उत्तर प्रदेश चुनावः उन्नाव और बांदा में क्या गाय चरेगी वोट, क्या बेरोज़गार करेंगे चोट - ग्राउंड रिपोर्ट
उन्नाव और बांदा समेत कई ज़िलों में 23 फ़रवरी को मतदान होना है. क्या चाहते हैं यहाँ के मतदाता? कौन से मुद्दे हैं उनके लिए अहम?
उन्नाव के एक चौराहे पर पूजा और उनकी सहेलियाँ बस का इंतज़ार कर रही हैं. बस आती है और चली जाती है, उन्हें बैठने का मौक़ा नहीं मिल पाता.
एसएससी परीक्षा की तैयारी कर रहीं पूजा और उनकी दोस्तों के लिए ये रोज़ का संघर्ष है. वो 15 किलोमीटर दूर अपने गांव से प्रवेश परीक्षा की कोचिंग करने उन्नाव आती हैं.
किसान परिवारों से आने वाली इन बेटियों को रोज़ाना 50 रुपए तक किराए पर ख़र्च करने होते हैं.
पूजा सरकारी नौकरी की उम्मीद में तैयारी कर रही हैं लेकिन उन्हें लगता नहीं कि भर्ती निकलेगी और वो नौकरी पा लेंगी.
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पूजा कहती हैं,"सरकार का बेरोजगारों के प्रति रवैया असंवेदनशील रहा है. कोई भर्ती नहीं निकली है. इस बार हम वोट बहुत सोच-समझकर देंगे."
पूजा कहती हैं, "मैं नहीं जानती मेरे पिता कहाँ वोट देंगे लेकिन मैं जानती हूँ कि मुझे कहाँ वोट करना है क्योंकि बेरोज़गारी मेरे लिए सबसे बड़ा मुद्दा है."
पूजा की सहेलियाँ भी उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहती हैं, "युवाओं में भारी निराशा और आक्रोश है. पेपर लीक हो रहे हैं. परीक्षाएं हो नहीं रही हैं. चुनाव हमारी आवाज़ सुनाने का मौका हैं. हम ख़ामोशी से मतदान करेंगे लेकिन नतीजे शोर मचा देंगे."
उन्नाव से पंद्रह किलोमीटर दूर माखी गांव में रहने वाली दर्जनों लड़कियां रोज़ाना कोचिंग करने आती हैं. माखी गांव उन्नाव रेप केस को लेकर चर्चित हैं. जेल में बंद भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर भी इसी गांव के हैं. लेकिन यहां रेप केस अब कोई मुद्दा नहीं है.
अधिकतर लोग बेरोज़गारी और आवारा पशुओं से परेशानी की बात करते हैं.
अपने घर की छत पर बच्चों को ट्यूशन पढ़ा रहीं 27 वर्षीय सुचिता सिंह ने बीएड किया है और कई प्रवेश परीक्षाएं दीं हैं लेकिन उन्हें नौकरी नहीं मिली हैं.
सुचिता कहती हैं, "हम जैसी लड़कियों के लिए गांव से निकलकर शिक्षा हासिल करना एक संघर्ष होता है. मैं 27 की हो गई हूं और अभी नौकरी नहीं लगी है. मेरे पास योग्यता है लेकिन अवसर नहीं हैं. मैं किसी तरह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपना ख़र्च चला रही हूं."
सुचिता कहती हैं, "बेरोज़गार युवाओं की बेबसी और आक्रोश को कोई समझ नहीं पा रहा है. हमें महसूस हो रहा है कि हमारे मुद्दों के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ है."
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आवारा पशुओं का मुद्दा
उन्नाव के ग्रामीण क्षेत्रों में अन्ना जानवर (खुला छोड़ दी गई गायें) बहुत बड़ा मुद्दा हैं. यहां खेत पर काम कर रहे एक किसान अपना नाम न ज़ाहिर करते हुए कहते हैं, "खेती में कुछ नहीं रह गया है. मैं एक बड़ा किसान हूं लेकिन मेरे बेटे को बाहर जाकर नौकरी करनी पड़ रही है. क्योंकि सारी फसल खुले जानवर बर्बाद कर देते हैं. हम सारी-सारी रात जागकर फसल की रखवाली करते हैं, किसी एक दिन चूक होती है और खेत बर्बाद हो जाता है. हमारी मेहनत बेकार हो जाती है."
