लोकसभा चुनाव 2019: बांकुरा लोकसभा सीट के बारे में जानिए
नई दिल्ली: पश्चिम बंगाल की बांकुरा लोकसभा सीट से मौजूदा सांसद तृणमूल कांग्रेस की नेता और अभिनेत्री मून मून सेन हैं। साल 2014 के चुनाव में उन्होंने सीपीएम के आचारिया बासुदेब को 98,506 वोटों के मार्जिन से हराया। आचारिया 1980 से लेकर 2014 तक लगातार 9 बार सांसद रहे थे। इस जीत के साथ मून मून पहली बार संसद पहुंचीं। 2014 के चुनाव में इस सीट पर कुल 1,503,812 लोगों का नाम मतदाता सूची में था। जिनमें 775,893 पुरुष और 727,919 महिलाएं थीं। पिछले चुनाव में यहां 82 फीसदी वोट पड़े यानी कुल 1,236,319 लोगों ने अपने मत का प्रयोग किया और श्रीमती देव वर्मा यानी उर्फ मून मून सेन को अपना सांसद चुना।
बांकुरा मेदिनीपुर का भाग है। 2011 की भारत सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार बांकुरा माओवादियों का गढ़ रहा है। यही कारण है कि यह आज भी रेड कॉरिडोर का हिस्सा है। यह क्षेत्र हमेशा से ही विकास की मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाया। इसे यहां का दुर्भाग्य कहें या फिर खराब राजनीति, लेकिन सच तो यह है कि बांकुरा को 2006 में सबसे ज्यादा पिछड़े जिलों की सूची में रखा जा चुका है। इस पिछड़ी हुई लोकसभा सीट की कुल जन संख्या 2,128,700 है। इनमें 88.74% लोग ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, जबकि 11.26 फीसदी लोग शहरी इलाकों में। यहां पर 29.12 प्रतिशत लोग अनुसूचित जाति के हैं, जबकि 17.17 प्रतिशत लोग अनुसूचित जन जाति के हैं।
64 वर्षीय मून मून सेन का सदन में प्रदर्शन बेहद खराब रहा। सदन के अंदर परिचर्चा में भाग लेने के मामले में देश के सभी सांसदों का औसत जहां 63.8 था और बंगाल के सांसदों का औसत 32.2 था, वहीं मून मून सेन ने मात्र 1 डिबेट में हिस्सा लिया। प्राइवेट मेंबर बिल तो मानों उन्होंने छुआ ही नहीं। उन्होंने मई 2014 से लेकर दिसंबर 2018 तक एक भी सवाल पूछना मुनासिब नहीं समझा। जबकि राष्ट्रीय औसत 273 का है। उनकी सदन में उपस्थिति 67 प्रतिशत रही। सांसद निधि की बात करें तो मून मून सेन को 25 करोड़ रुपए आवंटित किये गये, जिसमें से विभिन्न विकास कार्यों पर खर्च करने के बाद दिसंबर 2018 तक उनकी निधि में 4.74 करोड़ रुपए बकाया थे।
बांकुरा के राजनीतिक इतिहास पर नज़र डालें तो ऐसा लगता है कि यहां के लोगों को लाल झंडे के अलावा किसी पर भरोसा ही नहीं है। 1952 से लेकर 1967 तक यहां पर कांग्रेस ने शासन किया। 1967 में कम्युनिस्ट पार्टी के खाते में यह सीट चली गई, लेकिन 1971 और 1977 के चुनाव में यहां से क्रमश: कांग्रेस और भारतीय लोकदल के प्रत्याशी जीते। लेकिन 1980 के बाद से 2014 तक इस सीट पर लाल झंडा मजबूती के साथ लहराता रहा। बासुदेब आचारिया 9 बार लगातार यहां से सांसद चुने गये। 2014 में जब उनके विजय रथ पर ब्रेक लगा तब उनका वोट बैंक सिमट कर 31 प्रतिशत रह गया था। जबकि 2009 और उससे पहले वोट प्रतिशत 47 प्रतिशत से ज्यादा रहा। जाहिर है 2019 में सीपीएम इस सीट को वापस पाने की पुरजोर कोशिशें करेगी। ऐसे में मून मून सेन को फूंक-फूंक कर कदम रखना होगा। यही नहीं ममता बनर्जी के हर राजनीति कदम का असर हर उस सीट पर पड़ेगा, जहां तृणमूल का कब्जा है। यानी कुल मिलाकर यह सीट तृणमूल के पास बरकरार रहेगी, यह सीट के सांसदों के काम के साथ-साथ राज्य की राजनीतिक गतिविधियां तय करेंगी।
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