भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव रखने वाला 'ग़ुलाम' क़ुतबुद्दीन ऐबक
एक ग़ुलाम जो अपनी वफ़ादारी से दिल्ली का सुल्तान बन गया. पढ़िए क़ुतुबउद्दीन ऐबक की पूरी कहानी
ये बात क़रीब सवा आठ सौ साल पहले की है जब सुल्तान मोइज़ुद्दीन (शहाबुद्दीन) ग़ौरी अफ़ग़ानिस्तान के शहर और अपनी राजधानी ग़ज़नी में विलासिता की महफ़िलें सजाते थे और अपने सलाहकारों की समझदारी की बातें सुनते थे.
इसी तरह की एक पारंपरिक महफ़िल सजी हुई थी और वहां मौजूद सभी अपने प्रदर्शन और हाजिर जवाबी और छंदों और ग़ज़लों के साथ बादशाह का मनोरंजन कर रहे थे, इसके बदले में उन्हें पुरस्कृत और सम्मानित किया जा रहा था.
उस रात सुल्तान ग़ौरी अपने दरबारियों और अपने ग़ुलामों (दासों) को उपहार, जवाहरात और सोने चांदी से मालामाल कर रहे थे. उनमें से एक दरबारी और ग़ुलाम (दास) ऐसा था, जिसने दरबार से बाहर आने के बाद अपना सारा इनाम, अपने से कम हैसियत रखने वाले तुर्कों, पहरेदारों, सफ़ाई करने वालों, ग़ुलामों और दूसरे काम करने वालों को दे दिया.
जब यह बात फैली तो यह बात सुल्तान के कानों तक भी पहुंच गई और उनके मन में इस दरियादिल इंसान के बारे में जानने की इच्छा पैदा हुई कि आख़िर यह उदार व्यक्ति कौन है. सुल्तान को बताया गया कि ये उनका ग़ुलाम (क़ुतबुद्दीन) ऐबक है.
ग़ौरी साम्राज्य के इतिहासकार मिन्हाज-उल-सिराज (अबू उस्मान मिन्हाज-उद-दीन बिन सिराजु-उद-दीन) ने भी इस घटना का ज़िक्र अपनी किताब तबक़ात-ए-नासिरी में किया है. उन्होंने न केवल ऐबक का दौर देखा, बल्कि उनके बाद सुल्तान शम्सुद्दीन इलतुतमिश और गयास-उद-दीन बलबन का दौर भी देखा.
वह लिखते हैं कि मोहम्मद ग़ौरी को ऐबक की उदारता ने बहुत प्रभावित किया और उन्होंने ऐबक को अपने क़रीबियों में शामिल कर लिया, और उन्हें सिंहासन और दरबार के महत्वपूर्ण कार्य सौंपे जाने लगे. यहां तक कि वह साम्राज्य के बड़े सरदार भी बन गए. उन्होंने अपनी प्रतिभा से इतनी तरक़्क़ी कर ली कि उन्हें अमीर आख़ोर बना दिया गया.
अमीर आख़ोर उस समय शाही अस्तबल के दरोग़ा का पद होता था और इसकी बहुत अहमियत थी. इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ इस्लाम (द्वितीय संस्करण) में इसे एक हज़ार का सरदार कहा गया है, जिसके अधीन तीन सरदार होते थे जिन्हें 40 का सरदार कहा जाता था.
क़ुतबुद्दीन ऐबक वह मुस्लिम शासक हैं जिन्होंने भारत में एक ऐसी सल्तनत स्थापित की जिस पर अगले 600 वर्षों तक यानी 1857 के ग़दर तक मुस्लिम शासक शासन करते रहे.
उन्हें ग़ुलाम सल्तनत या ग़ुलाम वंश का संस्थापक कहा जाता है, लेकिन जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में मध्यकालीन इतिहास के इतिहासकार प्रोफ़ेसर नजफ़ हैदर का कहना है कि उन्हें या उनके बाद के बादशाहों को ग़ुलाम बादशाह नहीं कहा जा सकता है. उन्हें तुर्क या ममलूक कहा जा सकता है.
दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में इतिहास की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर रहमा जावेद राशिद का कहना है कि मुस्लिम शासनकाल में ग़ुलाम की अवधारणा बाइज़ंटाइन ग़ुलाम की अवधारणा से बहुत अलग थी और यही वजह है कि मुस्लिम काल में ग़ुलामों की हैसियत कभी-कभी उत्तराधिकारी की तरह होती थी.
इसलिए जब हम इतिहास पर नज़र डालते हैं, तो हमें महमूद और अयाज़ दिखाई देते हैं, जिन्हें महमूद गज़नवी अपने बच्चों से ज्यादा प्यार करते थे. अल्लामा इक़बाल की प्रसिद्ध नज़्म 'शिकवा' का एक शेर इस तरफ इशारा करता है कि इस्लाम में ग़ुलामों की क्या हैसियत थी.
एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़
न कोई बंदा रहा और न कोई बंदा नवाज़
- इतिहास में आख़िर क्या है राजपूतानी आन-बान-शान का सच?
- सम्राट मिहिरभोज कौन हैं, जिन्हें लेकर आमने-सामने हैं राजपूत और गुर्जर?
जिन लोगों ने फ़िल्म रज़िया सुल्ताना, बाहूबली या तुर्की ड्रामा सीरियल एर्तुगरुल ग़ाज़ी देखा है, उनके लिए ग़ुलामों की स्थिति और महत्व को समझना आसान होगा.
'रजिया सुल्ताना' में रज़िया का गार्ड याक़ूत एक हब्शी (अबीसीनियाई) ग़ुलाम है जो अपने बलिदान से रानी के दिल में जगह बना लेता है, जबकि 'बाहूबली' में 'कटप्पा' ग़ुलामी के कर्तव्य की वजह से राजकुमार को मारने से भी नहीं हिचकिचाता. जबकि एर्तुगरुल ग़ाज़ी में, एक बाइज़ंटाइन ग़ुलाम और सोने की खादान का खनन विशेषज्ञ, हाजा तोरियान की ख़रीद व बिक्री और स्वतंत्रता के साथ ख़ुद एर्तुगरुल का ग़ुलामों का व्यापार करने वाले सिमको के हाथ लगने का दृश्य और फिर सभी ग़ुलामों की रिहाई दिखाई गई है.
नजफ़ हैदर बताते हैं, "ऐसा कहा जाता है कि मोहम्मद ग़ौरी से जब किसी ने पूछा कि आपकी तो कोई पुरुष संतान नहीं है जिनकी वजह से आने वाले समय में आपको याद रखा जाएगा, तो उन्होंने कहा था कि मेरे पास बहुत सारी पुरुष संतान हैं और वो मेरे नाम को बाक़ी रखने के लिए काफ़ी है.
प्रोफ़ेसर नजफ़ हैदर बताते हैं, कि वह अपने विशेष ग़ुलामों यिल्दोज़, ऐबक और क़बाचा की बात कर रहे थे.
रहमा जावेद का कहना है कि ग़ौरी ने उनके बीच आपस में रिश्तेदारी भी कराई थी और यिल्दोज़ की एक बेटी की शादी ऐबक से कराई थी, जबकि एक बेटी की शादी क़बाचा से कराई गई थी ताकि उनका गहरा रिश्ता हो सके और वे रिश्तेदारी के तहत, एक-दूसरे का विरोध करने के बजाय एक-दूसरे का समर्थन करें.
ऑक्सफ़ोर्ड सेंटर फ़ॉर इस्लामिक स्टडीज़ में दक्षिण एशियाई इस्लाम के प्रोफ़ेसर मोइन अहमद निज़ामी ने बीबीसी को बताया कि ऐबक को ग़ुलाम सल्तनत के संस्थापक के रूप में नहीं बल्कि भारत में तुर्क या ममलूक सल्तनत के संस्थापक के रूप में याद किया जाना चाहिए.
