क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

क्या भारत तिब्बतियों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर दुविधा में है?

तिब्बतियों ने 1959 में भारत आए धार्मिक नेता दलाई लामा के आगमन के 60 वर्ष पूरा होने पर नई दिल्ली में दो धार्मिक सभाओं के आयोजन की योजना बनाई थी. पहला आयोजन 31 मार्च को गांधी समाधि पर और दूसरा बड़ा कार्यक्रम, 'थैंक्यू इंडिया' के नाम से त्यागराज स्टेडियम में होना था.

आज हक़ीक़त यह है कि पहला आयोजन रद्द कर दिया गया जबकि दूसरे को हिमाचल प्रदेश के शहर ध

By BBC News हिन्दी
Google Oneindia News

तिब्बतियों ने 1959 में भारत आए धार्मिक नेता दलाई लामा के आगमन के 60 वर्ष पूरा होने पर नई दिल्ली में दो धार्मिक सभाओं के आयोजन की योजना बनाई थी. पहला आयोजन 31 मार्च को गांधी समाधि पर और दूसरा बड़ा कार्यक्रम, 'थैंक्यू इंडिया' के नाम से त्यागराज स्टेडियम में होना था.

आज हक़ीक़त यह है कि पहला आयोजन रद्द कर दिया गया जबकि दूसरे को हिमाचल प्रदेश के शहर धर्मशाला (तिब्बतियों की निर्वासित सरकार का मुख्यालय) में स्थानांतरित कर दिया गया.

अब यह अटकलें लगनी शुरू हो गईं हैं कि कहीं चीन के दबाव में तो ऐसा नहीं किया गया और क्या यह दलाई लामा और तिब्बती आंदोलन के प्रति भारतीय दृष्टिकोण में किसी सैद्धांतिक बदलाव का प्रतीक तो नहीं है.

चीनी मीडिया ने मारा किरण रिजिजू पर ताना

आख़िर दलाई लामा से इतना क्यों चिढ़ता है चीन?

दलाई लामा
Getty Images
दलाई लामा

भारत और चीन के बीच बेहतर संबंध

हालांकि भारत में तिब्बतियों के विभिन्न प्रतिनिधियों ने संयम से काम लिया और कहा कि वो भारत की कूटनीतिक अनिवार्यता को समझते हैं और ये भी कहा कि चीन-भारत के बीच बेहतर संबंध दरअसल तिब्बती आंदोलन के भविष्य को लेकर अच्छे संकेत हैं.

उनमें से कुछ इस तथ्य का हवाला देते हैं कि शायद यह भारत की ओर से अप्रत्यक्ष आधिकारिक इशारा है जिसके कारण पहले आयोजन को रद्द और दूसरे के आयोजन स्थल को स्थानांतरित किया गया.

ऐसी और भी चीज़ें हैं जो चीन के प्रभाव की ओर इशारा करते हैं. इस सबकी शुरुआत नए विदेश सचिव विजय गोखले के एक नोट के साथ हुई, जो इस उच्च पद को हासिल करने से पहले बीजिंग में भारत के राजदूत रह चुके हैं. विदेश सचिव ने अपने नोट में कैबिनेट सचिव से सभी सरकारी प्रतिनिधियों के लिए तिब्बतियों के आयोजित कार्यक्रमों से दूर रहने के लिए एक निर्देश जारी करने का अनुरोध किया था.

वास्तविकता यह है कि विदेश सचिव ने 22 फ़रवरी को यह नोट लिखा, जो कि, विदेश सचिव के रूप में 28 फ़रवरी को उनकी पहली चीन यात्रा से ठीक एक हफ़्ते पहले लिखा गया था और यही कारण है कि समालोचक चीन से इसके संबंधों को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं.

