L K Advani birthday:लाल कृष्ण आडवाणी की एक सियासी 'चूक' जिससे शायद वे कभी उबर नहीं पाए
नई दिल्ली, 8 नवंबर: भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी आज अपना 94वां जन्मदिन मना रहे हैं। वह अभी भी बीजेपी के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य हैं, लेकिन पार्टी की गतिविधियों से सक्रिय तौर पर पूरी तरह से कट चुके हैं। 2009 के आम चुनावों में राष्ट्रीय जनतांत्रितक गठबंधन (एनडीए) ने उन्हें प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर पेश किया था, क्योंकि तब तक पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी अस्वस्थता के चलते सक्रिय राजनीति से दूर हो चुके थे। भाजपा के शुरुआती 25 साल तक पार्टी के दो ही सबसे कद्दावर चेहरा होते थे। वाजपेयी जी और आडवाणी जी। भारतीय जनता पार्टी 1984 के दो सीटों से बढ़कर 1996 में सत्ता के मुहांने तक पहुंची थी तो उसमें हिंदुत्व की विचारधारा की सवारी करने वाले एलके आडवाणी का रोल बहुत ही बड़ा था। वाजपेयी सरकार में आडवाणी 6 साल तक देश के गृहमंत्री रहे और 2002 से 2004 तक उप प्रधानमंत्री भी रहे। लेकिन, 2004 में एनडीए सरकार के जाने के एक साल बाद आडवाणी के राजनीतिक करियर में एक ऐसा मोड़ आया, जिससे वह कभी भी पूरी तरह उबर ही नहीं पाए।
कैसे भाजपा के सबसे कद्दावर चेहरा बने आडवाणी ?
1996, 1998 और 1999 में तीन-तीन बार अटलजी के नेतृत्व में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार बनी तो उसका श्रेय अंतिम दोनों बार बहुत हद तक वाजपेयी को ज्यादा जाता है। लेकिन, पहली बार में आडवाणी का रोल ज्यादा बड़ा माना जा सकता है। क्योंकि, आडवाणी की छवि पूरी तरह से आरएसएस की विचारधारा पर चलने वाले हिंदुत्ववादी नेता के तौर पर स्थापित थी। उस समय की भाजपा की राजनीति को महसूस करने पर साफ-साफ लगता है कि संघ पूरी तरह से आडवाणी के पीछे खड़ा था। जबकि, अटलजी की छवि स्वयं सेवक होते हुए भी ज्यादा उदारवादी नेता के रूप में पेश की जाती थी। आडवाणी की विशेष छवि के पीछे उनका 6 दशक से ज्यादा का अपना सियासी आधार था। 1942 में आरएसएस से जुड़ने के बाद वह जनसंघ के जमाने में भी काफी दबदबे वाले नेता बनकर उभरे थे। 1980 में जब भारतीय जनता पार्टी बनी तब भी वाजपेयी के चेहरे के पीछे वही असल में उसकी कमान संभाल रहे होते थे। 1986 में आकर उन्होंने पार्टी की ओर से फ्रंट फुट पर खेलना शुरू किया और वह अध्यक्ष बन गए। यहां से आडवाणी ही नहीं, बीजेपी का भी राजनीतिक ग्राफ बेतहाशा बढ़ना शुरू हो गया।
आडवाणी की राजनीति की फसल भाजपा आज भी काट रही है
आडवाणी के असर वाली बीजेपी का पहला प्रभाव 1989 के आम चुनाव में ही दिख गया था। 2 सीटों वाली पार्टी लोकसभा में 85 सीटें जीत गई थी। सही कहा जाए तो यहीं से भारतीय जनता पार्टी की राजनीति करवट ले चुकी थी। 1990 में एलके आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या के लिए राम रथयात्रा की शुरुआत करके सभी विरोधी दलों की राजनीति में ऐसा सुराख किया, जिससे उन्हें अभी तक संभलना पड़ रहा है। मुलायम सिंह की सरकार ने अयोध्या में कार सेवकों पर गोली चलवाई और बिहार के समस्तीपुर में लालू यादव की सरकार ने आडवाणी की रथयात्रा रोककर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद 1991 में मध्यावधि चुनाव हुए और भाजपा की सीटों की संख्या बढ़कर 119 तक पहुंच गई। तब पार्टी संविधान के हिसाब से आडवाणी अध्यक्ष पद से हट गए। लेकिन, संघ से लेकर पार्टी संगठन में उनसे ज्यादा किसी का दबदबा नहीं था। अटलजी की छवि और ओहदा अपने जगह कायम रही।
वाजपेयी सरकार में भी रही सबसे प्रभावशाली भूमिका
1993 में फिर से आडवाणी ने भाजपा अध्यक्ष की कमान अपने हाथों में ली। इस दौरान प्रदेशों की राजनीति में भाजपा का ग्राफ लगातार ऊपर चढ़ने लगा। मई 1996 के लोकसभा चुनाव में आडवाणी की अगुवाई में बीजेपी 161 सीटों तक पहुंच गई और अटल बिहारी वाजपेयी पहली बार सिर्फ 13 दिनों के लिए प्रधानमंत्री बने। रामो-वामो की सरकारों का भी प्रयोग देश ने देखा और फरवरी 1998 के मध्यावधि चुनावों में भाजपा स्थिर सरकार देने के नारे के साथ 182 सीटों तक पहुंच गई। जयललिता की पार्टी की समर्थन वापसी और कांग्रेस के गिरधर गोमांग वाले प्रयोग के चलते अप्रैल, 1999 में सिर्फ 1 वोट से वाजपेयी सरकार गिर गई। सरकार में चेहरा तो वाजपेयी जी का था, लेकिन पर्दे के पीछे आडवाणी बहुत ही प्रभावशाली भूमिका में थे और दोनों की मित्रता ऐसी थी कि कभी वैचारिक मतभेद हुए भी हों, तो भी किसी ने महसूस नहीं किया।
आडवाणी के सामने कब पैदा हुईं चुनौतियां ?
