लोकसभा चुनाव 2019: 'मदमस्त हाथी' जैसे भारतीय चुनावों में क्या होता है ख़ास?
भारत के लोग उत्साही मतदाता होते हैं. 2014 में हुए पिछले आम चुनावों में 66% मतदान हुआ था. यह पहली बार 1951 में हुए चुनावों के मतदान प्रतिशत (45%) से कहीं अधिक था.
गुरुवार को भारत के आम चुनाव के पहले चरण में करोड़ों मतदाताओं ने वोट दिए.
नई लोकसभा यानी संसद के निचले सदन के लिए मतदान की प्रक्रिया 11 अप्रैल से शुरू होकर 19 मई तक चलेगी. वोटों की गिनती 23 मई को होगी.
भारत में 90 करोड़ मतदाता हैं. ऐसे में भारत में हो रहा चुनाव दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी का मुक़ाबला मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और कई क्षेत्रीय पार्टियों से है.
चुनावों में अहम भूमिका निभाने वाले भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की दो शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी पार्टियों ने भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ राज्य में गठबंधन किया है.
लोकसभा की 543 सीटों पर मतदान होता है और सरकार बनाने के लिए किसी भी पार्टी को कम से कम 272 सांसदों की ज़रूरत होती है.
तो भारत के इन चुनावों को कौन सी बातें ख़ास बनाती है?
1. भारतीय चुनाव में सबकुछ 'विशाल' होता है
भारत के आम चुनावों से जुड़ी हर बात बहुत बड़ी होती है.
'इकॉनमिस्ट' पत्रिका ने एक बार इसकी तुलना 'मदमस्त हाथी' से की थी जो एक लंबी दुर्गम यात्रा पर बढ़ा चला जा रहा है.
इस बार 18 साल और इससे ज़्यादा उम्र के 90 करोड़ लोग लाखों पोलिंग स्टेशनों पर अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे.
मतदाताओं की यह संख्या यूरोप और ऑस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या से भी ज़्यादा है.
भारत के लोग उत्साही मतदाता होते हैं. 2014 में हुए पिछले आम चुनावों में 66% मतदान हुआ था. यह पहली बार 1951 में हुए चुनावों के मतदान प्रतिशत (45%) से कहीं अधिक था.
2014 में 464 पार्टियों के 8250 से अधिक उम्मीदवारों ने हिस्सा लिया था. पहले आम चुनावों की तुलना में यह संख्या सात गुनी थी.
2. इसमें लंबा समय लगता है
11 अप्रैल को पहले चरण के तहत वोटिंग हो चुकी और अब 18 अप्रैल, 23 अप्रैल, 29 अप्रैल, 6 मई, 12 मई और 19 मई को वोट डाले जाएंगे.
कई राज्यों में कई चरणों में वोट डाले जा रहे हैं.
1951-52 में हुए भारत के पहले ऐतिहासिक चुनावों को पूरा होने में तीन महीने का समय लगा था. 1962 से लेकर 1989 तक चुनाव चार से 10 दिनों के बीच पूरे किए गए. 1980 में चार दिनों में संपन्न हुआ चुनाव देश के इतिहास का सबसे कम अवधि में हुआ चुनाव है.
भारत में चुनाव प्रक्रिया काफ़ी लंबी होती है क्योंकि पोलिंग स्टेशनों की सुरक्षा के इंतज़ाम करने पड़ते हैं.
स्थानीय पुलिस कई बार राजनीतिक झुकाव रखती नज़र आती है, ऐसे में केंद्रीय बलों की तैनाती की जाती है. इन बलों को पूरे देश में अलग-अलग जगह भेजा जाता है.
3. ख़र्च भी बहुत आता है
भारत के सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़ का अनुमान है कि पार्टियों और उनके उम्मीदवारों ने 2014 के चुनावों में 5 बिलियन डॉलर यानी कि लगभग 345 अरब रुपए ख़र्च किए थे.
अमरीका स्थित थिंक टैंक 'कार्नेज एंडोमेंट फ़ॉर इंटरनेशनल पीस' के साउथ एशिया प्रोग्राम के निदेशक और सीनियर फ़ेलो मिलन श्रीवास्तव कहते हैं, "यह मानना अतिशयोक्ति नहीं कि इस साल यह ख़र्च दोगुना हो जाएगा."
भारत में राजनीतिक दलों को भले ही अपनी आय का ब्योरा सार्वजनिक करना होता है मगर उनकी फ़ंडिंग को लेकर पारदर्शिता नहीं होती.
