कुंभः अखाड़े के शिविरों को रोशन करने वाले 'मुल्ला जी'
मुहम्मद महमूद के साथ इस समय पांच लोग हैं. उनमें से एक अनिल भी हैं जो सबके लिए खाना बनाते हैं. अनिल भी मुज़फ़्फ़रनगर के रहने वाले हैं.
वो कहते हैं, "मैं पूरे स्टाफ़ का खाना बनाता हूं. हम लोग यहां किसी कमाई के उद्देश्य से नहीं बल्कि समाजसेवा के उद्देश्य से आते हैं. कमाई इतनी होती भी नहीं."
कुंभ मेले में जूना अखाड़े के प्रवेश द्वारा के दाईं ओर 'मुल्ला जी लाइट वाले' का बोर्ड देखकर किसी की भी उत्सुकता उन 'मुल्ला जी' को जानने की हो सकती है जो 'लाइट वाले' हैं.
मुल्ला जी, यानी मुहम्मद महमूद हमें वहीं मिल गए. जिस ई-रिक्शा के ऊपर उनका ये छोटा-सा बोर्ड लगा था, उसी के ठीक बगल में रखी एक चारपाई पर बैठे थे. सिर पर टोपी और लंबी दाढ़ी रखे मुल्ला जी को पहचानने में ज़रा भी दिक़्क़त नहीं हुई.
नाम पूछते ही वो हमारा मक़सद भी जान गए और तुरंत बग़ल में बैठे एक व्यक्ति को उठने का इशारा करके हमसे बैठने का आग्रह किया.
76 साल के मुहम्मद महमूद पिछले तीन दशक से कोई भी कुंभ या अर्धकुंभ नहीं छोड़ते हैं और कुंभ के दौरान डेढ़ महीने यहीं रहकर अपना व्यवसाय चलाते हैं.
बिजली की फ़िटिंग से लेकर कनेक्शन तक जो भी काम होता है, मुल्ला जी की टीम ही करती है. जूना अखाड़े के साधु-संतों और महंत से उनकी अच्छी बनती है, इसलिए अखाड़े में उनके रहने के लिए टेंट की व्यवस्था की गई है.
मुहम्मद महमूद बताते हैं, "प्रयाग में हमारा ये चौथा कुंभ है. चार हरिद्वार में हो चुके हैं और तीन उज्जैन में. हर कुंभ में मैं जूना अखाड़े के साथ रहता हूं और शिविरों में बिजली का काम करता हूं. अखाड़े के बाहर भी काम करता हूं जो भी बुलाता है. काम भी करता हूं, संतों की संगत का भी रस लेता हूं."
हरिद्वार कुंभ से हुई शुरुआत
दरअसल, मुहम्मद महमूद मुज़फ़्फ़रनगर में बिजली का काम करते हैं. शादी-विवाह में बिजली दुरुस्त करने का ठेका लेते हैं और अपने साथ कई और कारीगरों को रखा है जो इस काम में उनका हाथ बंटाते हैं.
कुंभ में भी उनके ये सहयोगी साथ ही रहते हैं और संगम तट पर टेंट से बने साधु-संतों और अन्य लोगों के आशियानों को रोशन करते हैं. यहां लोग उन्हें 'मुल्ला जी लाइट वाले' के नाम से ही जानते हैं.
मुहम्मद महमूद बताते हैं कि अखाड़ों से जुड़ने की शुरुआत हरिद्वार कुंभ से हुई, "तीस साल से ज़्यादा पुरानी बात है ये. उसी कुंभ में बिजली के काम से गया था और वहीं जूना अखाड़े के साधुओं से परिचय हुआ. फिर उनके महंतों के साथ बातचीत होती रही और ये सिलसिला चल पड़ा. उन्हें हमारा व्यवहार पसंद आया और हमें उनका."
जूना अखाड़ा भारत में साधुओं के सबसे बड़े और सबसे पुराने अखाड़ों में से एक माना जाता है. जूना अखाड़े के अलावा भी तमाम लोगों के शिविर में बिजली की कोई समस्या होती है तो मुल्ला जी और उनकी टीम संकट मोचक बनकर खड़ी रहती है.
जूना अखाड़े के एक साधु संतोष गिरि बताते हैं, "हम तो इन्हें भी साधु ही समझते हैं. साथ उठना-बैठना, रहना, हंसी-मज़ाक करना, और ज़िंदग़ी में है क्या ? बस ये हमारी तरह धूनी नहीं रमाते, सिर्फ़ बिजली जलाते हैं."
वहां मौजूद एक युवा साधु ने बताया कि मुल्ला जी की टीम में सिर्फ़ वही एक मुसलमान हैं, बाक़ी सब हिन्दू हैं. साधु ने कहा, "हमने किसी से पूछा नहीं लेकिन धीरे-धीरे ये पता चल गया. शिविर में सिर्फ़ मुल्ला जी ही नमाज़ पढ़ते हैं, बाक़ी लोग नहीं."
मेले के बाद ही घर
मुल्ला जी और उनके साथियों की भी अखाड़े के साधुओं से अच्छी दोस्ती है जिसकी वजह से इन्हें अखाड़े में भी अपने घर की कमी नहीं महसूस होती. सभी लोग मेला समाप्त होने के बाद ही अपने घर जाते हैं.
मुहम्मद महमूद के साथ इस समय पांच लोग हैं. उनमें से एक अनिल भी हैं जो सबके लिए खाना बनाते हैं. अनिल भी मुज़फ़्फ़रनगर के रहने वाले हैं.
वो कहते हैं, "मैं पूरे स्टाफ़ का खाना बनाता हूं. हम लोग यहां किसी कमाई के उद्देश्य से नहीं बल्कि समाजसेवा के उद्देश्य से आते हैं. कमाई इतनी होती भी नहीं."
कमाई के बारे में पूछने पर मुहम्मद महमूद हंसने लगते हैं, "कमाई क्या...कमाई तो कुछ भी नहीं है. रहने-खाने का ख़र्च निकल जाए वही बहुत है. कमाने के मक़सद से हम आते भी नहीं है. बस दाल-रोटी चल जाए, साधुओं की संगत अपने आप ही आनंद देने वाली होती है. और क्या चाहिए ?"
मुहम्मद महमूद कहते हैं कि मुज़फ़्फ़रनगर में रहते हुए वो कई अन्य त्योहारों मसलन, जन्माष्टमी, दशहरा इत्यादि पर भी बिजली का काम करते हैं. इसके अलावा मेरठ में होने वाले नौचंदी मेले में भी ये लोग अपने सेवाएं देते हैं.