अरविंद केजरीवाल के आप का संयोजक बने रहने के लिए पार्टी संविधान तक बदल गया, आख़िर क्यों?
अरविंद केजरीवाल अगले पाँच साल के लिए आप के राष्ट्रीय संयोजक चुने गए हैं. इस साल जनवरी में पार्टी का संविधान बदला गया, जिसके बाद उनके संयोजक बनने का रास्ता साफ़ हुआ.
दिल्ली की सत्ता पर काबिज़ आम आदमी पार्टी ने एक बार फिर अरविंद केजरीवाल को अगले पाँच साल के लिए संयोजक चुन लिया है.
आम आदमी पार्टी के गठन के समय जो संविधान पार्टी ने बनाया था, उसके मुताबिक़ दो बार से ज़्यादा एक व्यक्ति पार्टी का संयोजक नहीं बन सकता था.
लेकिन इस साल जनवरी में पार्टी का संविधान बदला गया. उसके बाद अरविंद केजरीवाल के संयोजक पद पर बने रहने का रास्ता साफ़ हुआ. पहले उनका कार्यकाल तीन साल का था, जिसे बढ़ाकर अब पाँच साल का दिया गया है.
2012 में आम आदमी पार्टी का गठन हुआ है, तब से अब अब तक अरविंद केजरीवाल ही पार्टी के संयोजक बने हुए हैं.
अरविंद केजरीवाल के संयोजक बनने पर सवाल क्यों?
आम आदमी पार्टी के अंदर इस बात को लेकर फ़िलहाल कोई बग़ावती सुर नहीं उठ रहे हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं कि सब इस फ़ैसले से ख़ुश हो.
पार्टी के साथ पूर्व में जुड़े पत्रकार से नेता और नेता से पत्रकार बने आशुतोष ने ट्वीट कर कुछ सवाल उठाए हैं.
उन्होंने पूछा है कि क्या अरविंद केजरीवाल की जगह नया नेशनल कन्वीनर बनता, तो उनकी ताक़त कम हो जाएगी या फिर दूसरा पार्टी पर क़ब्ज़ा कर लेगा?
ऐसा नहीं कि आम आदमी पार्टी अकेली राजनीतिक पार्टी है, जिसमें एक नेता पिछले 8 साल से सर्वोच्च पद पर बैठा हो. कांग्रेस पार्टी में भी सर्वोच्च पद गांधी परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमता है. समाजवादी पार्टी में भी यादव परिवार का ही वर्चस्व है, बहुजन समाज पार्टी में भी मायावती ही सत्ता के केंद्र में रहती है.
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अरविंद केजरीवाल से ही सवाल क्यों?
तो ये सवाल अरविंद केजरीवाल से ही क्यों किया जा रहा है.
इस सवाल के जवाब में बीबीसी से बातचीत में आशुतोष कहते हैं, "जब आंदोलन से पार्टी का जन्म हुआ, उस वक़्त इनका तीन चीज़ों पर फ़ोकस था. पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र, हाईकमान कल्चर का विरोध और पारदर्शिता."
"इन तीनों बातों पर हमेशा क़ायम रहने के लिए पार्टी के संविधान में दो बातें जोड़ी थी. कोई भी व्यक्ति एक पद पर दो बार से ज़्यादा नहीं रहेगा. एक ही परिवार के लोग अलग-अलग पदों पर नहीं रहेंगे. अब पार्टी संविधान में संशोधन करके तीन साल के कार्यकाल को पाँच साल के लिए बढ़ा दिया गया है. और एक पद पर दो कार्यकाल तक रहने के प्रावधान को ख़त्म कर दिया गया है. यानी पार्टी अपने शुरुआती सिद्धांतो से पूरी तरह पलट चुकी है."
"मेरा सवाल उनके तीसरी बार संयोजक बनने पर नहीं है. मेरा सवाल मात्र इतना है कि अगर उनके अलावा कोई और भी पार्टी का संयोजक बनता तो क्या अरविंद केजरीवाल की छवि या ताक़त पार्टी में कम होती? अब आम आदमी पार्टी में और बाक़ी पार्टियों में फ़र्क क्या है? आप क्या कह कर राजनीति में आए थे और आज कर क्या रहे हैं."
https://twitter.com/ashutosh83B/status/1436959861439287296
संयोजक का पद अहम क्यों ?
