1971 के युद्ध में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ गंगासागर की लड़ाई जितवाने वाले अल्बर्ट एक्का - विवेचना
रात के अँधेरे में लाँस नायक अल्बर्ट एक्का देख नहीं सकते हैं लेकिन वो सूँघ ज़रूर सकते हैं कि उनकी गर्दन पर लगी चिपचिपी चीज़ उनका अपना ख़ून है. पढ़िए, 1971 के युद्ध के 50 वर्ष पूरे होने पर ये ख़ास रिपोर्ट.
2-3 दिसंबर, 1971 की रात दो बजे 14 गार्ड की अल्फ़ा और ब्रावो कंपनियों ने पूर्वी पाकिस्तान में गंगासागर में पाकिस्तानी नियंत्रण वाले इलाके में मार्च करना शुरू किया. ये जगह अखौरा रेलवे स्टेशन से चार किलोमीटर की दूरी पर थी और ब्राह्मणबरिया, भैरब बाज़ार और कमालपुर के बीचों-बीच थी.
वो दलदली इलाका था और उसमें चलने वाले सैनिकों के पैर घुटनों तक धँसे चले जा रहे थे इसलिए उनसे रेलवे ट्रैक की बगल में एक कतार में चलने के लिए कहा गया था.
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ये रेलवे ट्रैक ज़मीन की सतह से 8-10 फ़ीट की ऊँचाई पर बनाया गया था. अल्फ़ा कंपनी रेलवे ट्रैक के दाहिनी तरफ़ और ब्रावो कंपनी लाइन के बाईं तरफ़ चल रही थी. लाँस नायक गुलाब सिंह और अल्बर्ट एक्का को सबसे आगे चलने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी. उन्हें आदेश थे कि उन्हें जैसे ही पाकिस्तानी सैनिक दिखाई दे, वो उन पर हमला बोल दें.
इस इलाके की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी पाकिस्तान की 12 फ़्रंटियर फ़ोर्स की तीन कंपनियों को दी गई थी. मेजर जनरल इयान कारडोज़ो अपनी किताब 'परमवीर अवर हीरोज़ इन बैटल' में लिखते हैं, "गश्त के दौरान 14 गार्ड्स के जवानों ने नोट किया कि पाकिस्तानी सैनिक रेलवे ट्रैक के अगल-बगल बिना किसी चिंता के घूम रहे हैं. उन्होंने इससे अंदाज़ा लगाया कि वहाँ बारूदी सुरंगें नहीं बिछाई गई हैं. इसलिए भारतीय सैनिकों से कहा गया कि वो रेलवे ट्रैक के साथ-साथ ही चलें."
40 फ़ुट की दूरी पर पाकिस्तानियों को भारतीय हमले का पता चला
बी कंपनी के कमांडर मेजर ओ पी कोहली ट्रैक के बाईं तरफ़ उससे थोड़ा नीचे चल रहे रहे थे. कर्नल ओ पी कोहली याद करते हैं, "सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन तभी एक सैनिक का पैर रेलवे ट्रैक पर पाकिस्तानियों द्वारा बिछाए गए ट्रिप प्लेयर वायर पर पड़ गया. नतीजा ये हुआ कि अचानक हवा में आतिशबाज़ी सी हुई और चारों तरफ़ ऐसा उजियारा फैल गया जैसे दिन निकल आया हो."
एक्का जहाँ खड़े हुए थे वहाँ से करीब 40 फ़ुट की दूरी पर पाकिस्तानियों का बंकर था जहाँ एक संतरी ड्यूटी पर तैनात था. रोशनी और शोर से चकित होकर पाकिस्तानी सैनिक ने चिल्ला कर पूछा- 'कौन है वहाँ ?' एक्का ने उतनी ही कड़क आवाज़ में जवाब दिया 'तेरा बाप.' ये कहते ही उन्होंने आगे दौड़ते हुए उस पाकिस्तानी सैनिक के पेट में अपनी संगीन घोंप दी.'
