क्विक अलर्ट के लिए
अभी सब्सक्राइव करें  
क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

लोकसभा चुनाव 2019: असल में कौन लड़ रहा है 'बैटल ऑफ़ बक्सर'?

संसदीय प्रणाली के तहत देखा जाए तो बक्सर को हर तरह का प्रतिनिधित्व मिला है. लेकिन शहर में घूमकर ऐसा नहीं लगता कि प्रतिनिधि बदलने से यहां की सूरत भी बदली है.

By नीरज प्रियदर्शी
Google Oneindia News
NEERAJ PRIYADARSHI/BBC

बिहार की राजधानी पटना से क़रीब 150 किमी दूर बक्सर में प्रवेश के साथ ही एनएच 84 पर लगे बोर्ड पर लिखा मिलता है-"महर्षि विश्वामित्र की नगरी में आपका स्वागत है (नगर परिषद, बक्सर के सौजन्य से).

पौराणिक कथाओं के अनुसार हिन्दुओं के भगवान राम की शिक्षास्थली है ये शहर. मगर भारत में जितनी चर्चा राम लला की जन्मस्थली अयोध्या की होती है, बक्सर की नहीं होती. जबकि हिन्दुस्तान के इतिहास में भी बक्सर का ज़िक्र कई बार हुआ है.

1539 ई. में हुमायूं और शेरशाह सूरी के बीच बक्सर के चौसा में हुए युद्ध में हुमायूं को पराजित कर शेरशाह ने सुल्तान-ए-आदिल की उपाधि धारण की और बंगाल तथा बिहार के सुल्तान बन गए.

बक्सर में ही 1764 ई में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी के हैक्टर मुनरो तथा मुग़ल शासकों और नवाबों की संयुक्त सेना के बीच युद्ध हुआ था. जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई. फलस्वरूप तत्कालीन बिहार तथा बंगाल के दीवानी और राजस्व अधिकार कंपनी के हाथ में चले गए. कहा जाता है कि भारत में अंग्रेजी हुकूमत की नींव इसी युद्ध से बनी.

पुराने शाहाबाद का एक अनुमंडल बक्सर 1952 में हुए पहले आम चुनाव में शाहाबाद उत्तर-पूर्वी लोकसभा क्षेत्र में था. डुमरांव के महाराजा कमल बहादुर सिंह ने इस क्षेत्र का पहला प्रतिनिधित्व किया. 1957 में यह बक्सर लोकसभा क्षेत्र बन गया. महाराजा कमल बहादुर सिंह कांग्रेस की कलावती देवी को हराकर दोबारा सांसद बने.

अगर बक्सर के चुनावी इतिहास की बात करें तो 1962 से लेकर 1984 तक, केवल 1977 को छोड़कर यहां से कांग्रेस जीतती आई. इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए चुनाव में समाजवादी नेता रामानंद तिवारी ने रिकार्ड मतों से जीत हासिल किया था. उन्हें 65 फीसदी वोट मिले थे.

लेकिन 1989 में यहां से भाकपा के तेज नारायण सिंह ने लाल झंडा गाड़ दिया. दो साल बाद 1991 में फिर से भाकपा को जीत मिली. मगर बक्सर में वामपंथ अधिक दिनों तक नहीं चला.

NEERAJ PRIYADARSHI/BBC

1996 से लेकर 2004 तक लगातार चार बार चुनाव जीत कर भाजपा के लाल मुनी चौबे ने रिकार्ड बना दिया. 2009 में पहली बार यहां से राजद जीती. जगदानंद सिंह के रूप में बक्सर को दूसरी बार समाजवादी प्रतिनिधित्व मिला. फ़िलहाल यहां से भाजपा के अश्विनी चौबे सांसद हैं.

इस तरह संसदीय प्रणाली के तहत देखा जाए तो बक्सर को हर तरह का प्रतिनिधित्व मिला है. लेकिन शहर में घूमकर ऐसा नहीं लगता कि प्रतिनिधि बदलने से यहां की सूरत भी बदली है.

वैसे तो लोग अब इसे मिनी काशी कहने लगे हैं. मगर काशी और बक्सर में समानता ढूंढ़ने पर सिर्फ़ यही मिला कि यहां भी गंगा है, वहां भी गंगा है. यहां भी भाजपा है, वहां भी भाजपा है. पंडित भी दोनों जगह ख़ूब हैं.