आम आदमी पार्टी में संयोजक का पद वैसे ही है जैसा दूसरी पार्टियों में राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद. पार्टी के संयोजक पर ही पार्टी को चलाने की ज़िम्मेदारी होती है. पार्टी के आगे का विज़न सेट करना उनकी ज़िम्मेदारी का सबसे अहम हिस्सा है. जिसके लिए संगठनात्मक ढाँचा कैसे तैयार हो-ये तय करना भी संयोजक का ही काम होता है. इसके अलावा आने वाले चुनाव की तैयारी, राज्यों में नेतृत्व तय करना, ये तमाम फ़ैसले उन्हीं के संरक्षण में लिए जाते हैं.
कई राजनीतिक विश्लेषक और जानकार पार्टी चलाने के लिए बीजेपी के मॉडल का भी तर्क देते हैं. जहाँ जेपी नड्डा पार्टी अध्यक्ष हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.
आशुतोष कहते हैं कि आज की तारीख़ में किसी पार्टी में लोकतंत्र है तो वो है लेफ़्ट पार्टी, जहाँ पार्टी के जनरल सेक्रेटरी होने के बाद भी सीताराम येचुरी को राज्यसभा नहीं भेजा गया. ज्योति बसु पार्टी के सबसे बड़े नेता थे, जब वो प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, लेकिन पार्टी ने मना कर दिया था.
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नेतृत्व की दूसरी कतार
राजनीतिक विश्लेषक अभय दुबे, आशुतोष के सवाल का जवाब अलग तरीक़े से देते हैं.
वो कहते हैं, "आम आदमी पार्टी में नेतृत्व की दूसरी कतार अभी विकसित नहीं हो पाई है जैसी दूसरी पार्टियों में होती है. इस वजह से पार्टी का संगठनात्मक ढाँचा 'तदर्थवाद' यानी 'ऐडहॉकिज़म' पर चल रहा है. ये प्रक्रिया अभी जारी है. आम आदमी पार्टी दिल्ली आधारित पार्टी है, दिल्ली में राजनीतिक शक्तियाँ इनकी सीमित हैं. अगर किसी दूसरे प्रदेश में ये अपना विस्तार कर पाएँगे, तो इनके नेतृत्व में ज़्यादा विविधता आएगी."
आम आदमी पार्टी में अपने राजनीतिक विस्तार के लिए 2014 का लोकसभा चुनाव 400 से ज़्यादा सीटों पर लड़ा था. लेकिन ज़्यादातर उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी.
2019 के लोकसभा चुनाव में 40 सीटों पर लड़ी, लेकिन उसे कामयाबी सिर्फ़ एक सीट पर मिली.
इस बीच कई पुराने साथी पार्टी छोड़ कर भी चले गए. योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण, कपिल मिश्रा, अलका लांबा उनमें से प्रमुख नाम हैं.
अगले साल पार्टी मिशन विस्तार के तहत पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात में चुनाव लड़ने की तैयारी में है. जनता को लुभाने के लिए दिल्ली के फ़्री बिजली पानी का मॉडल भी इन प्रदेशों में लेकर जाने का प्लान है. पार्टी इन प्रदेशों में स्थानीय नेतृत्व पर दाँव लगा रही है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर एक ही नेता है-अरविंद केजरीवाल.
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विस्तार के मूड में पार्टी
तो किया इन प्रदेशों में चुनाव लड़ कर पार्टी की नेतृत्व की दूसरी कतार वाले नेता मिल जाएँगे?
इस पर अभय दूबे कहते हैं, "पंजाब में पिछले विधानसभा चुनाव में एक कोशिश की गई थी. लेकिन वो विपक्ष तक सिमट कर रह गए. इस बार फिर वे कोशिश रहे हैं. वहाँ पार्टी के लिए संभावना भी है क्योंकि कांग्रेस में वहाँ कलह है और अकाली दल ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया है. किसान आंदोलन की वजह से बीजेपी की स्थिति वैसे ही ख़राब है."
वो आगे कहते हैं, "हमें याद रखना चाहिए कि कोई भी राजनीतिक दल लंबे समय में विकसित होता है. जनसंघ, बीजेपी, कांग्रेस का ही उदाहरण देख लीजिए. तमाम चरणों से होकर ये सभी पार्टियां गुज़री हैं. तभी विकसित हुई हैं. जो पार्टियाँ विकसित होना बंद कर देती है, वो धीरे धीरे मर जाती है."
