उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव: अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की जोड़ी कृषि क़ानून की वापसी के बाद भी असरदार होगी?
किसान आंदोलन की वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी की पार्टी आरएलडी को समर्थन मिलता दिख रहा था. कृषि क़ानून वापस लेने की घोषणा के बाद भी क्या उनका असर बरक़रार रहेगा?
"राहुल जी बहुत अच्छे इंसान है. वो भी बहुत अच्छे लड़के हैं, उत्तर प्रदेश में उन्हें ज़्यादा आना चाहिए और ज़्यादा रहना चाहिए. उत्तर प्रदेश में कोई ज़्यादा आएगा, तो हमारी भी उनसे दोस्ती होगी, दो अच्छे लोग मिल जाएं तो आख़िर क्या ख़राब हैं."
साल 2017 की बात है. समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव ने ये बात तब कांग्रेस नेता राहुल गांधी के लिए कही थी. तब नारा दिया था 'यूपी को ये साथ पसंद' है.
उनके इसी बयान के बाद अखिलेश-राहुल की जोड़ी को 'यूपी के लड़के' कहा जाने लगा था.
दोनों की दोस्ती 2017 के शुरुआती दिनों में ठीक चली, लेकिन चुनावी नतीज़ों के बाद इसमें दूरी आ गई. उस विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी 50 सीटों का आँकड़ा भी पार नहीं कर पाई.
एक बार फिर उत्तर प्रदेश में चुनाव आने वाले हैं. और अखिलेश यादव नए साथी के तलाश में निकले हैं.
चर्चा है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में अखिलेश-जयंत एक साथ नज़र आएंगे. हालांकि औपचारिक एलान होना बाक़ी है, लेकिन दोनों नेताओं ने एक साथ तस्वीर ट्वीट करके इस गठबंधन की चर्चा को और हवा दे दिया है.
अगर ऐसा हुआ तो एक बदलाव ये भी होगा कि अब अखिलेश यादव 'छोटे लड़के' की जगह इस बार 'बड़े लड़के' का रोल निभाएंगे. 'बड़ा' उम्र में भी और गठबंधन में 'सीटों के बंटवारे' के मामले में भी.
ये भी पढ़ें : कृषि क़ानून पर केंद्र सरकार को ही मानना पड़ेगा, किसान नहीं मानेंगे: सत्यपाल मलिक
कृषि क़ानून वापस लेने के बाद की तस्वीर
सवाल अब ये उठता है कि कृषि क़ानून पर मोदी सरकार के यू-टर्न के बाद समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल का गठबंधन क्या कामयाब होगा भी?
क्या अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी को इसका फ़ायदा और बीजेपी को इस गठबंधन से नुक़सान होगा?
समाजवादी पार्टी के नेता और लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफे़सर डॉ. सुधीर पंवार मानते हैं कि राष्ट्रीय लोकदल और समाजवादी पार्टी दोनों की राजनीति के केंद्र में किसान ही है. इस तरह से दोनों 'नेचुरल एलायंस पार्टनर' हैं.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, " गठबंधन तो राजनीति में फ़ायदे के लिए ही किए जाते हैं. लेकिन ऐसे नहीं कि समाजवादी पार्टी और आरएलडी का गठबंधन किसान आंदोलन की वजह से हो रहा था. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी दोनों दलों ने गठबंधन में चुनाव लड़ा था. ये अलग बात है कि वो उतना सफल नहीं हो पाया.
इसलिए ये कहना कि कृषि क़ानून के विरोध की वजह से सपा से गठबंधन करना चाहती थी, ये कहना ग़लत होगा. इस गठबंधन से लाभ दोनों पार्टियों को होगा. "
ये भी पढ़ें : किसान आंदोलन: MSP पर माँग मान क्यों नहीं लेती मोदी सरकार?
विधानसभा चुनाव में आरएलडी का ट्रैक रिकॉर्ड
यहाँ ये जानना भी ज़रूरी है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में या उससे पहले समाजवादी पार्टी और आरएलडी का कभी कोई गठबंधन नहीं था.