अल्बर्ट एक्का की बाँह और गर्दन में गोली लगी
उस पहले बंकर में एक लाइट मशीन गन और एक रिकॉयलेस गन के साथ चार पाकिस्तानी सैनिक तैनात थे. एक्का की बाँह में गोली लगी लेकिन उस बंकर पर भारतीय सैनिकों का नियंत्रण हो गया. इसके बाद तो तबाही मच गई.
पाकिस्तानी सैनिकों ने रोशनी करने वाले गोले चला कर पूरे इलाके में उजाला कर दिया और वो हमला कर रही दोनों भारतीय कंपनियों पर टूट पड़े. यहाँ से 120 सैनिकों वाली दोनों कंपनियाँ अलग अलग हो गईं.
ए कंपनी आगे बढ़ती चली गई और बी कंपनी तालाब की तरफ मुड़कर एक एक कर पाकिस्तानियों के बंकर नष्ट करने लगी. बाँह में गोली लगी रहने के बावजूद एक्का शेर की तरह हमला कर रहे थे. वो मेजर कोहली के साथ चल रहे थे तभी एक गोली उनकी गर्दन को छीलते हुए निकल गई.
कर्नल कोहली याद करते हैं, "गोली लगते ही एक्का ज़मीन पर गिरे. लेकिन तुरंत उठ खड़े हुए और मेरे साथ साथ चलने लगे. तब तक हमारे लोग उस रेलवे सिग्नल बिल्डिंग तक पहुंच गए थे जहाँ से पाकिस्तान सैनिक एमएमजी से लगातार हमारे ऊपर फ़ायरिंग कर रहे थे. उस समय सबसे बड़ी ज़रूरत थी उस मशीन गन को तुरंत शाँत करना. इस जगह पर ही एक्का ने बहादुरी का नया मापदंड स्थापित किया."
एक्का रेंग कर रेलवे सिग्नल बिल्डिंग तक पहुंचे
दृश्य नंबर दो. ज़मीन पर एक शख़्स बिना हरकत किए पड़ा है. उसके जूते सूखे कीचड़ से सने हुए हैं और वो महसूस कर सकता है कि उसके बाँए पैर पर एक चींटी चल रही है. वो एक इंच भी नहीं हिलता है. चींटी से उसको ज़रा भी परेशानी नहीं है. उसका हाथ अपनी गर्दन पर जाता है. उसे लगता है कि उस पर लगी कोई चिपचिपी सी चीज़ पसीना नहीं हो सकती. रात के अँधेरे में लाँस नायक अल्बर्ट एक्का देख नहीं सकते हैं लेकिन वो सूँघ ज़रूर सकते हैं कि उनकी गर्दन पर लगी चिपचिपी चीज़ उनका अपना ख़ून है.
खून से सनी अपनी हथेली को अपनी पैंट से पोछते हुए अपनी गन पर उनकी पकड़ और मज़बूत हो जाती है. थोड़ी ही देर में सुबह की पहली किरण फूटने वाली है. वो घुटनों के बल बैठते हैं और फिर लेट कर साँप की तरह रेंगते हुए आगे बढ़ते हैं.
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उनके हाथ में उनकी 7.62 रायफ़ल है. उनकी बाँह में लगी गोली उनके पूरे जिस्म में दर्द की एक लहर उठा देती है. उनकी गर्दन में भी एक गोली लग चुकी है. लेकिन वो दाँत पीस कर आगे बढ़ते चले जाते हैं. उनकी गर्दन में गोली से हुए ज़ख्म से ख़ून बह कर उनके कॉलर को गीला कर चुका है.
एक्का को इसका अंदाज़ा है कि जैसे जैसे उनका ख़ून बाहर निकलेगा, रायफ़ल पर उनकी पकड़े ढ़ीली पड़ती जाएगी. इस सब को भूल कर वो अपना सारा ज़ोर अपनी कोहनियों पर लगाते हैं और अँधेरे में रेंगते हुए उस दोमंज़ली रेलवे सिग्नल बिल्डिंग की तरफ़ बढ़ जाते हैं जहाँ से पाकिस्तानी सैनिकों का ज़बरदस्त फ़ायर उनकी तरफ़ आ रहा है.