1999 में ही करगिल विजय के साथ एक बार फिर से मध्यावधि चुनाव हुए और अटली जी के नेतृत्व में एनडीए को पूर्व बहुमत (296) मिला। भाजपा के सांसदों की संख्या 182 पर कायम रही। आडवाणी फिर से देश के गृहमंत्री बने और आगे चलकर वाजपेयी ने उन्हें उप प्रधानमंत्री बनाकर अपनी सियासी विरासत भी तय कर दी। इस बार वाजपेयी सरकार को कभी भी गिरने का खतरा महसूस नहीं हुआ और वह फील गुड फैक्टर और शाइनिंग इंडिया पर सवार होकर 2004 में समय से पहले ही आम चुनावों में उतर गई। लेकिन, शायद अटल-आडवाणी को भी अंदाजा नहीं था कि सत्ता उनके हाथ से यूं निकल जाएगी। इसके बाद से अटलजी ने खुद को सक्रिय राजनीति से अलग करना शुरू कर दिया और आडवाणी ही पर्दे के पीछे और पर्दे के सामने पार्टी के सबसे बड़ा चेहरा बन गए। लेकिन, इसके बाद से ही उनके सामने पार्टी के अंदर से ऐसी चुनौतियां उभरने लगीं, जिसका शायद उन्होंने कभी सपने में भी अंदाज नहीं लगाया होगा।
जब उमा भारती ने किया विद्रोह!
2004 में तिरंगा यात्रा के बाद मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री पद से हटाई गईं उमा भारती ने पार्टी की भरी बैठक में लाल कृष्ण आडवाणी के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया और बैठक से खूब खरी-खोटी सुनाती हुईं उठकर चली गईं। ऊपर से महाराष्ट्र चुनाव में भी पार्टी को झटका लग चुका था। आडवाणी अपने मित्र अटल जी के राजनीतिक कद को देख चुके थे। उन्हें इसका पूरा अहसास था कि वाजपेयी के नाम पर दो-दो बार एनडीए की सरकार कैसे संभव हुई। क्योंकि, उनके नाम पर दूसरे दल भी पार्टी के साथ जुड़ने के लिए तैयार थे।
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आडवाणी की एक सियासी 'चूक'!
2005 के मई में आडवाणी पाकिस्तान यात्रा पर गए। वहां उन्हें क्या सूझी कि देश के विभाजन के जिम्मेदार मोहम्मद अली जिन्ना को 'राष्ट्रवादी' कह दिया। आडवाणी के लौटने का भी इंतजार नहीं हुआ और विश्व हिंदू परिषद-आरएसएस में तो जैसे भूचाल मच गया। खलबली भाजपा में भी मच चुकी थी। पार्टी के भीतर से उनके खिलाफ आवाजें उठने लगीं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि 'वे अटलजी की तरह की छवि बनाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन इसे स्वीकार करने के लिए कोई तैयार नहीं था।' दरअसल, आडवाणी के लिए किसी स्वयं सेवक ने सपने में भी ऐसी कल्पना नहीं की होगी कि वह जिन्ना की तारीफ में कसीदे पढ़ेंगे। 2009 में उन्हें जरूर एनडीए ने पीएम पद का उम्मीदवार बनाया, लेकिन संघ और पार्टी का मूल कैडर शायद ही उनके लिए खुद को पहले की तरह समर्पित कर पाया।