पिछले साल प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड जारी किए थे जिनके ज़रिये उद्योग और कारोबारी और आम लोग अपनी पहचान बताए बिना चंदा दे सकते हैं.
दानकर्ताओं ने इन बॉन्ड के ज़रिये 150 मिलियन डॉलर यानी क़रीब 10 अरब 35 करोड़ रुपए का चंदा दिया है और रिपोर्ट्स के मुताबिक़ इनमें से ज़्यादातर रक़म बीजेपी को मिली है.
4. महिलाओं के हाथ में सत्ता की चाबी?
भारत में महिलाएं भी बड़े पैमाने पर वोट कर रही हैं. इतनी ज़्यादा कि यह पहला आम चुनाव है जिसमें पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज़्यादा मतदान करेंगी.
महिला और पुरुष मतदाताओं के बीच की खाई तो 2014 में ही सिकुड़ गई थी जब महिला मतदाताओं का प्रतिशत 65.3 % रहा था जबकि पुरुषों का 67.1%.
2012 से 2018 के बीच दो दर्जन से अधिक स्थानीय चुनावों में दो तिहाई से अधिक राज्यों में पुरुषों के मुक़ाबले महिला मतदाताओं का मतदान प्रतिशत अधिक रहा.
राजनीतिक दलों ने महिलाओं के महत्व को समझा है और उन्हें अधिक 'प्रलोभन' देना शुरू कर दिया है- शिक्षा के लिए क़र्ज़, मुफ़्त गैस सिलेंडर और लड़कियों के लिए साइकिल.
5. सब कुछ मोदी पर केंद्रित
2014 में मोदी ने बीजेपी और इसके सहयोगियों को ऐतिहासिक जीत दिलाई थी.
बीजेपी ने जिन 428 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से 282 सीटें जीत ली थीं. 1984 के बाद से यह पहला मौक़ा था जब किसी पार्टी ने आम चुनाव में अकेले पूर्ण बहुमत हासिल किया था.
इस बड़ी जीत का श्रेय भ्रष्टाचार मुक्त 'अच्छे दिन' लाने का वादा करने वाले नरेंद्र मोदी को दिया गया जिनके अंदर ख़ुद को निर्णय लेने वाला और मेहनती नेता के तौर पर प्रचारित करने की क्षमता थी.
अपने वादों को पूरा करने में अच्छा प्रदर्शन न कर पाने के बावजूद मोदी अपनी पार्टी के लिए वोट खींचने वाला मुख्य चेहरा हैं. उन्हें पार्टी के अंदर की अनुशासित मशीनरी का समर्थन भी हासिल है जिसे उनके विश्वासपात्र और शक्तिशाली सहयोगी अमित शाह चलाते हैं..
विश्लेषक मानते हैं कि इस साल के आम चुनाव एक तरह से नरेंद्र मोदी के लिए जनमतसंग्रह हैं.
विपक्ष का अभियान पूरी तरह से प्रधानमंत्री को निशाने पर लेने पर केंद्रित रहेगा जो कि ध्रुवीकरण करने वाले ऐसे नेता हैं जिनके चाहने वाले भी हैं तो नापसंद करने वाले भी.
ऐसे में माना जा रहा है कि संसदीय चुनावों में राष्ट्रपति चुनावों जैसा मुक़ाबला हो रहा है. वोटों की गिनती के बाद ही पता चलेगा कि मोदी टिकाऊ ब्रैंड बने रहते हैं या नहीं.
6. भारत की पुरातन पार्टी कर रही वापसी की उम्मीद
क्या 133 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी रसातल से बाहर निकल सकती है?
2014 में पार्टी को आम चुनावों में अपनी सबसे करारी हार का सामना करना पड़ा. इसकी सीटों की संख्या पिछले चुनावों (2009) की 206 सीटों की तुलना में 44 ही रह गई. इसे 20 प्रतिशत से भी कम मतदाताओं ने वोट दिया.
अगले चार सालों तक पार्टी राज्यों के चुनाव लगातार हारती चल गई और इसकी हालत पतली ही रही. 2018 के मध्य तक कांग्रेस और इसके सहयोगी दल मात्र तीन राज्यों में सरकार चला रहे थे जबकि बीजेपी की सरकार 20 राज्यों में थी.
पार्टी लगातार गर्त में जाती दिख रही थी. इसके नेता राहुल गांधी जो कि चर्चित नेहरू-गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी से हैं, सोशल मीडिया पर चुटकुलों के पात्र बन गए थे.