'तनाव' का शहर बक्सर

आज का बक्सर "तनाव" का शहर बन कर रह गया है. यहां "तनाव" होते रहता है. अभी पिछले हफ़्ते ही तनाव था. आने वाली 15 तारीख़ को भी तनाव है. और कहा जा रहा है कि इस बार के तनाव में सबसे अधिक भीड़ जुटने वाली है. हर बार तनाव के दौरान शहर की ट्रैफिक पस्त हो जाती है. सड़कों पर तनाव वाले लोगों का रैला होता है. एसपी, जज, कलक्टर कोई हो, तनाव में सब फंस जाते हैं. लेकिन इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता.

ये भी पढ़ें-इस बार लोकसभा चुनाव में ये चीज़ें पहली बार होंगी

NEERAJ PRIYADARSHI/BBC

ये कैसा "तनाव" है? क्यों होता है? लोगों की इतनी भीड़ शहर में जुटकर करती क्या है?

बक्सर के स्थानीय पत्रकार कपींद्र किशोर तनाव के बारे में बताते हैं, "तनाव मतलब हिंदू धर्म के मुताबिक़ मुंडन संस्कार होता है. मुंडन के बाद परिजन एक धागे को गंगा के इस पार से उस पार ले जाकर तानते हैं. वही तनाव है."

लेकिन अगले तनाव के एक दिन पहले यानी 14 मई को बक्सर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी रैली होनी है. पिछले तनाव में जुटी भीड़ देखकर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि प्रधानमंत्री की रैली पर तनाव का असर पड़ सकता है. क्या मोदी की रैली तनाव से प्रभावित होगी?

कपींद्र कहते हैं, "नहीं, अभी तक की जानकारी के हिसाब से प्रशासन ने इस बार के तनाव को गंगा के उस पार यूपी के बलिया साइड में आयोजित कराने का फैसला किया है. लोगों को शहर में प्रवेश से पहले ही रास्ता डायवर्ट कराके उस पार भेजने की योजना है."

ये भी पढ़ें-नीतीश कुमार ने गुप्तेश्वर पांडेय को क्यों पसंद किया

कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की रैली के बाद से बक्सर की चुनावी राजनीति अपने असली रंग में आएगी. क्योंकि उसके पहले तक बाहर के नेताओं का यहां जमावड़ा लग जाएगा और प्रचार कार्य गति पकड़ेगा. बक्सर को फिर से मिनी काशी बनाया जाएगा. क्योंकि काशी के सांसद ख़ुद बक्सर की जनता से वोट मांगने आएंगे.

NEERAJ PRIYADARSHI/BBC

'बैटल ऑफ बक्सर'

इस बार खेल बैटल ऑफ़ बक्सर बनता जा रहा है, जिस पर वरिष्ठ स्थानीय पत्रकार बब्लू श्रीवास्तव कहते हैं कि ये तो तभी शुरू हो गया था जब दोनों पार्टियों ने उम्मीदवारों के नाम की घोषणा तक नहीं की थी.

वे कहते हैं, "पहले टिकट पाने के लिए एक बैटल हुआ, फिर टिकट पाकर लोग अपनी-अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं. कहने का मतलब कि उम्मीदवारों के नामों की घोषणा से पहले यहां दर्जनों दावेदार थे. अब जो हैं वो या तो किसी के साथ हैं या फिर अपने ही लोगों के ख़िलाफ."

बब्लू इसको और स्पष्ट करते हुए कहते हैं, "ददन पहलवान पिछली बार लोकसभा के प्रत्याशी थे. इस बार भी टिकट के लिए उन्होंने कम दम नहीं लगाया. मगर सीट भाजपा के पाले में चली गई. अब पहलवान बतौर जदयू विधायक भाजपा के अश्विनी चौबे के साथ हैं. वैसे ही रवि राज जो स्थानीय भाजपा का एक मज़बूत स्तंभ थे, टिकट नहीं मिलने के कारण विरोध में आ गए हैं. प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लो.) के कैंडिडेट के तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं. ऐसे और भी नेता/कार्यकर्ता इस बैटल में शामिल हैं जो भले चुनाव न लड़ रहे हों, मगर लड़ाई में हैं."

इसके साथ ही बल्लू बताते हैं कि बक्सर के लिए असल लड़ाई भाजपा के अश्विनी चौबे और राजद के जगदानंद सिंह के बीच में हैं. पिछले लोकसभा में भी लड़ाई इन्हीं दोनों के बीच थी. जगदानंद सिंह उस चुनाव में क़रीब एक लाख 32 हज़ार वोटों से हार गए थे.