2017 के चुनाव में एक सीट पर उनके उम्मीदवार को जीत मिली थी.
2002 के विधानसभा चुनाव में आरएलडी का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन रहा था, जब बीजेपी के साथ उनका गठबंधन था और उन्होंने 14 सीटें जीतीं थी.
इसके बाद 2007 में आरएलडी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया और 10 सीटों पर उनके उम्मीदवार जीते.
2012 का चुनाव आरएलडी ने कांग्रेस के साथ लड़ा और 9 सीटें जीती.
पिता की मौत के बाद ये जयंत चौधरी का पहला चुनाव है जब सभी फैसले वो ख़ुद ले रहे हैं.
ऐसे ट्रैक रिकॉर्ड के बावजूद अखिलेश आरएलडी के साथ गठबंधन करके पश्चिमी उत्तर प्रदेश में क्या साध लेंगें?
इस सवाल के जवाब में डॉ. सुधीर पंवार कहते हैं, "ये चुनाव ऐसे सामाजिक समीकरण बैठाने का चुनाव है, जब बीजेपी को हराने के लिए जहाँ जहाँ जो पार्टी एकदूसरे का पूरक बन सकती हैं वहाँ उन्हें एक दूसरे का पूरक बनना चाहिए."
"2013 से 2019 तक बीजेपी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने में सफल रही है. जिस वजह से इस इलाके के जाट और मुसलमान में एक दूरी आ गई थी. और इसका फ़ायदा बीजेपी को मिला था. सपा-आरएलडी गठबंधन से वो दूरी नज़दीकी में बदल जाएगी."
इसलिए समाजवादी पार्टी और आरएलडी के बीच के गठबंधन में सीटों का बँटवारा बेहद अहम होगा.
ये भी पढ़ें : जयंत चौधरी: 'बाप-दादा की ढहती विरासत’ को यूपी चुनाव में कितना बचा पाएंगे
बीजेपी की चिंता
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में माना जाता है कि विधानसभा की तकरीबन 100 सीटें आती हैं. ( पश्चिमी उत्तर प्रदेश की वैसे सीमा निर्धारित नहीं है, इस वजह से आँकड़े अलग अलग हो सकते हैं)
2017 विधानसभा चुनाव में बीजेपी इनमें से 80 सीटों पर जीती थी. जबकि 2012 के चुनाव में सिर्फ 38 सीटें जीती थीं.
2019 के लोकसभा चुनाव में 18 सीटें बीजेपी जीती जबकि 2014 में 23 सांसद यहां से जीते थे.
उत्तर प्रदेश की राजनीति पर अच्छी पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, " 2013 के मुज़्ज़फ़रनगर दंगे से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी की कहानी बदली है, जैसा आँकड़े भी बताते हैं. बीजेपी को इस विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इसी किले के ढहने का डर था, इस वजह से उन्होंने कृषि क़ानून वापस लेने का फैसला किया.
दरअसल कृषि क़ानून की वजह से वहाँ पिछले दिनों जितनी महापंचायत हुईं उसमें जाट-मुस्लिम एकता दोबारा से देखने लगी थी. बीजेपी इसी बात से चिंतित थी."
योगी आदित्यनाथ के कैराना दौरे में बीजेपी की यही चिंता साफ़ दिखी. कैराना पहुँच कर योगी आदित्यनाथ ने एक बार फिर 'हिंदुओं के पलायन' का मुद्दा अपने भाषण में उठाया था.
जब शरत प्रधान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लौटती 'जाट-हिंदू एकता' की बात करते हैं तो उनका इशारा इस साल जनवरी में मुज़फ़्फ़रनगर के जीआईसी मैदान में हुई महापंचायत की ओर था जिसमें महेंद्र सिंह टिकैत के क़रीबी रहे ग़ुलाम मोहम्मद जौला मौजूद थे.