शुरुआती जीवन
मोइन अहमद निज़ामी ने बताया कि क़ुतबुद्दीन ऐबक का संबंध तुर्की के ऐबक क़बीले से था और बचपन में ही वो अपने परिवार से अलग हो गए और ग़ुलाम बाज़ार में बेचने के लिए उन्हें नेशापुर लाया गया था.
एक शिक्षित व्यक्ति, क़ाज़ी फ़ख़रुद्दीन अब्दुल अज़ीज़ कूफ़ी ने उन्हें ख़रीदा और उनके साथ अपने बेटे की तरह व्यवहार किया और उनकी शिक्षा और सैन्य प्रशिक्षण की उचित देखभाल की.
इतिहास की प्रसिद्ध किताब 'तबक़ात नसीरी' में मिन्हाज-उल-सिराज ने लिखा है कि ऐबक के नए अभिभावक क़ाज़ी, फ़ख़रुद्दीन अब्दुल अज़ीज़ कोई और नहीं बल्कि इमाम अबू हनीफ़ा के वंशजों में से थे और वो नेशापुर और उसके आसपास के इलाक़े के शासक थे.
वह लिखते हैं, "क़ुतबुद्दीन, ने क़ाज़ी फ़ख़रुद्दीन की सेवा के साथ उनके बेटों की तरह, क़ुरान की शिक्षा हासिल की और घुड़सवारी और तीरंदाज़ी का भी प्रशिक्षण लिया. इसलिए कुछ ही दिनों में वह माहिर हो गए और उनकी तारीफ़ होने लगी."
ऐसा कहा जाता है कि क़ाज़ी फ़ख़रुद्दीन के निधन के बाद, उनके बेटों ने ऐबक को फिर से एक व्यापारी को बेच दिया, जो उन्हें ग़ज़नी के बाज़ार में ले आया जहां से सुल्तान ग़ाज़ी मुईज़ुद्दीन साम (सुल्तान मोहम्मद ग़ौरी) ने उन्हें ख़रीद लिया."
तबक़ात नासिरी में लिखा है कि 'हालांकि ऐबक में प्रशंसनीय और विशेष गुण थे, लेकिन उनकी एक कमज़ोरी के कारण उन्हें 'ऐबक शल' कहा जाता था, यानी ऐसा व्यक्ति जिसकी एक उंगली कमज़ोर हो. और वास्तव में उनकी एक ऊंगली टूटी हुई थी.
- हिंदू-मुसलमान की लड़ाई नहीं थी अकबर और महाराणा प्रताप के बीच
- 150 या 1200: भारत की ग़ुलामी कितने साल की?
तुर्की का ऐबक क़बीला और उसका मतलब
क़ुतबुद्दीन के बारे में कहा जाता है कि वह तुर्की के ऐबक क़बीले के थे, लेकिन उनके पिता और क़बीले के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है. इतिहास की किताबों में उनके जन्म की तारीख़ 1150 दर्ज है लेकिन निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है.
हालांकि, तुर्की भाषा में ऐबक का अर्थ "चंद्रमा का स्वामी या मालिक" होता है. और कहा जाता है कि इस क़बीले को यह उपनाम इसकी सुंदरता के कारण मिला था. यानी इस क़बीले के लोग महिलाएं और पुरुष दोनों ही बहुत ख़ूबसूरत होते थे. लेकिन क़ुतबुद्दीन के बारे में कहा जाता है कि वह इतने सुंदर नहीं थे.