एक्का ने पाकिस्तानी बंकर में हैंड ग्रेनेड फेंका
एक्का के अपने साथियों की रायफ़लें पाकिस्तानी मशीन गनों के सामने मुश्किल से टिक पा रही थीं. इसलिए ये ज़रूरी था कि अगर ऑपरेशन सफल होना है तो उन मशीन गनों को हमेशा के लिए चुप कराना होगा.
अपनी राइफ़ल को पीठ में लटकाए हुए एक्का का हाथ अपनी बेल्ट में लटके हुए हैंड ग्रेनेड पर जाता है. अपने दाँतो से उसकी पिन निकाल कर एक्का उस ग्रेनेड को उस इमारत के अंदर एक छेद के ज़रिए लुड़का देते हैं.
इससे पहले कि अंदर बैठे पाकिस्तानी सैनिक कुछ समझ पाते एक विस्फोट होता है. विस्फोट से उठे मलबे के टुकड़े एल्बर्ट एक्का के सीने से टकराते हैं लेकिन पाकिस्तानी सैनिक उसके असर से दीवार से इतनी ज़ोर से टकराता है कि उसके परखच्चे उड़ जाते हैं. दूसरे सैनिक को कोई चोट नहीं पहुंचती.
संगीन से पाकिस्तानी सैनिक पर हमला
सैनिक इतिहासकार रचना बिष्ट रावत अपनी किताब 'द ब्रेव परमवीर चक्र स्टोरीज़' में लिखती हैं, "एक्का पुरानी ज़ंग लगी सीढ़ी पर चढ़कर उस भवन में लंगड़ाते हए दाख़िल हुए और खिड़की के ज़रिए वहां कूद गए जिसमें उन्होंने ग्रेनेड फेंका था."
"उन्होंने कंधे से अपनी राइफ़ल उतारी और उसकी चमकती हुई संगीन से ज़िंदा बचे पाकिस्तानी सैनिक पर हमला बोल दिया. उन्हें अपने उस्ताद की दी सीख अच्छी तरह से याद थी, 'घोप निकाल, घोप निकाल.'"
"जब पाकिस्तानी सैनिक गिरा तो उसकी मशीनगन से धुआँ निकल रहा था. मृत पाकिस्तानी सैनिक के खून के छींटे एक्का के चेहरे पर पड़े. उन्होंने उसे अपनी वर्दी की आस्तीन से पोछा. उनकी आँखों में सफलता का संतोष साफ़ पढ़ा जा सकता था."
सीढ़ियों से नीचे गिरे एक्का
अल्बर्ट एक्का के इस कारनामे ने लड़ाई का रुख़ भारतीय सैनिकों के पक्ष में कर दिया. ब्रावो कंपनी के कंपनी कमाँडर मेजर ओ पी कोहली 10 फ़ुट की दूरी से एक्का की बहादुरी का ये दृश्य देख रहे थे. उनकी आँखों के सामने ही एक्का ग्रेनेड फेंक कर सीढ़ियों से ऊपर चढ़े थे.
कोहली बताते हैं, "ये सारा दृश्य देखकर मेरा सीना गर्व से भर गया. मैं नीचे एक्का के उस भवन से बाहर निकलने का इंतज़ार कर रहा था. मेरी नज़र भी पड़ी कि एक दुबला पतला शख़्स सीढ़ी से नीचे उतर रहा है. रुकी साँसों से मैं उसे उतरते हुए देख रहा था. तभी अचानक एक्का का शरीर ढीला पड़ गया और वो सीढ़े से नीचे ज़मीन पर गिरे."