मगर दिसंबर में पार्टी में नई जान सी आती दिखी.
पहले से अधिक आश्वस्त और ऊर्जावान राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने उत्तर भारत के तीन राज्यों में सरकार बनाने में सफलता पाई.
कई लोगों ने इसकी वजह सत्ता विरोधी लहर बताई क्योंकि तीन में से दो राज्यों में तो बीजेपी कई सालों से राज कर रही थी. मगर राहुल गांधी और उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं से श्रेय नहीं छीना जा सकता.
साफ़ है कि कांग्रेस के अंदर फिर से पुराना जादू लौटा है. राहुल गांधी ने मोदी के सामने ख़ुद को एक खुले और समावेशी नेता के तौर पर पेश किया है. फिर एक चौंकाने वाले फ़ैसले के तहत उनकी बहन प्रियंका गांधी का पार्टी में आधिकारिक तौर पर आना पार्टी के प्रचार अभियान में नई जान डाल गया.
कांग्रेस के इस तरह से फिर से उठने से बिखरे पड़े विपक्ष में भी उत्साह आया है. इससे 2019 का मुक़ाबला पहले के अनुमानों से और अधिक कड़ा हो गया है.
7. अर्थव्यवस्था
मोदी के शासन में एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अपनी रफ़्तार खोती हुई नज़र आ रही है.
खेती की भरमार और सामानों के दाम घटने के कारण खेतों से होने वाली आय स्थिर हो गई. इससे किसान क़र्ज़ में डूब गए और सरकार से उनकी नाराज़गी बढ़ गई.
2016 में लिया गया विवादास्पद नोटबंदी का फैसला पेचीदा तो था ही, इसके अलावा इसे सही तरीक़े से लागू नहीं किया गया. जीएसटी भी लघु और मध्यम उद्योगों के लिए नुक़सानदेह रहा. भारत की विशाल अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में बहुत से लोग नौकरियां गंवा बैठे.
निर्यात घट गया है, बेरोज़गारी बढ़ गई है और मोदी सरकार पर नौकरियों का डाटा छिपाने का आरोप भी लगा है. यही नहीं, भारत में कई सरकारी बैंकों की हालत क़र्ज़दारों द्वारा ऋण न लौटाए जाने के कारण डूबने की कगार पर हैं.
फिर भी, महंगाई नियंत्रण में है. सरकार की ओर से इन्फ़्रास्ट्रक्चर और लोक निर्माण में ख़र्च करने से अर्थव्यवस्था आगे बढ़ रही है. इस वित्त वर्ष में जीडीपी की रफ़्तार 6.8 प्रतिशत रहने की उम्मीद जताई गई है.
मगर यह बात भी तथ्य है कि अगर लाखों लोगों को ग़रीबी से बाहर निकालना है तो भारत की जीडीपी को 7 फ़ीसदी से अधिक रफ़्तार से आगे बढ़ना होगा.
मोदी ने कहा है कि अर्थव्यवस्था में बदलाव लाने की प्रक्रिया प्रगति पर है. ये चुनाव तय करेंगे कि इसके लिए जनता उन्हें और समय देने के लिए मूड में है या नहीं.
8. जनवाद पर चल रही हैं पार्टियां
अर्थशास्त्री राथिन रॉय कहते हैं कि भारत 'विकास पर ध्यान देने वाले देश से मुआवज़ा देने वाले देश' की ओर बढ़ रहा है, जहां सरकारें अपनी व्यवस्था की कमियों को छिपाने के लिए जनता की जेबों में नक़दी भर रही हैं.
नतीजा है- पॉप्युलिज़म यानी जनता को लुभाने की होड़.
मोदी सरकार ने किसानों के लिए डायरेक्ट कैश ट्रांसफ़र और क़र्ज़ माफ़ी का एलान किया था. तथाकथित ऊंची जातियों और अन्य धर्मों के लोगों के नौकरियों में आरक्षण का भी वादा किया.
उधर राहुल गांधी ने ऐसी योजना का वादा किया है जिसके तहत सरकार बनने पर वह ग़रीबों की न्यूनतम आय तय करेंगे.
अन्य लोग मतदाताओं को टीवी सेट और लैपटॉप जैसी चीज़ें देने के वादे से लुभा रहे हैं. हालांकि इस बात का कोई साफ़ प्रमाण नहीं है कि इस तरह से प्रलोभन देने से वोट मिलते ही हैं.
