क्या गुजरात सीएम मोदी को मिस कर रहा है?
प्रदेश के वोटरों ने पंद्रह सालों में तीन अलग-अलग सीएम देखे हैं. किसने कैसे किया राज?
बात 2010 की है जब गुजरात अपना 50वां जन्मदिन मनाने को तैयार था. गुजरात से ताल्लुख रखने वाले लगभग सभी कॉर्पोरेट्स भी एक मई को होने वाले बड़े जलसे में 'सहयोग' दे रहे थे.
देश के एक नामचीन बिज़नेस ग्रुप ने भारत के सबसे मशहूर म्यूज़िक कम्पोज़र से एक जिंगल बनवाने का प्लान किया.
करोड़ों की लागत वाला जिंगल लेकर कॉरपोरेट ग्रुप के टॉप अफ़सर मुख्यमंत्री के पास उसे सुनाने पहुंचे.
नरेंद्र मोदी ने सुनने से पहले पूछा, "जिंगल बनाने वाले कहाँ हैं?". जवाब मिला, "सर, वो तो नहीं आ सकेंगे".
बहरहाल, मुख्यमंत्री को जिंगल ज़्यादा पसंद नहीं आई और उन्होंने अपने अफ़सरों से कहा, "अरे और ढूंढ़ो भाई. बहुत टैलेंट है हमारे गुजरात में भी."
आख़िरकार जिसकी जिंगल सेलेक्ट हुई वो ऐसा युवक था जिसके बारे में किसी ने पहले सुना तक नहीं था.
बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के काम करने का यही स्टाइल था.
बॉलीवुड की मिसाल से देखें तो कह सकते हैं, "मैं जहाँ खड़ा हो जाता हूँ लाइन वहीं से शुरू हो जाती है."
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आनंदीबेन ने सिखाया फ़ाइलों पर जिल्द चढ़ाना
इस वाक़ये के पांच साल बाद, 2015 की एक दोपहर उसी सीएम ऑफ़िस में आनंदीबेन पटेल बैठी कुछ फ़ाइलों को देख रहीं थी.
एकाएक उन्होंने एक कर्मचारी को बुलाकर करीब बीस मिनट तक उसे ये सिखाया कि 'किताबों पर कवर कैसे चढ़ाना चाहिए जिससे वो फटे नहीं और भद्दा न लगे. साथ ही उसे फ़ाइलों को करीने से रखना भी सिखाया'.
राजनीति में आने और गुजरात की पहली महिला मुख्यमंत्री बनने के पहले आनंदीबेन एक स्कूल टीचर और प्रिंसिपल थीं.
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रूपाणी को जीत का यकीन नहीं था
वाक़ये के क़रीब एक साल बाद गुजरात के मौजूदा मुख्यमंत्री विजय रूपाणी इस दफ़्तर के 'इंचार्ज' बने.
कुछ दिन पहले ही वे किसी से शेयर कर चुके थे, "मुझे यक़ीन ही नहीं था कि मैं राजकोट दक्षिण सीट से चुनाव लड़ सकूंगा, जीतना तो बाद की बात है".
दरअसल ये सीट प्रदेश भाजपा के दिग्गज वजुभाई वाला की थी जो 1985 से जीत रहे थे और उन्होंने 2002 के उप-चुनाव के लिए नरेंद्र मोदी के लिए 'खाली की थी'.
केंद्र में मोदी सरकार आने के कुछ महीने बाद वजुभाई वाला की नियुक्ति बतौर कर्नाटक गवर्नर कर दी गई और रूपाणी को पहले सीट और डेढ़ साल बाद सीएम पद भी मिला.
तीन सालों में गुजरात सीएमओ में क्या बदला है इसकी परतें अब थोड़ी हल्की लग रहीं हैं.
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कैसा था CM मोदी का कार्यकाल?
नरेंद्र मोदी का शासन उनके इर्द-गिर्द मंडराता था जबकि आनंदीबेन और रूपाणी के दौर में ये बिखरता दिखा है.
प्रधानमंत्री बनने के पहले 4,610 दिन तक मुख्यमंत्री रहे मोदी का कद गुजरात में ख़ासा बढ़ चुका था.
लंबे अरसे उनके साथ काम कर चुके लोग बताते हैं कि "मोदी बोलते कम थे. समय पर टारगेट पूरे न होने पर ख़ौफ़नाक भी लगते थे."
अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों में से उनकी 'पहचान कर ली थी जिन्हें उन्हें अपने क़रीब रखना था."
गांधीनगर मुख्यमंत्री आवास में सिर्फ़ उन्ही अधिकारियों को जाने की इजाज़त थी और मंत्री या एमएलए तो वहां 'फटकने से भी कतराते थे, जबकि इसके पहले केशुभाई पटेल के कार्यकाल में सभी वहां नियमित जमा होते थे."
2006 के विधान सभा सत्र के दौरान एक पार्टी विधायक ने किसी से शिकायत थी, "साढ़े तीन साल बाद पर्सनल मुलाक़ात हुई नरेंद्र भाई से."
कुछ करीबी बताते हैं, "नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री बनने के पहले तक एक भी चुनाव नहीं लड़े थे शायद इसलिए चुने हुए प्रतिनिधियों पर पूरा भरोसा करने में उनको थोड़ी हिचक रही है."
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मोदी की गुजरात पर पकड़ बरकरार
शायद यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने आज भी गुजरात सरकार और प्रशासन पर मुख्यमंत्री मोदी सी पकड़ 'अपने पसंदीदा ब्यूरोक्रैट्स' के ज़रिए बना रखी है.
के कैलाशनाथन वो अफ़सर है जिनके 2013 में रिटायरमेंट के बाद एक ख़ास पोस्ट 'चीफ़ प्रिंसिपल सेक्रेटरी' पर नियुक्त किया गया था.
कैलाशनाथन की ये पोस्ट आनंदीबेन पटेल और विजय रूपाणी के कार्यकाल में भी जारी है.
उन्हें करीब से जानने वाले एक व्यक्ति के अनुसार, "केके गुजरात में उतने ही पावरफ़ुल हैं जितने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह."
ऐसे तमाम अफ़सर भी हैं जिन्हे मोदी ने सीधे दिल्ली में बुला लिया है और बड़े पदों पर नियुक्त किया है.
ऐसे अफ़सर भी हैं जिन्हे मोदी की 'अग्नि परीक्षा' से भी गुज़ारना पड़ा.
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मोदी ने दिए ज़ीरो मार्क्स
एक अहम विभाग के प्रमुख सचिव जो आगे चल कर 'मोदी के चहेते भी बने' एक रोज़ एक प्रेजेंटेशन दे रहे थे.
प्रेजेंटेशन में उन्होंने वो चीज़ें बताईं जो उनके विभाग ने 'बेहतरीन की थी.'
सब कुछ गौर से सुनने के बाद मुख्यमंत्री मोदी बोले, "आपने काम बहुत अच्छा किया पर मेरे हिसाब से मैं आपको ज़ीरो मार्क्स दूंगा."
उन्होंने आगे कहा, "जब तक इस अच्छे काम के बारे में लोगों को पता नहीं चलेगा, मेरी सरकार को क्या माइलेज मिलेगा. इसकी पब्लिसिटी कहाँ है?"
ये मोदी का तरीका था. एक वरिष्ठ अफ़सर के मुताबिक़, "अफ़सरों ने मोदी जी के दिल्ली जाने पर थोड़ी चैन की सांस भी ली थी क्योंकि प्रेशर बहुत ज़्यादा रहता था".
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आनंदीबेन के समय ऐसा क्या हुआ?
आनंदीबेन के कमान संभालते ही चीज़ें बदलने लगीं थी. उन्हें करीब से जानने वालों की राय अच्छी हो या बुरी, एक तरह की ही है.
ज़्यादतार मानते हैं कि मोदी के बाद आनंदीबेन ही वो कद्दावर नेता थीं जिन्हें कमान मिलनी चाहिए थी और ख़ुद मोदी ने उन्हें चुना था.
वे शिक्षा और रेवेन्यू जैसे अहम मंत्रालय भी संभाल चुकी थीं. आनंदीबेन के राज में सचिवालय में मंत्रियों और पार्टी नेताओं का आना-जाना भी बढ़ गया था.
लेकिन उनकी 'दिक्कत उनका मिजाज़ था क्योंकि पल में क्रोधित और दूसरे पल में सामान्य हो जाती थीं'.