भारत ने रिश्तों को गंभीर नुकसान पहुँचाया: चीन

डोकलाम
Getty Images
डोकलाम

डोकलाम-2 से बचने की कवायद

सरकारी अधिकारियों को न तो ऐसे निर्देश और न ही विदेश सचिव का चीन के नेताओं को भारत में तिब्बतियों के विषय में उनकी चिंताओं के प्रति आश्वासन में इसकी टाइमिंग के सिवा कुछ भी नया नहीं था.

न केवल, चीन ने 16 फ़रवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर ग़ुस्सा ज़ाहिर किया था बल्कि यह भी माना जाता है कि नई दिल्ली में इन तिब्बती धार्मिक सभाओं के आयोजन से डोकलाम पर में सैन्य गतिरोध की फिर से शुरुआत हो सकती थी.

लगातार रिपोर्ट्स आ रही हैं कि चीन उस क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थिति को मज़बूत कर रहा है. विशेषज्ञ मानते हैं कि अप्रैल 2017 में गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू के साथ दलाई लामा की तवांग यात्रा के बाद ही डोकलाम में सैन्य गतिरोध शुरु हुआ था जो 73 दिनों तक चला. तो क्या इस बार भारत डोकलाम 2.0 जैसी परिस्थिति से बचने के लिए तिब्बितियों पर अंकुश लगा रहा है? हालांकि एक राय यह भी है कि इन तिब्बती आयोजनों को लेकर विदेश सचिव के हस्तक्षेप के पीछे डोकलाम 2.0 कारण नहीं था.

तिब्बती मुस्लिम समुदाय की कश्मीर में घर वापसी

चीन
Getty Images
चीन

चीन को एफएटीएफ़ का उपाध्यक्ष बनाने का दांव

विदेश सचिव के 22 फ़रवरी को नोट लिखने के दूसरे दिन चीन को पेरिस स्थित वित्तीय एक्शन टास्क फोर्स (एफ़एटीएफ़) का उपाध्यक्ष चुना गया. ये संस्था चरमपंथियों को आर्थिक मदद देने वाले देशों पर नज़र रखती है.

23 फ़रवरी को ही चीन चरमपंथी संगठनों को कथित तौर पर धन मुहैया कराने के लिए "ग्रे सूची" में पाकिस्तान का नाम देने की भारत की मांग पर नरम पड़ गया.

पिछले दो सालों से पाकिस्तानी धरती से सक्रिय चरमपंथी संगठन जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख अज़हर मसूद को संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों की सूची में डालने पर चीन की चुप्पी को देखते हुए यह निश्चित रूप से बड़ी रियायत थी.

माना जाता है कि पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कठोर प्रस्ताव लाने के लिए चीन पर दबाव बनाने में अमरीका ने भारत का साथ दिया. कहा जा रहा है कि चीन ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि अमरीका ने उसे एफ़एटीएफ़ का उपाध्यक्ष बनाने में मदद की थी जबति भारत ने तिब्बतियों पर सख़्ती कर चीन को राज़ी किया.

इसका नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान के पास अपनी धरती पर सक्रिय चरमपंथियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का अब जून तक का समय है और अगर वो ऐसा नहीं करताहै कि उसे एफ़एटीएफ़ की कार्रवाई के लिए तैयार रहना होगा.

अगर यही इसकी व्याख्या है तो क्या भारत का तिब्बतियों पर अंकुश लगाना उसके लिए फ़ायदेमंद था?

चीन को चुनौती क्या सोची समझी रणनीति है?

राजीव गांधी
Getty Images
राजीव गांधी

1988 में राजीव गांधी के दौर से हुई नई शुरुआत

दिसंबर 1988 में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की ऐतिहासिक चीन यात्रा के साथ ही भारत ने तिब्बत को चीन का अभिन्न हिस्सा माना था.

इसके बाद बाक़ी सब कुछ उसी दिशा में बढ़ता गया. इसलिए वर्तमान नीति में कुछ भी नया नहीं लगता है और भारत का यह बीजिंग के प्रति लगातार झुकाव समझ में आता है.