लेकिन उर्दू के मशहूर शायर असदुल्लाह ख़ान ग़ालिब ने अपनी एक फ़ारसी ग़ज़ल में ख़ुद को तुर्की के साथ-साथ ऐबक भी कहा है और एक तरह से चाँद से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत होने की पुष्टि की है. ग़ालिब ने लिखा है:
ऐबकम अज़ जमा-ए अतराक
दर तमामी ज़ माहे दह चंदेम
उनका कहना है कि हम तुर्कों के ऐबक क़बीले से आते हैं इसलिए हम चाँद से दस गुना ज़्यादा ख़ूबसूरत हैं.
इसी तरह, दिल्ली में निज़ामुद्दीन औलिया के अनुयायी और महान कवि और विचारक अमीर ख़ुसरो ने भी उनके बारे में एक शेर लिखा है जिससे ऐबक की विशिष्टता का पता चलता है.
उन्होंने लिखा है:
गाह तातारी शवद गाह चाची
गाह ऐबक बुवद गाह लाची
यानी कभी में तातारी हूँ, तो कभी चाची (चेचनिया), कभी ऐबक हूं, तो कभी लाची. लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि ऐबक का इस्तेमाल और भी कई अर्थ में होता है, जिनमें से एक अर्थ ग़ुलाम भी है.
इसके अलावा प्रिय या आइडियल और सन्देश लेजाने वाले के लिए भी इसका इस्तेमाल होता है. इसी तरह, 13वीं सदी के प्रसिद्ध सूफ़ी शायर मौलाना जलालुद्दीन रूमी ने, इसका इस्तेमाल संदेशवाहक के रूप में किया है, जिसका अर्थ वफ़ादारी भी है.
गुफ़्त ऐ ऐबक बयावर आन रसन
ता बगोयाम मन जवाब बू-अल-हसन
इस शेर का अर्थ यह है, कि "'किसी ने कहा है कि उस संदेशवाहक को ले आओ ताकि मैं बू-अल-हसन को जवाब दूं."
हालांकि, मोइन अहमद निज़ामी का कहना है कि ऐबक का उदय तेज़ी से हुआ और उन्होंने जल्द ही अपनी बुद्धि और क्षमता के कारण मोइज़ुद्दीन का ध्यान आकर्षित कर लिया.
ग़ौरी के भारतीय अभियान और तराइन का युद्ध
उन्होंने बताया कि ऐबक को पहले ही अमीर आख़ोर बना दिया गया था, लेकिन जब मोहम्मद ग़ौरी ने भारत की ओर अपना अभियान शुरू किया, तो ऐबक ने तराइन के दूसरे युद्ध में अपना युद्ध कौशल दिखाया जिससे सुल्तान ग़ौरी की जीत हुई. और उन्हें दो महत्वपूर्ण सैन्य पदों कहारम' और 'समाना' का कमांडर बनाया गया.
तराइन के पहले युद्ध में मोहम्मद ग़ौरी की हार हुई थी लेकिन दूसरा युद्ध कई मायनों में निर्णायक रहा था.
कहा जाता है कि इसमें चाहमान यानी राजपूत राजा पृथ्वी राज चौहान की हार हुई थी. पहली हार के एक साल बाद, ग़ौरी, एक लाख से अधिक अफ़ग़ानों, ताज़िकों और तुर्कों की एक बड़ी सेना के साथ, मुल्तान और लाहौर के रास्ते तराइन (अब दिल्ली से सटे हरियाणा के करनाल जिले में तरोरी के क्षेत्र के रूप में जाना जाता है) पहुंचा, जहां पृथ्वी राज की तीन लाख घुड़सवार और तीन हज़ार हाथियों की सेना ने उसका रास्ता रोक दिया और एक भयंकर युद्ध हुआ.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रसिद्ध प्रोफ़ेसर और इतिहासकार मोहम्मद हबीब और ख़लीक अहमद निज़ामी ने अपनी किताब 'ए कॉम्प्रिहेंसिव हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया' (वॉल्यूम 5) में लिखा है कि इस संख्या में अतिशयोक्ति है क्योंकि उस दौर में किसी चीज़ के महत्व के लिए संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने का रिवाज था.