9. राष्ट्रवाद बदल सकता है गेम
आलोचकों का कहना है कि मोदी के राष्ट्रवाद के प्रदर्शन और उनकी पार्टी की बहुसंख्यक राजनीति के कारण भारत गहरे विभाजन वाले बेचैन देश में बदल गया है.
हालांकि उनके समर्थकों का कहना है कि मोदी ने अपने आधार को मज़बूत किया है और उसमें ऊर्जा भरी है. वे मानते हैं कि राजनीतिक हिंदुत्व को लेकर शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि भारत 'एक तरह से हिंदुओं का राष्ट्र ही तो है.'
दुर्भाग्य से राष्ट्रवाद के अति प्रचार ने कट्टरपंथी दक्षिणपंथी समूहों को गाय की तस्करी करने के संदेह में मुस्लिमों की लिंचिंग करने के लिए प्रोत्साहित कर दिया है.
हिंदू गाय को पवित्र मानते हैं. पशुवध रोधी क़ानूनों को कड़ाई से लागू किए जाने के कारण गाय भी ध्रुवीकरण करने वाली पशु बन गई है.
कट्टरपंथी हिंदूवाद के आलोचकों को देशद्रोही कहा जा रहा है. असहमति जताने वालों को आंखें दिखाई जाती हैं.
बहुत से लोग कहते हैं कि भारत के 17 करोड़ मुसलमान 'अदृश्य' अल्पसंख्यक बन गए हैं. निचले सदन में बीजेपी का कोई सांसद मुसलमान नहीं है. 2014 में इसने सात मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे और वे सभी हार गए थे.
10. पाकिस्तान पर हमले से चमक सकती है मोदी कि छवि
भारत प्रशासित कश्मीर के पुलवामा में भारतीय सुरक्षा बलों पर हुए घातक आत्मघाती हमले के बाद फ़रवरी महीने के अंत में भारत और पाकिस्तान की ओर से एक-दूसरे पर बमबारी की गई. इससे कथित राष्ट्रवाद की भावना पैदा हो गई.
मोदी ने यह स्पष्ट कर दिया कि पाकिस्तान स्थित चरमपंथी समूहों ने अगर भारत पर एक भी हमला किया या करवाया तो बदले की कार्रवाई से पीछे नहीं हटा जाएगा.
यह स्पष्ट हो गया था कि मोदी राष्ट्रीय सुरक्षा को अपने चुनाव प्रचार अभियान का आधार बनाएंगे. हालांकि यह काम करेगा या नहीं, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता. विपक्ष अभी तक इस मामले में कोई काट लेकर नहीं आ पाया है.
क्या राष्ट्रवादी उबाल में इतनी ताक़त है कि वह बाक़ी मुद्दों को गौण साबित करते हुए मोदी के लिए वोट खींच पाएगा?
11. यह मैदान-ए-जंग तय कर सकता है चुनाव परिणाम
उत्तर भारत के राज्य उत्तर प्रदेश का भारत की राजनीति पर बहुत प्रभाव है.
हर छह में से एक भारतीय यहां रहता है और इस राज्य से 80 सांसद चुने जाते हैं. यह भारत का सबसे अधिक सामाजिक रूप से विभाजित राज्य भी है.
2014 में बीजेपी ने यहां 80 में से 71 सीटों पर जीत हासिल की थी. पिछली बार मोदी के करिश्मे और उनकी पार्टी द्वारा बनाए जातियों के इंद्रधनुषी गठजोड़ ने ही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे शक्तिशाली क्षेत्रीय दलों को पराजित करने में भूमिका निभाई थी.
बहुजन समाज पार्टी यानी बीएसपी की प्रमुख मायावती हैं जो कि लाखों दलितों की आदर्श हैं. राज्य की आबादी में दलितों की हिस्सेदारी क़रीब 20 फ़ीसदी है.
अब मायावती ने अपनी धुर विरोधी पार्टी समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव से हाथ मिला लिया है जो आंशिक रूप से समाजवादी हैं. दोनों को उम्मीद है कि वे 50 सीटें जीतकर बीजेपी को फिर दिल्ली की सत्ता पर आने से रोक देंगे.
यह एक अवसर को देखकर बनाया गया गठबंधन है जिसमें कड़वी दुश्मनी को मिठास भरी दोस्ती में बदल दिया गया. मगर यह गठजोड़ उत्तर प्रदेश में बीजेपी को झटका दे सकता है. बीजेपी की उम्मीदें अब मोदी पर ही टिकी हैं कि कैसे वह इस गठबंधन को बेअसर करते हैं.