उन्नाव के स्थानीय पत्रकार अजय गौतम के मुताबिक इस बार आवारा पशु चुनावों में सबसे बड़ा मुद्दा हो सकते हैं. अजय कहते हैं, "शहर के मुद्दे अलग हैं और गांव के बिलकुल अलग. गांव में लोग आवारा जानवरों से बहुत परेशान हैं. जिससे भी बात करो वो इसी का ज़िक्र करता है."
अजय कहते हैं, "किसानों की शिकायत होती है कि उनकी परेशानी की तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा है और ना ही इस पर बात की जा रही है."
यहां जगह-जगह गौशालाएं नज़र आती हैं. लेकिन लोगों का मानना है कि ये नाकाफ़ी हैं. अजय गौतम कहते हैं, "सरकार ने प्रयास तो किए हैं लेकिन समस्या इतनी बड़ी है कि वो नाकाफ़ी साबित होते हैं. जानवर जितना खेत चरते हैं उससे ज़्यादा कुचलकर बर्बाद करते हैं. ऐसे में खुले जानवरों का छोटा समूह भी किसानों का बड़ा नुक़सान कर देता है."
माखी गांव में गायों और सांडों के कई झुंड बैठे नज़र आते हैं. स्थानीय लोग कहते हैं, "दिन में ये जानवर गांवों में आराम करते हैं और शाम होते ही खेतों की तरफ़ चल देते हैं. किसानों को रातभर निगरानी करनी पड़ती है."
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उन्नाव रेप मामला और चुनाव
उन्नाव साहित्य की नगरी है लेकिन उन्नाव रेप केस और एक दलित युवती की हत्या के बाद लाश आश्रम से मिलने की घटनाओं ने उन्नाव की छवि को प्रभावित किया है.
स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता सतीश भदौरिया कहते हैं, "उन्नाव साहित्यकारों और कवियों का क्षेत्र रहा है लेकिन इन घटनाओं से उन्नाव की छवि ख़राब हो रही है और ये यहां के लोगों के चिंता का विषय है."
सतीश कहते हैं, "चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारी उन्नाव की ज़मीन से जुड़े रहे हैं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसे साहित्यकारों का ये शहर है लेकिन जब जनपद की जब छवि ख़राब होती है तो हम सोचते हैं कि हमारे क्षेत्र की जो छवि थी वो बनीं रहें."
सतीश भदौरिया कहते हैं, "राजनीतिक दलों के अपने परंपरागत वोट हैं वो वहीं वोट करेंगे लेकिन युवा वर्ग में बेरोज़गारी जैसे मुद्दे का असर साफ़ नज़र आ रहा है."
उन्नाव में कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के नाम पर बना निराला पार्क शहर में लोगों के मनोरंजन और खाली समय बिताने का एकमात्र स्थान है.
यहां बीबीसी ने जब लोगों से बात की अधिकतर ने दलित युवती के हत्याकांड को लेकर आक्रोश ज़ाहिर किया. आजाद समाज पार्टी से जुड़े एडवोकेट अरविंद राजवंशी कहते हैं, "यदि लड़की दलित ना होती और अभियुक्त उच्च जाति के ना होते तो शायद पुलिस इतना लापरवाही ना करती."
यहीं मौजूद मज़दूर मुन्ना कहते हैं, "सबसे बड़ी समस्या रोजगार की है. अगर सरकार पक्की सरकारी नौकरी नहीं दे पा रही है तो कम से कम ये सुनिश्चित करे कि हर युवा को पांच सौ रुपए रोज यानी पंद्रह हज़ार रुपए महीना के वेतन का काम मिले. सिर्फ़ सरकारी राशन से ग़रीब का काम नहीं चल पा रहा है. बढ़ते बच्चों की ज़रूरतें पूरी करना मुश्किल है."
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उन्नाव में छह विधानसभा सीटें हैं, पिछले चुनावों में यहां सभी सीटें बीजेपी ने जीती थीं. पत्रकार अनिल गौतम कहते हैं, "इस बार सभी सीटों पर कड़ा मुक़ाबला देखने को मिल रहा है. उन्नाव के नतीजे चौंका भी सकते हैं."
जूता फैक्ट्री में काम करने वाले मुन्ना को नियमित रोज़गार नहीं मिल पा रहा है और उनके सामने अपने परिवार का पेट भरने का संकट है.
उन्नाव से हमीरपुर और फिर बांदा की तरफ़ बढ़ते हुए किसान खेतों की रखवाली करते नज़र आते हैं. इस पूरे क्षेत्र में किसानों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा आवारा पशु ही हैं.