जगदानंद सिंह के बेटे सुधाकर बताते हैं कि इस बार बक्सर का चुनाव पिछली बार से थोड़ा अलग नज़र आ रहा है. इस बार लोगों के मन में असंतोष है. यहां के मौजूदा सासंद के प्रति नाराज़गी है.

ये भी पढ़ें-बिहार: आख़िर क्या है नरकंकालों की तस्करी का सच बीजेपी राज में अयोध्या बने फ़ैज़ाबाद का इतिहास

वे कहते हैं, "लोग में ग़ुस्सा है, काम हुआ नहीं है. पिताजी के समय जो काम शुरू किए गए थे वो भी ठप कर दिए. एम्स को यहां लेकर आने की बात थी, वो भागलपुर लेकर चले गए."

सुधाकर सिंह ख़ुद भाजपा के टिकट पर रामगढ़ विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं. लेकिन उस वक्त उन्हें अपने पिता का साथ नहीं मिला. जगदानंद सिंह ने अपनी पार्टी राजद के उम्मीदवार को समर्थन दे दिया. सुधाकर वो चुनाव हार गए थे. लेकिन इस चुनाव में वो ख़ुद अपने पिता को जीताने के लिए रात-दिन कैंपेन में लगे हैं.

NEERAJ PRIYADARSHI/BBC

हालांकि उनके पिता ने उनके विधायक बनने में साथ नहीं दिया था, लेकिन वे अपने पिता को सांसद बनाना चाहते हैं (जगदानंद सिंह इसके पहले पंद्रहवीं लोकसभा में बक्सर लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं).

सुधाकर कहते हैं, "परिस्थितियां हर बार अलग होती हैं. मैंने भाजपा के लिए काम किया है. लेकिन उन्होंने मुझे पार्टी से निष्कासित कर दिया. और रही बात हम दोनों पिता-पुत्र की बात तो हम दोनों आदर्शों वाली राजनीति करते हैं."

इसी में वे आगे जोड़ते हैं कि हमारे पास समाज के आख़िरी तबक़े का समर्थन है. वो बांटने की राजनीति कर रहे हैं. हम लोगों को जोड़ रहे हैं.

ब्राह्मणों का वर्चस्व

बक्सर की स्थानीय राजनीति के जानकार कहते हैं कि यहां जाति की राजनीति हर बार हावी रहती है. बक्सर की क़रीब 18 लाख आबादी में से ब्राह्मणों और यादवों की हिस्सेदारी लगभग बराबर है. साढे तीन लाख के आसपास ब्राह्मण मतदाता हैं. लगभग इतने ही यादव भी हैं. तीसरे नंबर पर राजपूत भले हो ना हों, मगर उनका प्रभाव ज़रूर है. राजपूत क़रीब एक लाख 68 हज़ार हैं.

बब्लू उपाध्याय बताते हैं कि यहां ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है. किसी को भी जीता सकते हैं, हरा सकते हें. यही कारण है कि जितने भी प्रत्याशी खड़े हुए हैं, सब अपने साथ दस ब्राह्मणों को लेकर चल रहे हैं.

NEERAJ PRIYADARSHI/BBC

रामरेखा घाट पर गंगा आरती करने आए एक पंडित लाला बाबा कहते हैं, "केवल ब्राह्मण होने से किसी को वोट नहीं मिलता. काम भी लोग देखते हैं. अब अगर रामरेखा घाट को ही ले लीजिए तो यहां की हालत देखकर आप कैसे कह सकते हैं कि काम हुआ है. नमामी गंगे से लेकर क्या कुछ नहीं हुआ, लेकिन घाट की सूरत कहां बदल पायी! एक अच्छा घाट जहां आप नहा सकते हैं, बैठ सकते हैं, वो भी अंग्रेजों का ही बनवाया हुआ है. ये लोग मरीन ड्राइव बना रहे थे, आजतक लाइट भी नहीं लगी वहां."

आकंडों के मुताबिक़ बक्सर में नमामी गंगे परियोजना के तहत 66 करोड़ रुपए का प्रस्ताव पास हुआ है. अब तक मात्र 26 करोड़ रुपए ख़र्च किए गए हैं.

बक्सर के चौगाईं के रहने वाले अविनाश तिवारी कहते हैं, "हमलोग इंतज़ार कर रहे हैं कि कब सांसद महोदय हमारे इलाक़े में वोट मांगने जाएंगे. क्योंकि जीतने के बाद कभी नहीं गए हैं."

