लोकसभा चुनाव 2019: महागठबंधन के चक्रव्यूह की काट तलाशने में जुटी भाजपा
नई दिल्ली। केंद्र की सत्ता की दावेदार किसी भी पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश सबसे महत्वपूर्ण राज्य होता है. यहां लोक सभा की अस्सी सीटें हैं. इसीलिए कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है. 2014 में भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने 80 में 73 सीटें जीत कर केंद्र की सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत की थी. अकेले भाजपा के हिस्से 71 सीटें आयी थीं. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी तक दावा कर रहे हैं कि इस बार उनकी पार्टी प्रदेश में 74 से ज्यादा सीटें जीतेगी. दावा करने में क्या जाता है. हकीकत वे भी जानते हैं कि इस बार उत्तर प्रदेश का पूरा राजनैतिक परिदृश्य बदला हुआ है. भाजपा को सबसे कठिन लड़ाई यहीं लड़नी है. यह उसके लिए उस चक्रव्यूह की तरह है जिसे भेदने की कारगर रणनीति वह अंतिम क्षण तक तलाशती रहेगी.
2017 के बाद बदली स्थितियाँ
2014 के लोक सभा चुनाव के बाद भजपा ने 2017 का विधान सभा चुनाव भी बड़े बहुमत से जीता. उसके बाद ही स्थितियाँ बदलनी शुरू हो गई थीं. 2014 और 2017 में भाजपा को मोदी लहर और परिवर्तन की लहर का भरपूर फायदा मिला. मुकाबले भी तिकोने-चौकोने थे. कांग्रेस यूपी में तीन दशक से हाशिए पर है. असली मुकाबला सपा और बसपा से था और विशिष्ट जातीय वोट बैंक वाले ये दोनों दल अलग-अलग लड़ रहे थे. भाजपा के लिए यह दूसरा बड़ा लाभ था. 2019 में ये दोनों लाभकारी स्थियाँ बदली हुई हैं. आज भी सर्वाधिक लोकप्रिय होने के बावजूद नरेंद्र मोदी का जादू कम हुआ है. पांच साल सरकार चलाने के बाद खाते में असफलताएँ भी हैं. प्रदेश में दो साल पूरे कर चुकी योगी सरकार का प्रदर्शन भी जनता की कसौटी पर है. और, सबसे बड़ी चुनौती यह है कि सपा-बसपा का मजबूत गठबंधन उसके सामने चट्टान की तरह खड़ा है, जिसमें अजित सिंह का रालोद भी शामिल हो गया है. सपा-बसपा गठबंधन कितनी बड़ी चुनौती है, यह भाजपा गोरखपुर, फूलपुर और कैराना लोक सभा उप-चुनावों में देख चुकी है. तीनों महत्त्वपूर्ण लोक सभा सीटें और नूरपुर विधान सभा सीट भी वह गठबंधन से हार गयी. उसके बाद से ही उसने उत्तर प्रदेश का चक्रव्यूह भेदने की नई रणनीति पर काम शुरू कर दिया था. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कमान सम्भाले हुए हैं.
मजबूत जातीय गठजोड़ से मुकाबला
सपा-बसपा गठबंधन का अर्थ है जाटव-प्रधान दलित जातियों, यादव-बहुल पिछड़ी जातियों और मुसलमानों का मजबूत वोट बैंक, जो यूपी में बहुत भारी पड़ता है. इसलिए भाजपा ने 2014 से ही दलित-पिछड़ी जातियों के अंतर्विरोधों का इस्तेमाल किया. पटेल-कुर्मियों का अपना दल और राजभरों की सुहेलदेव राजभर समाज पार्टी से तालमेल किया. ये दोनों ही सहयोगी दल भाजपा से नाराज चल रहे थे. प्रदेश सरकार में मंत्री ओमप्रकाश राजभर तो पिछले एक साल से अपनी ही सरकार की खुली आलोचना कर रहे थे. हाल के दिनों में अमित शाह ने दोनों सहयोगी दलों से बात कर उनकी नाराजगी दूर कर दी. चुनाव आचार संहिता लागू होने से ठीक पहले योगी सरकार ने अपना दल के नौ नेताओं और राजभर पार्टी के आठ नेताओं को प्रदेश सरकार के विभागों और निगमों में राज्यमंत्री स्तर के पद बाँट डाले. इस तरह भाजपा ने यूपी के अपने सहयोगी दलों को प्रसन्न कर दिया है. सीटों की उनकी मांग पर भी जल्दी फैसला हो जाने की उम्मीद है. सपा-बसपा के जातीय गठजोड़ में आरक्षण की दरार डाल कर भाजपा उसका लाभ लेना चाहती थी. उसने पहल की थी कि पिछड़ा जातियों के 27 फीसदी आरक्षण में अत्यंत पिछड़ी जातियों के लिए अलग से (कोटे के भीतर कोटा) आरक्षण तय कर दिया जाए. इस तरह वह उन अति-पिछड़ी जातियों का समर्थन पाने की उम्मीद कर रही थी जो आरक्षण के लाभ से वंचित रहे आये. लेकिन खुद भाजपा के भीतर और सहयोगी दलों के कारण उसे यह रणनीति फिलहाल छोड़नी पड़ी है.