किसी पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व, निरंतरता मांगता है. आदर्श स्थिति यह नहीं है कि जिस व्यक्ति से पार्टी पहचानी जाती है, जिसकी वजह से लोग पार्टी की तरफ़ आकर्षित होते हैं, गोलबंदी होती है वो ख़ुद वहाँ से हट जाए.
हालांकि जय प्रकाश नारायण ने ऐसी मिसाल पेश की थी. पार्टी बनाया था और फिर हट गए और दूसरों को सत्ता संभालने दी लेकिन क्या कामयाबी उन्हें मिली थी? "
अभय दूबे का आकलन है कि पंजाब में पार्टी अगर अच्छा प्रदर्शन कर पाती है तब तो ठीक है, नहीं तो दोबारा से पार्टी को अपनी रणनीति, योजनाओं और नियुक्तियों पर ग़ौर करना होगा.
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केजरीवाल पार्टी की क्या है मजबूरी हैं या मज़बूती?
जब बात पार्टी में पद की हो रही हो, तो अरविंद केजरीवाल का पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए हाल ही में जारी संदेश का उल्लेख ज़रूरी हो जाता है.
11 सितंबर को ही अरविंद केजरीवाल ने वीडियो संदेश जारी करते हुए कहा था, "आम आदमी पार्टी में कभी भी पद की इच्छा मत करना. अगर आपके अंदर पद की इच्छा जाग जाती है तो मतलब है कि मन में कोई स्वार्थ जाग गया. जब किसी के मन में स्वार्थ जाग जाता है तो फिर उससे सेवा नहीं होती. मैं नहीं चाहता कि कोई ऐसा समय आए कि आम आदमी की तरफ़ लोग देख कर कहें, ये तो बीजेपी जैसी हो गई, ये तो कांग्रेस जैसी हो गई. हम इसलिए तो नहीं आए थे. हमने इसलिए तो पार्टी नहीं बनाई थी."
https://twitter.com/AamAadmiParty/status/1436574379010236418
अरविंद केजरीवाल के इस संदेश का संविधान बदल कर तीसरी बार संयोजक पद पर आसीन होने का आपस में कोई नाता है भी या नहीं, ये समझने के लिए बीबीसी ने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से सवाल पूछे.
कई नेता उपलब्ध नहीं थे, कई ने मैसेज पर असमर्थता जताई और कइयों ने जवाब नहीं दिया.
आम आदमी पार्टी के साथ आंदोलन के समय से रहने वाले विधायक सोमनाथ भारती ने बीबीसी के सवालों के जवाब में कहा, "अरविंद केजरीवाल इस पद के लिए सबसे ज़्यादा योग्य व्यक्ति हैं. वो पार्टी के भीतर सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार, समय देने वाले और पार्टी के लिए सोचने वाले नेता है. संयोजक पद पर नियुक्ति पार्टी के संविधान और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत हुई है."
उनको संयोजक चुनने के लिए बाक़ायदा नेशनल काउंसिल की बैठक बुलाई गई, उसमें वोट डालने के बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी का गठन हुआ, वहाँ भी वोटिंग हुई और पीएसी का गठन हुआ और फिर संयोजक पद पर उनका चुनाव हुआ."
लेकिन ऐसा करने के पहले ही पार्टी के संविधान को बदलने की ज़रूरत क्यों पड़ी?
इस सवाल के जवाब में सोमनाथ भारती कहते हैं, "जब आप किसी नए रास्ते पर चलते हैं, तो उसके लिए कुछ नियम बनाते हैं. रास्ते में कई नई परिस्थितियाँ उत्पन्न होती है, उसके परिप्रेक्ष्य में पुराने नियमों में बदलाव भी लाने होते हैं. जो वक़्त की माँग है, उस हिसाब से पार्टी ने फ़ैसला किया है."
वो आगे कहते हैं, "पार्टी एक आदमी पर केंद्रित होती जा रही है- ऐसा नहीं लगता है. पार्टी के साथ जुड़े सभी लोगों को अपना-अपना दायित्व मिला हुआ है. मेरे पास दक्षिण के पाँच राज्यों की ज़िम्मेदारी है. इसके अलावा डीडीए और अपना विधानसभा क्षेत्र संभालता हूँ. हमारे पास दायित्व ज़्यादा है और लोग कम हैं."
अरविंद केजरीवाल फ़िलहाल दिल्ली के मुख्यमंत्री भी हैं और पार्टी के संयोजक भी.
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