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बांदा का हाल
बांदा से क़रीब तीस किलोमीटर दूर अनमोल पपरिया डेरा गांव के बाहर घर बनाकर रहने वाले मैयादीन निषाद के घर में ना बिजली है, ना शौचालय. पानी के लिए उन्होंने हैंडपंप अपने पैसों से लगवाया है.
मैयादीन के सात बच्चे हैं जो स्कूल नहीं जा पा रहे हैं. मैयादीन कहते हैं, "योजना के नाम पर सरकार से सिर्फ राशन मिलता है. अभी तक हमारे घर में ना शौचालय बना है और ना ही बिजली पहुंची हैं. हमारे क्षेत्र में पानी सबसे बड़ी समस्या है. कम से कम सरकार को सिंचाई की व्यवस्था तो करनी ही चाहिए."
खर्च चलाने के लिए मैयानी कैथा का फल बेचते हैं. वो पास के जंगल से कैथा चुगकर लाते हैं और सड़क पर रखकर बिक्री करते हैं.
कैथा एक स्थानीय फल है जिसका इस्तेमाल चटनी बनाने के लिए किया जाता है.
मैयादीन कहते हैं, "सरकार दावा करती है कि बहुत काम हुआ है. हर घर में शौचायल बना है. फिर मेरे घर में अब तक विकास क्यों नहीं पहुंचा है?"
यहां से क़रीब दस किलोमीटर बांदा के पपरेंदा गांव में प्रचार कर रहे बहुजन समाज पार्टी के दल से लोगों ने यही सवाल किया कि आवारा पशुओं की समस्या के समाधान के लिए उनके पास क्या योजना है. लेकिन कार्यकर्ता कोई ठोस जवाब नहीं दे सके.
यहां लोग कहते हैं, "अन्ना प्रथा यहां सबसे बड़ी समस्या है. किसी के पास इसका कोई समाधान नहीं है."
बुंदेलखंड में पिछले कुछ सालों में गायों को खुला छोड़ देने का चलन इतना ज्यादा बढ़ गया है कि लोग यहां इसे प्रथा कहने लगे हैं.
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छोटी-छोटी गलियों के इस गांव में अधिकतर घर और रास्ते कच्चे हैं. एक कच्ची गली में अपने कच्चे मकान के बाहर बैठे युवा मथुरा वाजपेयी निराश हैं.
उन्हें सरकार की तरफ़ से शौचालय बनाने का भरोसा मिला था. उनके घर में अभी भी दो गड्ढे खुदे हैं लेकिन शौचायल नहीं बन सका है.
मथुरा कहते हैं, "ग्राम प्रधान ने हमसे कहा था कि अपने ख़र्च पर गड्ढा खुदवा लो, शौचायल हम बनवा देंगे. हमने गड्ढा खुदवाया लेकिन शौचायल नहीं बन सका."
जिस घर में उनका परिवार रह रहा है वो जर्जर हालत में हैं. उनके बड़े भाई ने किसी तरह पक्का मकान बनवाने का प्रयास किया लेकिन उसकी भी बस दीवारे ही खड़ी हैं, छत नहीं पड़ सकी है.
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मथुरा कहते हैं, "हमें सरकार की योजना के हिसाब से घर मिलना चाहिए, लेकिन हमारा घर नहीं बना है. अर्जी दे तो कहा जाता है कि तुम ब्राह्मण हो, उच्च वर्ग में आते हो, तुम्हें योजना का लाभ नहीं मिलेगा. हम सरकार से पूछते हैं कि जो ब्राह्मण ग़रीब हैं वो कहां जाएं क्या वो देश और समाज का हिस्सा नहीं है."
सरकार ने इस क्षेत्र को ओडीएफ़ (खुले में शौच मुक्त) घोषित किया है लेकिन यहां अधिकतर घरों में अभी भी शौचालय नहीं मिला है.
हालांकि यहां बहुत से लोग ऐसे भी हैं जिन्हें योजनाओं का लाभ नहीं मिला है बावजूद उसके सरकार के प्रति कोई नाराज़गी नहीं हैं. वो मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के चेहरे को ही देखकर वोट करना चाहते हैं.
पपरेंदा गांव के कई दर्जन युवा दो-तीन साल सेना में भर्ती की तैयारी कर रहे थे. वो रोज़ाना दौड़ लगाते थे. लेकिन अब ये संख्या घटकर चार-पांच ही रह गई है. अधिकतर युवाओं ने सेना में भर्ती का सपना छोड़ दिया है.