तराइन के दूसरे युद्ध (1192) में, मोहम्मद ग़ौरी ने यह रणनीति अपनाई कि उन्होंने अपनी सेना को पांच हिस्सों में विभाजित कर दिया और उन्हें अलग-अलग पोज़िशन पर तैनात कर दिया, जबकि 12 हज़ार सैनिकों की एक सेना को युद्ध में उतारा, जिसने योजना के तहत पीछे हटना शुरू कर दिया.
पृथ्वीराज की सेना ने यह सोचा कि वे जीत गए हैं और उन्होंने उन सब को मारने के लिए उनका पीछा किया.
लेकिन फिर चार जगहों पर अलग-अलग कमांडरों के नेतृत्व में तैनात सेना ने पृथ्वी राज की सेना को चारों तरफ़ से घेर लिया और पीछे हटने वाली सेना ने भी पीछे मुड़ कर लड़ना शुरू कर दिया. ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वी राज चौहान अपने हाथी से उतर कर, घोड़े पर सवार हुए और युद्ध के मैदान से पीछे हट गए.
मोइन अहमद निज़ामी ने आगे कहा कि इस युद्ध से उपमहाद्वीप में ऐबक के राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई और अंत में वह साल 1206 में मुईज़ुद्दीन ग़ौरी की मौत के बाद दिल्ली के सिंहासन पर जा पहुंचे.
लाहौर में ताजपोशी
इस पर सभी इतिहासकारों का एकमत है कि सुल्तान मुईज़ुद्दीन मोहम्मद ग़ौरी की आकस्मिक मृत्यु के कारण वह किसी को भी अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं कर सके थे, इसलिए उनके जीवन में उनका जो ग़ुलाम जहां जिस सर्वोच्च पद पर तैनात था वह वहां का शासक बन गया था, लेकिन ऐबक ने अपनी चतुराई और राजनीतिक रणनीति का इस्तेमाल करते हुए, वास्तविक उत्तराधिकारी का पद हासिल करने में सफल हो गए.
उनकी मृत्यु के बाद, उनके तीनों उत्तराधिकारी, दिल्ली के शासक क़ुतबुद्दीन ऐबक, मुल्तान के शासक नासीरुद्दीन क़बाचा और ग़ज़नी के शासक ताजुद्दीन यिल्दोज़ के बीच सत्ता के लिए लड़ाई शुरू हो गई. रहमा जावेद का कहना है कि उनका एक चौथा ग़ुलाम बख़्तियार ख़िलजी था जो इस रस्साकशी में शामिल नहीं हुआ और वह बिहार और बंगाल की तरफ़ चले गए और ख़ुद को वहां का शासक घोषित कर दिया.
ऐबक दूसरों पर हावी हो गया और 25 जून साल 1206 को लाहौर के क़िले में उनकी ताजपोशी हुई. लेकिन उन्होंने सुल्तान की उपाधि नहीं अपनाई और न ही अपने नाम से कोई सिक्का जारी किया और न ही अपने नाम से कोई ख़ुत्बा (धार्मिक उपदेश) पढ़वाया.
इस संबंध में मोइन अहमद निज़ामी का कहना है कि ऐसा इसलिए था क्योंकि वह एक ग़ुलाम थे और उन्हें आज़ादी नहीं मिली थी इसलिए उन्हें सुल्तान के रूप में स्वीकार किया जाना मुश्किल था.
उन्होंने साल 1208 में ग़ज़नी की यात्रा की, जहां से वे 40 दिनों के बाद वापस लौटे और इस दौरान ग़ज़नी में मोहम्मद ग़ौरी के एक उत्तराधिकारी ने उनकी स्वतंत्रता की घोषणा की और फिर उन्होंने साल 1208-09 में सुल्तान की उपाधि अपनाई. कुछ इतिहासकारों का कहना है कि इसके बाद ही उन्होंने अपना नाम क़ुतबुद्दीन (धर्म की धुरी) रखा.