चाउ-एन-लाइ के 1960 के भारतीय दौरे के बाद पहली बार चीनी प्रधानमंत्री ली फ़ंग की 1991 की भारत यात्रा के दौरान पहली बार बड़ी संख्या में तिब्बतियों को पहले ही हिरासत में लिया गया था और 'उनकी मातृभूमि के ख़िलाफ़ भारत में तिब्बतियों की जारी गतिविधियों पर चिंताओं को' भारत-चीन संयुक्त विज्ञप्ति में शामिल किया गया था. इसके अलावा कई तिब्बती प्रदर्शनकारियों को पीटा भी गया और हवालात में बंद कर दिया गया था.

तब से चीन के साथ भारत की भागीदारी तिब्बतियों के लिए उसकी ज़ुबानी प्रतिबद्धताओं की तुलना में कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है. तब से लेकर भारत की तिब्बत नीति सिर्फ़ ये कही जा सकती है कि वो दलाई लामा के धार्मिक नेता होने को स्वीकार करता है दलाई लामा को कहीं भी आने जाने की इजाज़त है. तिब्बतियों को लेकर इस तरह के बदलाव में भारत अकेला नहीं है और चीन के प्रति इस तरह का झुकाव दुनियाभर में देखने को मिल रहा है.

दलाई लामा
Getty Images
दलाई लामा

विज्ञान काँग्रेस, मोदी और दलाई लामा

चीन, भारत और तिब्बती, सभी तीनों पक्ष इन नए समीकरणों को स्पष्ट रूप से समझते हैं. उदाहरण के लिए, पिछले कुछ दिनों में इन अटकलों को लेकर एक और सक्रियता देखी गई.

इंडियन साइंस काँग्रेस की मेज़बानी कर रहे पूर्वोत्तर के मणिपुर यूनिवर्सिटी में शुक्रवार को शुरू हो रहे इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दलाई लामा दोनों को बतौर मुख्य अतिथि की सूचि में दिखाया जा रहा था.

आमतौर पर प्रधानमंत्री इस वार्षिक विज्ञान काँग्रेस का उद्घाटन करते हैं, इसलिए एक बार फिर इन दोनों लोगों के एक ही मंच को साझा करने पर चीन की प्रतिक्रिया को लेकर अटकलें लगाई जा रही थीं.

विज्ञान काँग्रेस को स्थगित भी नहीं किया जा सकता था क्योंकि यह इसी साल जनवरी में आयोजित किया जाना था लेकिन उस समया उस्मानिया यूनिवर्सिटी ने सुरक्षा कारणों से इसकी मेज़बानी में असमर्थता ज़ाहिर की थी. साइंस काँग्रेस के 105 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था.

105 साल में पहली बार साइंस कांग्रेस स्थगित

नरेंद्र मोदी
Getty Images
नरेंद्र मोदी

हालांकि, लगता है कि तिब्बती नेतृत्व को भारत की इस दुविधा का अहसास हो गया था और इसी सोमवार को उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि दलाई लामा इस समारोह में शामिल नहीं होंगे.

लेकिन एक बार फिर, जबकि तिब्बती शिष्ट या कमज़ोर हो सकते हैं और यह घोषणा दलाई लामा की बढ़ती उम्र या स्वास्थ्य या अन्य प्रतिबद्धताओं के कारण हो सकती है इसके बावजूद, विश्लेषक इसके कारणों को परोक्ष रूप से चीन से जोड़ कर वही घिसा-पिटा विश्लेषण और व्याख्या कर सकते हैं.

मतलब साफ़ है कि यह मामला पुराने कथनों को रटने वाले प्रवक्ताओं के साथ ख़त्म नहीं होता है.

यह एक ऐसा मसला है, जहां सभी पक्षों के नेतृत्व को सार्वजनिक रायों को सुधारने के लिए इस तरह के नीति परिवर्तन के फ़ायदे और नुक़सान समझाने होंगे जो इनके बदलते त्रिकोणीय समीकरण और समय की मांग है.

BBC Hindi
Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
Is India indecisive on its commitment to Tibetans
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X