साथ ही वे अश्विन चौबे को ब्राह्मणों के वोट मिलने पर कहते हैं, "हमारे पास दूसरा विकल्प भी तो नहीं है. हम वैसे नेता को अपना प्रतिनिधि क्यों बनाएं जो लालटेन की पार्टी का है. हमनें लालटेन का दौर देखा है. हम फिर से उस दौर में नहीं जाना चाहते."

सांसद बनने के बाद अश्विनी चौबे ने क्या काम किया है? आम लोगों का जवाब हमें मिल चुका था. बीबीसी नें अश्विनी चौबे से बात करने की कोशिश की पर असफल रहे. क्योंकि उनकी ओर से (PA द्वारा) कहा गया, "बीबीसी वाले नेगिटिव सवाल ज्यादा करते हैं. फ़िलहाल उन सवालों के लिए उनके पास वक़्त नहीं है, चुनाव में व्यस्त हैं."

अख़बारों की कतरन देखने से मालूम चला कि नवंबर 2017 में सीताराम विवाहोत्सव के दौरान सीढ़ी पर चढ़ते हुए अश्विनी चौबे का पैर टूट गया था. सदर अस्पताल ले जाया गया तो वहां की एक्सरे मशीन ख़राब थी. फिर आनन-फानन में दिल्ली जाकर अश्विनी चौबे ने अपने पैर का इलाज कराया. जबकि चौबे उस समय भी केंद्रीय स्वास्थ राज्य मंत्री ही थे.

ये भी पढ़ें-ग्राउंड रिपोर्ट: महादलित टोला जो CM के ख़िलाफ़ केस लड़ रहा है

इस घटना पर ख़ूब विवाद हुआ था. शहनवाज़ हुसैन से जब पत्रकारों ने अश्विनी चौबे को लेकर सवाल किया तो उनका यह बयान अख़बारों की सुर्खि़यां बना था कि "अश्विनी चौबे अभी हनीमून पीरियड पर हैं."

घटना के डेढ़ साल बाद भी बक्सर, सदर अस्पताल का हाल जस का तस है. सोमवार की रात क़रीब 12 बजे सड़क दुर्घटना के दो घायल आए. एक युवक गंभीर रूप से घायल था लेकिन इलाज के लिए परिजन डॉक्टर खोज रहे थे और बाद में उसकी मौत हो गई.

NEERAJ PRIYADARSHI/BBC

बक्सर केवल ऐतिहासिक रूप से धार्मिक नहीं है. आज भी यहां के साधु-संत प्रसिद्ध हैं. मौजूदा समय में बिहार के सबसे बड़े संत कहे जाने वाले जीयर स्वामी महाराज का पहला आश्रम और कार्यस्थली बक्सर ही रहा है. इसके अलावा महंत राजा राम शरण दास जी महाराज जो सीताराम विवाह आश्रम चलाते हैं, उनकी भी इलाके में अच्छी पैठ है.

कपीन्द्र किशोर कहते हैं, "जीयर स्वामी तो अब सिर्फ़ नेताओं के साथ रहते हैं, बड़े संत हो गए हैं. लेकिन महंत राजा राम शरण दास स्थानीय स्तर पर अपनी पैठ बनाए हैं. कुछ लोगों के उकसाने पर टिकट के लिए भी दावेदारी भी ठोक रहे थे. लेकिन फिर उन्हें समझा बुझा कर शांत करा लिया गया."

जब कपींद्र से पूछा गया कि क्या इस चुनाव में भी धर्म का सहारा लिया जा रहा है?, तब कपीन्द्र कहते हैं," अभी ऐसा कुछ लग नहीं रहा है. लेकिन एक बात तो तय है कि जिनका साधु-संतो से अधिक जुड़ाव है, जिनके साथ वो तस्वीरें खिंचवाते हैं, आशीर्वाद लेने जाते हैं, उनका साथ तो वे पाना ही चाहेंगे."

बक्सर की राजनीति में सबसे नई धार्मिक ख़बर ये है कि अश्विनी चौबे हाल ही में जीयर स्वामी के पास गए थे और अपने लिए समर्थन की मांग की थी. लेकिन जीयर स्वामी ने यह कहकर मना कर दिया कि "हम भगवान के प्रचारक हैं. हमारे लिए जगदानंद और आप दोनों बराबर हैं."

BBC Hindi
Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
Lok Sabha Elections 2019: Who is actually fighting 'Battle of Buxar'?
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X