इससे पहले ऐबक अपने स्वामी मोहम्मद ग़ौरी की विस्तारवादी रणनीति का पालन करते रहे और इस दौरान उन्होंने 1193 में अजमेर और इसके बाद चार हिंदू राज्यों सरस्वती, समाना, कहराम और हांसी पर विजय हासिल की और फिर कन्नौज के राजा जयचंद को चंदवार के युद्ध में हराकर दिल्ली को जीत लिया. एक साल के अंदर ही मोहम्मद ग़ौरी का शासन राजस्थान से लेकर गंगा-जमुना के संगम तक था.
ऐबक की आगे की विजयों के बारे में, मिन्हाज-उल-सिराज ने लिखा है, कि "कहराम से, क़ुतबुद्दीन मेरठ की ओर बढ़े और 587 हिजरी में इसे जीत लिया. मेरठ से निकल कर 588 हिजरी में दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया. 590 में, वह सुल्तान के सबसे क़रीबी थे और बनारस के राजा जयचंद की ओर बढ़े. साल 591 में, ठंकर पर विजय प्राप्त की, यहां तक कि इस्लामिक सल्तनत पूर्वी हिस्से में चीन तक पहुंच गई."
अजमेर में ढाई दिन के झोपड़े और दिल्ली में क़ुतुब मीनार का निर्माण
ऐबक को भी मध्य युग के किसी भी अन्य मुस्लिम शासक की तरह वास्तुकला का शौक़ था, इसलिए उन्होंने भारत में ग़ौरी शासनकाल की उपलब्धियों की यादगार के तौर पर, साल 1199 में दिल्ली में एक मीनार का निर्माण शुरू कराया. ग़ज़नी में भी इसी तरह के मीनारे हैं और ग़ौर प्रांत में हरि नदी के किनारे जाम-ए-मीनार इससे पहले बन चुके थे.
उन्होंने क़ुतुब मीनार के साथ-साथ कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद की नींव भी रखी, जबकि अजमेर की विजय के बाद उन्होंने एक मस्जिद का निर्माण कराया, जिसे ढाई दिन का झोंपड़ा कहा जाता है, इसे उत्तर भारत में बनी पहली मस्जिद कहा जाता है, जो आज भी मौजूद है. वास्तव में, इसे जल्दबाज़ी में ढाई दिन में बनाया गया था, लेकिन बाद में इसपर वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान के हेरात के रहने वाले वास्तुकार अबू बक्र ने मस्जिद का नक़्शा या डिजाइन तैयार किया, जिसे भारत में बना इस्लामिक वास्तुकला शैली का पहला नमूना कहा जाता है.
इसी तरह क़ुतबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार का निर्माण कराया, जो उनके बाद शम्सुद्दीन इलतुतमिश के समय में बनकर तैयार हुई थी. ईंटों से निर्मित, यह दुनिया की सबसे ऊंची मीनार है जिसमें पांच मंजिलें हैं और उन पर कुरान की आयतें खुदी हुई हैं. उसी समय, ऐबक ने क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण कराया, जिसके अवशेष अभी भी क़ुतुब मीनार के पास देखे जा सकते हैं.
इतिहासकार रहमा जावेद ने बीबीसी के साथ बातचीत में बताया कि जितने भी फ़ारसी स्रोत हैं उनमें इसे जामा मस्जिद कहा गया है. उन्होंने कहा कि यह एक बड़ी मस्जिद थी जिसे कबात-उल-इस्लाम यानी इस्लाम की पनाहगाह या इस्लाम का गुंबद नाम दिया गया था, लेकिन सर सैयद अहमद ख़ान ने अपनी किताब 'आशार-उस-सनादीद' में इसे क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का नाम दिया है.