ये वहीं ग़ुलाम मोहम्मद जौला थे, जो मुज़फ़्फ़रनगर के दंगों के बाद इतने आहत हुए थे कि उन्होंने ख़ुद को भारतीय किसान यूनियन से अलग कर लिया और एक नया संगठन - भारतीय किसान मज़दूर मंच बना डाला. उन दंगों के आठ साल बाद, उस इलाक़े में दोबारा से लौटती 'जाट-मुस्लिम एकता' की ये एक नई तस्वीर थी.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमान 32 फ़ीसदी और दलित तकरीबन 18 फ़ीसदी हैं. यहाँ जाट 12 फ़ीसदी और ओबीसी 30 फ़ीसदी हैं.
शरत प्रधान कहते हैं कृषि क़ानून वापस लेने के बाद भी इस इलाके में जयंत चौधरी का असर और कृषि क़ानून अब भी मुद्दा हैं.
इसके पीछे वो तीन कारण गिनाते हैं. पहला - मोदी सरकार ने फैसला लेने में थोड़ी देरी कर दी. इसलिए किसान कहने लगे हैं कि ये फैसले तो हमने उनसे छीना है, ये क़ानून सरकार ने ख़ुद वापस नहीं लिए हैं. दूसरा - किसानों का दुख है, जो इस एक साल में उन्होंने झेला है. किसी फैसले से कोई कितना भी खुश हो, दुख की याद हमेशा साथ रहती है. तीसरा - जंयत के साथ इस बार सिम्पथी वोट भी खूब होगा. "
ये भी पढ़ें : यूपी में अखिलेश की सपा और जयंत की आरएलडी क्या मिला पाएँगे हाथ?
समाजवादी पार्टी का गठबंधन गणित
शरत प्रधान की ही बात को वरिष्ठ पत्रकार अनिल चौधरी दूसरे तरह से रखते हैं.
वो कहते हैं, " मोदी सरकार के इस फैसले की वजह से किसान अब ज़्यादा उत्साहित हैं. उन्हें लगता है कि आंदोलन ऐसे ही अहिंसक बना रहा तो वो आगे भी अपनी माँगें सरकार से मनवा लेंगे. यही वजह है कि लखनऊ की पंचायत में इतने ज़्यादा किसान जुटे. सरकार ने कृषि क़ानून वापस भले ही ले लिया हो, लेकिन आंदोलन ख़त्म नहीं हुआ.
इसी आंदोलन के एक साल की अवधि में किसानों ने धान, गेहूँ और गन्ना - तीन फसलें बाज़ार में बेची हैं. गन्ने के बकाया पैसे मिले नहीं और धान, गेंहू का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिला नहीं."
अनिल चौधरी इसलिए मानते हैं कि समाजवादी पार्टी को आरएलडी के गठबंधन से फ़ायदा होगा.
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) में प्रोफे़सर संजय कुमार कहते हैं, "आरएलडी का जनाधार पिछले 20 सालों में बहुत कम हुआ है, लेकिन अभी भी वो जाटों का प्रतिनिधित्व करती है. अगर जाट किसान बीजेपी से नाराज़ हैं और इलाके में अखिलेश और जयंत की पार्टी के उम्मीदवार चुनाव में आमने सामने हों तो वोटर वापस आरएलडी की तरफ़ की जाएंगे. अगर अखिलेश यादव, जयंत चौधरी की पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करते हैं तो ऐसे में फ़ायदा बीजेपी का हो सकता है. यही अखिलेश यादव की चिंता भी है. इसलिए अखिलेश चाहते हैं कि जाट वोटों का बंटवारा इस चुनाव में न हो और आरएलडी के साथ गठबंधन हो जाए."
प्रोफे़सर संजय कुमार कहते हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विधानसभा सीटों को लेकर अलग अलग दावे हैं, लेकिन सीएसडीएस के मुताबिक़ 40-45 सीटों पर जाटों की संख्या बहुत ज़्यादा है. ये सीटें किसी भी पार्टी की जीत और हार के लिए निर्णायक हैं.
ये भी पढ़ें : बीजेपी का पश्चिमी यूपी के लिए क्या है 'गेमप्लान'?
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)