़ाहिर है कि ऐसे में असम बीजेपी एनआरसी के बल पर उछल-कूद नहीं कर सकती और करेगी तो उसे स्थानीय लोगों की नाराज़गी का सामना करना पड़ेगा.
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नागरिकता क़ानून में संशोधन का प्रस्ताव
इस समस्या से निपटने के लिए बीजेपी ने नागरिकता क़ानून में संशोधन करने का पाँसा फेंका है. संशोधन करके वह घुसपैठ करने वाले विदेशी हिंदुओं को नागरिकता देने की फिराक में है. मगर उसके सहयोगी दल ही विरोध कर रहे हैं.
असम गण परिषद जैसे दल घुसपैठियों के सवाल को धार्मिक आधार पर नहीं देखते. वे चाहते हैं कि विदेशी चाहे हिंदू हों या मुसलमान, उसे वापस भेजा जाना चाहिए.
ऐसे मे अगर बीजेपी ज़बरदस्ती करेगी तो वे सरकार से समर्थन वापस ले सकते हैं. यहां तक कि असम बीजेपी में भी फूट पड़ सकती है.
लेकिन बीजेपी हाईकमान शायद ही इसकी चिंता करेगा. राष्ट्रीय स्तर पर मिलने वाले राजनीतिक फ़ायदे की तुलना में वह असम की कुछ लोकसभा सीटें खुशी-खुशी कुर्बान करने को तैयार हो जाएगी.
यही वह रणनीति है जिसके तहत अमित शाह कह रहे हैं कि अगर 2019 में बीजेपी जीतकर आई तो पूरे देश में एनआरसी लागू करवाएगी.
असम के बाद अब निगाहें बंगाल पर
अमित शाह का अगला निशाना पश्चिम बंगाल है. बंगाल में भी मुसलमानों की अच्छी तादाद है. बांग्लादेश से लगे होने की वजह से हो सकता है यहाँ भी घुसपैठी मिल जाएं.
कैलाश विजयवर्गीय तो घोषणा ही कर चुके हैं कि उनका अगला निशाना बंगाल है.
इसी की जवाबी प्रतिक्रिया में मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने कहा था कि अगर ऐसा हुआ तो ख़ून की नदियाँ बह जाएंगी और गृह युद्ध हो जाएगा. लेकिन शायद बीजेपी को ममता की ये मुद्रा माफ़िक बैठती है. इस स्थिति में वह अव्वल तो मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरेगी और आगे चलकर सत्ता पर उसकी दावेदारी भी बढ़ जाएगी.
एनआरसी की मांग का माहौल
बीजेपी एनआरसी के मुद्दे को गरमाने के लिए कई तरकीबें अपना सकती है. मेघालय के राज्यपाल ने केंद्र को पत्र लिखकर माँग की है कि वहाँ भी नागरिकों का रजिस्टर बनाने की प्रक्रिया शुरू की जाए.
ये कवायद वह अपने शासन वाले तमाम राज्यों से करवाकर ऐसा माहौल बनवा सकती है कि पूरा देश ही एनआरसी चाहता है.
1985 का असम समझौता और एनआरसी
हालाँकि असम में जो कुछ हो रहा है वह 1985 में हुए असम समझौते के आधार पर हो रहा है. उसमें 1971 के बाद आए बांग्लादेशियों को वापस भेजने का वादा किया गया था.
ऐसा समझौता किसी और राज्य में नहीं हुआ है. मगर बीजेपी को इससे क्या फ़र्क पड़ता है. वह तो राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर नया अभियान छेड़ सकती है.
मुश्किल ये है कि एनआरसी के मुद्दे पर उससे भिड़ने के लिए कोई राजनीतिक दल तैयार नहीं है.
काँग्रेस खुद फँसी हुई है. उस पर तो पहले से ही आरोप लगाए जाते रहे हैं कि असम में बांग्लादेशियों की बढ़ती तादाद के लिए वही ज़िम्मेदार है. उसने वोट बैंक के लिए उन्हें आने दिया.
हालाँकि ये आंशिक तौर पर ही सच हो सकता है. बांग्लादेशियों के आने और बसने की वज़हें बहुत सारी हैं. उनमें ग़रीबी, बेरोज़गारी और उत्पीड़न प्रमुख हैं.
असम काँग्रेस नहीं चाहती कि वह विदेशियों का बचाव करते हुए नज़र आए. यही हाल केंद्रीय नेतृत्व का है. इसलिए वे बहुत संभलकर अपने पत्ते चल रही हैं. ऐसे में बीजेपी को खुलकर खेलने का मौक़ा मिल रहा है.
वैसे ये ज़रूरी नहीं है कि असम जैसा रिस्पाॉन्स उसे शेष भारत में भी मिले. बाक़ी देश में ये कोई बड़ी समस्या नहीं है. अलबत्ता ये ख़तरा ज़रूर है कि अगर बंगाल और कुछेक राज्यों में हिंसा का दौर शुरू हो जाए और लोग उससे बिदकने लगें.
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