गांव के ही सुधीर सिंह, "मैं 21 साल का हूं, बीए हो गया है, सेना भर्ती की तैयारी लेकिन इस सरकार में नौकरियां ही नहीं है. कोई भर्ती ही नहीं निकली है. मैं सरकार का पक्का समर्थक था लेकिन धीरे-धीरे समर्थन कम हो रहा हैं. अपनी नौकरी और भविष्य को लेकर चिंतित हूं. लगता है कितनी भी मेहनत कर लूं लेकिन नौकरी मिल नहीं पाएगी."
सुधीर सिंह नौकरी की उम्मीद में अब भी दौड़ लगा रहे हैं लेकिन चार-पांच साल की मेहनत के बाद विवेक सिंह ने दौड़ना छोड़ दिया है.
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विवेक कहते हैं, "हम पूरी तरह सरकार पर निर्भर थे लेकिन सरकार ने नौकर दी नहीं तो हम क्या करें. नौकरी नहीं है तो कुछ नहीं है लेकिन मैं सरकार से नाराज़ नहीं हूं क्योंकि नाराज़ होकर हम कर भी क्या लेंगे. हम बस नौकरी निकलने का इंतेज़ार कर रहे हैं. नौकरियां आएंगी तो मिलेंगी."
बांदा में लोगों से बात करने पर स्पष्ट नज़र आता है कि बेरेज़गारी, महंगाई और अन्ना पशुओं का मुद्दा धार्मिक ध्रुवीकरण पर हावी हो गया है.
बांदा के वरिष्ठ पत्रकार अनिल आवारा कहते हैं, "इस बार हर किसी की ज़बान पर बेरोज़गारी, महंगाई और अन्ना पशुओं का मुद्दा है. बांदा में रोजगार के अवसर नहीं है. कोरोना महामारी के दौरान लोगों की कमर टूट गई थी. बहुत से लोग अभी भी क़र्ज़ के बोझ से मुक्त नहीं हुए हैं."
आवारा कहते हैं, "पिछली बार यहां बीजेपी की राष्ट्रवाद के मुद्दे पर स्पष्ट लहर थी, लेकिन इस बार कोई लहर नज़र नहीं आ रही है. जातीय समीकरण ज़रूर मुद्दों पर हावी होते नज़र आ रहे हैं."
होगा उलटफेर?
2017 विधानसभा चुनावों में बांदा जनपद की सभी चार विधानसभा सीटों पर बीजेपी ने जीत दर्ज की थी. लेकिन इस बार अनिल आवारा कहते हैं कि "बांदा के नतीजे चौंका सकते हैं."
बांदा के वरिष्ठ पत्रकार शशि शेखर द्विवेदी भी अनिल आवारा की राय से समहत नज़र आते हैं. शशि शेखर कहते हैं, "पिछले चुनावों में राष्ट्रवाद का मुद्दा था. लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. राम मंदिर भी यहां मुद्दा नहीं है क्योंकि मंदिर बन गया है और लोग इससे आगे बढ़ गए हैं."
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शशि शेखर कहते हैं, "लोगों को जय श्री राम का नारा अच्छा लगता है लेकिन जब वो अपने घर पहुंचते हैं तो गैस का खाली सिलेंडर और राशन की चिंता उन्हें सताती है. वोटर पशोपेश में है. पिछले चुनावों में बीजेपी की एक आंधी थी लेकिन इस बार मुद्दों पर चुनाव हो रहा है. टीवी डीबेट में यहां के मुद्दे दिखाई नहीं देते हैं. अगर आप ज़मीन पर उतरकर लोगों से बात करें तो बिलकुल अलग तस्वीर नज़र आती है."
बुंदेलखंड भारत के सबसे पिछड़े इलाक़ों में शामिल हैं. यहां की अपनी अलग समस्याएं हैं. कोरोना महामारी से पैदा हुई परिस्थितियों ने इन परेशानियों को और बड़ा बना दिया है.
शशि शेखर द्विवेदी कहते हैं, "बीजेपी अच्छा दिन के वादे के साथ सत्ता में आई थी. लेकिन बहुत से लोगों को लग रहा है कि उनके अच्छे दिन नहीं आए हैं. इस बार मतदाता भी थोड़ा जागरूक है. हमें लग रहा है कि इस चुनाव में जनता बहुत ज़ोर से बोलेगी."
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