रहमा जावेद राशिद ने बताया कि जब मंगोलों ने इस्लामी दुनिया पर आक्रमण किया, तो भारत की मुस्लिम सल्तनत इससे सुरक्षित थी और दुनिया भर के विद्वान और हुनर इधर का रुख़ कर रहे थे और यही वजह है कि मिन्हाज-उल-सिराज ने दिल्ली को क़ुव्वत-उल-इस्लाम, यानी इस्लाम की पनाहगाह भी कहा है.
इस मस्जिद में इंडो-इस्लामिक वास्तुकला शैली प्रमुख है और इसे भारतीय कारीगरों द्वारा बनाया गया था जो अरबी लिपि से अपरिचित थे लेकिन पत्थरों पर नक़्क़ाशी करने में कुशल कारीगर थे. इसमें जैन मंदिरों के अवशेष भी दिखाई देते हैं जिनका इस्तेमाल स्तंभों के रूप में किया गया है और इसमें मूर्तियां भी बनी हुई हैं, लेकिन उनकी आकृति को मिटा दिया गया है. यह मस्जिद भी शम्सुद्दीन इलतुतमिश के शासनकाल में बनकर तैयार हुई थी.
पोलो और मौत
साल 1208-09 में सुल्तान बनने के बाद ऐबक ने अपना ज़्यादातर समय लाहौर में बिताया. बरसात के मौसम के बाद जब हलकी सर्दी आई, तो वह अपने बहादुर योद्धाओं और सेनापतियों के साथ पोलो खेल रहे थे, तभी घोड़े की काठी टूट गई और वह ज़मीन पर गिर पड़े.
मिन्हाज-उल-सिराज ने इस बारे में इस तरह लिखा है, कि "जब मौत आई, तो 607 हिजरी (1210 ई.) में, पोलो खेलते हुए, वह घोड़े से गिर गया, घोड़ा उस पर आ गिरा, काठी के सामने का उठा हुआ हिस्सा क़ुतबुद्दीन की छाती में घुस गया और उसकी मृत्यु हो गई."
क़ुतबुद्दीन को लाहौर में ही दफ़नाया गया था और समय बीतने के साथ उनका मक़बरा अभी भी लाहौर में मौजूद है जहां हर साल उर्स भी मनाया जाता है.
लाख बख़्श
मोइन अहमद निज़ामी बताते हैं कि "उनके दौर के और बाद के सभी स्रोतों ने ऐबक के सैन्य कौशल के अलावा, उनकी वफ़ादारी, उदारता, साहस और उनके न्याय जैसे गुणों की प्रशंसा की है. उनकी उदारता के कारण उन्हें लाख बख़्श (लाख देने वाला) के रूप में जाना जाता था. 17वीं सदी के अंत में दक्कन में उनकी दरियादिली के क़िस्से ख़ूब प्रचलित थे. उस समय के उदार लोगों को ऐबक कहा जाता था."
कहा जाता है कि दिल्ली में ऐसा कोई नहीं था जो उनकी दरियादिली से वंचित रहा हो. उनके बारे में कहा जाता है कि वह कुरान के हाफ़िज़ थे यानी उन्होंने क़ुरान को कंठस्थ कर लिया था और कुरान को इतने अच्छे स्वर में पढ़ते थे कि उन्हें कुरान का पाठ करने वाला कहा जाता था.
ऐबक ने उदारता का जो पैमाना क़ायम किया था, उनके बाद कोई भी उसपर खरा नहीं उतरा. इसलिए मोइन अहमद निज़ामी कहते हैं कि ऐबक को उदारता का पर्याय मानना वास्तव में एक ऐसी श्रद्धांजलि है जो किसी अन्य शासक को नहीं मिली है. युद्धों और अभियानों में जीवन बिताने के बावजूद, उन्होंने इतिहास और आने वाली पीढ़ियों पर जो छाप छोड़ी, वह उनका न्याय और उनकी उदारता थी."
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)