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कम बोलने वाले विनम्र इंसान
लाँस नायक अल्बर्ट एक्का अब इस दुनिया में नहीं थे लेकिन उन्होंने अपना मिशन पूरा कर दिखाया था. जब ब्रावो कंपनी के जवान बंकरों से उन एमएमजी को निकाल रहे थे जो थोड़ी देर पहले उनपर कहर बरपा रहीं थीं, लाँस नायक अल्बर्ट एक्का उन सीढ़ियों के पास नीचे मृत पड़े थे जो उन सैनिकों को बंकर तक ले जाती थीं.
कर्नल ओ पी कोहली को याद है कि जब वो कोटा से 30 किलोमीटर दूर चंबल नदी के किनारे अबरेरा कैंप में तैनात थे तो उनके सामने एक दुबले-पतले साँवले रंग के लड़के अल्बर्ट एक्का को मार्च करा कर लाया गया था.
एक्का ने अपना बैटल फ़िज़िकल एफ़िशिएंसी टेस्ट पास किया था लेकिन वो अपने कमाँडर से अपनी आँखें नहीं मिला पा रहे थे.
कोहली याद करते हैं, "एक्का मेरे पास बिहार रेजिमेंट से आए थे. सच बताऊँ तो मैं उनसे बिल्कुल प्रभावित नहीं हुआ था. वो बहुत ही कम बोलने वाले विनम्र से शख़्स थे. लेकिन वो आदिवासी थे इसलिए मुझे अंदाज़ा था कि वो शारीरिक रूप से फ़िट होंगे और हमें इसकी ज़रूरत भी थी."
बिना नाप के ढीले कपड़े पहनने के आदी
एक्का की पलटन को मई, 1968 में मिज़ोरम में तैनात कर दिया गया था. वो अपने मातहतों के साथ बहुत अच्छा व्यवहार करते थे, इसलिए वो उनका सम्मान भी करते थे. वो खुद बहुत संकोची थे और अपने साथी सैनिकों या अफ़सरों से बहुत घुलमिल नहीं पाते थे.
कर्नल ओ पी कोहली याद करते हैं, "अल्बर्ट को इस बात की कतई फ़िक्र नहीं थी कि वो दिखते कैसे हैं और न ही उन्हें अपनी वर्दी का ध्यान रहता था. वो किसी भी साइज़ की वर्दी पहन लेते थे और उसे ठीक कराने दर्ज़ी के पास भी नहीं जाते थे. नतीजा ये होता था कि उनके दुबले पतले शरीर पर उनके कपड़े लटकते रहते थे. मैं चूँकि स्मार्ट टर्न आउट पर बहुत ज़ोर देता था इसलिए कभी कभी उन पर नाराज़ भी हो जाता था."
"मैं अक्सर उनकी कमर में बंधी ढीली बेल्ट को उतार कर उसे ढंग से पहनने के लिए उन्हें डाँटता था. जब वो गश्त पर जाते थे तो कई बार नालों से केकड़ों को पकड़ कर लाते थे और उनको आग में भूनकर नमक मिर्च लगा कर खाते थे. उनका निशाना ग़ज़ब का था और वो बहुत अच्छी हॉकी खेलते थे."
परमवीर चक्र से सम्मानित
गंगासागर की लड़ाई में एक्का समेत 11 भारतीय सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी जबकि एक अफ़सर, तीन जूनियर कमीशंड अफ़सर और 55 अन्य सैनिक गंभीर रूप से घायल हुए. पाकिस्तान के 25 सैनिक मारे गए और 6 सैनिकों को युद्धबंदी बनाया गया.
अल्बर्ट एक्का को उनकी इस बहादुरी के लिए भारत का सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र दिया गया. ये पदक इसलिए महत्वपूर्ण था कि पहली बार बिहार (अब झारखंड) और ब्रिगेड ऑफ़ गार्ड्स के किसी सैनिक को इससे सम्मानित किया गया था. इसके अलावा पूर्वी सेक्टर में दिया जाने वाला ये अकेला परमवीर चक्र भी था.
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