गठबंधन में दरार की तलाश
समाजवादी पार्टी को कमजोर करने के लिए भाजपा ने उसके पारिवारिक कलह को खूब हवा दी. शिवपाल यादव को खूब बड़ी कोठी आवण्टित की तो उनकी नयी पार्टी बनवाने के पीछे भाजपा का हाथ होने की सुगुबागहटें भी उड़ी ही. शिवपाल समाजवादी पार्टी खड़ी करने में मुलायम के साथी रहे हैं. इसलिए भाजपा का आकलन है कि शिवपाल जितनी ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेंगे, गठबन्धन को उतना ही नुकसान और भाजपा को लाभ होगा.पूर्व की मायावती और अखिलेश सरकारों को भ्रष्ट साबित करने की कोशिशें भी लगातार योगी सरकार कर रही है. उनके करीबी अधिकारियों के यहाँ छापे और जाँच बैठाना इसी का हिस्सा हैं. उनके मुकाबले योगी और मोदी सरकार की धवल छवि भी बनायी जा रही है. कांग्रेस गठबंधन का हिस्सा नहीं बनी या नहीं बनने दी गयी, इससे भाजपा को लाभ होगा यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता. नुकसान भी होगा क्योंकि कांग्रेस प्रत्याशी भाजपा के सवर्ण वोट, विशेषकर ब्राह्मण वोटों में सेंध लगा सकते हैं. इसीलिए प्रत्याशी चयन में जातीय समीकरण बहुत महत्त्वपूर्ण होगा.
हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और कार्यकर्ताओं की फौज
पूरा चुनावी संग्राम उग्र हिंदुत्त्व, राष्ट्रवाद और जातीय गणित पर लड़ा जाना है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पिछड़ी जाति कार्ड का इस्तेमाल तो होना ही है. पुलवामा में सीआरपीएफ काफिले पर हमले और बालाकोट के आतंकी शिविर पर वायु सेना की जवाबी कार्रवाई के बाद भाजपा मोदी की मजबूत नेता की छवि और राष्ट्रवादी लहर पर सवार है. जातीय समीकरण पर यह कितना हावी रहेगी, कहना मुश्किल है. भाजपा और संघ परिवार ने उत्तर प्रदेश की सभी अस्सी सीटों पर कार्यकर्ताओं-स्वयंसेवकों की फौज उतार दी है. ये कार्यकर्ता मतदाताओं के घर-घर जाकर फीडबैक ले रहे हैं और ऊपर तक पहुँचा रहे हैं. दिसम्बर 2018 में गुजरात के पूर्व गृह मंत्री गोवर्धन जड़फिया को इसी जिम्मेदारी के साथ यूपी में तैनात किया गया है.बूथ स्तर पर सम्पर्क अभियान अलग से चल रहा है. वधशालाओं पर रोक से उत्तर प्रदेश के गांवों में आवारा पशुओं की समस्या विकराल हुई है. वे फसलें नष्ट कर रहे हैं और किसानों में भारी नाराजगी है. इस फीडबैक के बाद योगी सरकार ने करोड़ों रु जारी कर जिलों में बड़े पैमाने पर गोशालाएँ बनाने की काम तेज किया है. ग्रामीणों की यह नाराजगी भाजपा को मुश्किल में डालने वाली है. उत्तर प्रदेश के विभिन्न अंचलों में मतदाताओं के जातीय-धार्मिक अलग-अलग समीकरण हैं. अंचलवार अलग-अलग रणनीतियों पर काम चल रहा है. उत्तर प्रदेश के सबसे कठिन मोर्चे पर भाजपा और संघ ने जमीनी स्तर पर अपनी पूरी ताकत झौंकी हुई है. बाकी दारमोदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर होगा.