इनके कार्यकाल में कन्याओं में स्कूली शिक्षा बढ़ाने का एक अभियान चला था जिसका नाम था 'कन्या केलवणी योजना.'
इस योजना से जुड़े एक बड़े अफ़सर इसी समय किसी कारणवश छुट्टी पर चले गए.
वापस लौटने पर मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने उन्हें और दो वरिष्ठ सचिवों को बुलाया और 'बिना कोई सवाल किए सरकारी अफसरों के काम-काज के तरीकों पर 40 मिनट तक चिल्लाती रहीं."
जब आनंदीबेन चुप हो गईं तो तीन-चार मिनट की ख़ामोशी के बाद उस अफ़सर ने पूछा, "मैडम मीटिंग ख़त्म हो गई? हम लोग जाएँ?"
जवाब मिला, "हाँ-हाँ बिलकुल जाइए."
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जहाँ मोदी के तीनों कार्यकालों में भ्रष्टाचार के सीधे या बड़े आरोप नहीं लगे थे, आनंदीबेन सरकार में ये बढ़ने लगे, 'जिसका फ़ीडबैक सीधे मोदी के पास दिल्ली पहुँचता था."
अफ़वाहें जनता तक भी पहुँच रही थीं जिसका नुकसान प्रदेश भाजपा को साफ़ दिख रहा था.
दूसरी तरफ़ पटेल आंदोलन का बीज भी बोया जा चुका था. विजय रूपाणी की कहानी यहीं से शुरू हुई.
रूपाणी को न सिर्फ़ भाजपा प्रमुख अमित शाह बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी समर्थन मिल रहा था.
रूपाणी के बारे में आज भी आम राय यही है कि 'वे अच्छे आदमी हैं और उन तक पहुंचना भी मुश्किल नहीं."
गांधीनगर में जानकार बताते हैं, "रूपाणी सबसे मिलते जुलते हैं और मोदी-शाह की हर बात उनके लिए पत्थर की लकीर है. कुछ महीने पहले हाई कमान से कड़ा संदेश आया कि वे सार्वजनिक कार्यक्रमों में कम दिख रहे हैं. रूपाणी अगले दिन घर से दफ़्तर जाते समय एक छोटे से धार्मिक आयोजन में भी रुक गए. इसमें महज़ सौ-डेढ़ सौ लोग थे."
हाल ही में विजय रूपाणी के साथ घंटों बातचीत कर चुके एक व्यक्ति ने कहा, "दिक्कत यही है कि आम आदमी उन्हें आज भी भाजपा कार्यकर्ता ज़्यादा और मुख्यमंत्री कम समझता है."
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गुजरात के आम लोगों से भी ये सुनने को मिल रहा है कि "तीनों अलग किस्म के हैं." मीडिया में भी इस तरह के कयास लगने लगे हैं कि दरअसल बेहतर कौन था.
मोदी ने अपने मुखयमंत्री काल की शुरुआत में मीडिया से दूरियां रखनी शुरू कर दी थी. प्रमुख वजह थी साल 2002 में गोधरा कांड के बाद सरकार और नेतृत्व की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया में बदनामी.
शायद यही वजह थी कि 2003-04 से बतौर मुख्यमंत्री, मोदी ने टॉप पीआर और ब्रैंड मैनेजमेंट एजेंसियों का इस्तेमाल शुरू कर दिया था.
अपनी छवि को लेकर वे इतने सतर्क हो गए थे कि 'कैमरा शूट्स के दौरान किस ऐंगल से फ़ोटो खींचेगी ये फ़ैसला भी वही करते थे. प्रचार सम्बंधित तस्वीरों और स्लोगनों को वो ही फ़ाइनल करते थे और न जाने कितनी तस्वीरें रिजेक्ट हुई होंगी."
एक जानकार ने बताया, "अपनी ब्रैंड इमेज बढ़ाने के सिलसिले में उन्हें आंध्र प्रदेश और चंद्रबाबू नायडू का मॉडल बताया गया. कॉरपोरेट जगत से बिज़नेस करने का मॉडल उन्होंने यही से अपनाया."
विश्लेषक बताते हैं पार्टी से ज़्यादा मोदी को प्रदेश में इसका लाभ हुआ और यही वजह है कि 2017 के चुनावों में मोदी को ख़ुद वोट मांगने के लिए उतरना पड़ा है.
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