क्या कन्हैया के जरिये बिहार में अपने पुनर्जीवन की उम्मीद में है भाकपा?
नई दिल्ली। लंबे समय बाद ऐसा हो रहा है जब लोकसभा चुनाव में बिहार की बेगूसराय संसदीय सीट खासी चर्चा में आ गई है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी कन्हैया कुमार हैं। कन्हैया कुमार जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे हैं और उन पर विश्वविद्यालय परिसर में भारत विरोधी नारे लगाने का आरोप लगाया गया था। एक दूसरी वजह से भी बेगूसराय पर बहुत बातें हो रही हैं। वह है वहां से भाजपा द्वारा गिरिराज सिंह को प्रत्याशी बनाना जिस पर वह खुद नाराजगी जता रहे हैं। गिरिराज सिंह केंद्र सरकार में मंत्री हैं लेकिन उन्हें उनकी सीट से टिकट नहीं दिया गया है। एक तीसरी बड़ी बात है राज्य के महागठबंधन में वामदलों को शामिल न किया जाना। पहले यह माना जा रहा था कि बिहार में भाजपा विरोधी महागठबंधन में वामदल भी शामिल होंगे जिसकी एक तरह से पहल वामदलों द्वारा की गई थी। लेकिन अंतिम समय में यह परवान नहीं चढ़ सका। परिणाम यह रहा कि एक तरह से वाम दल अकेले पड़ गए। पहले यह भी कयास लगाए जा रहे थे कि अगर वाम दलों को शामिल किया गया, तो बेगूसराय सीट भाकपा को जा सकती है जिसका दावा पार्टी काफी पहले से कर रही थी और जहां लंबे समय से कन्हैया कुमार प्रचार अभियान में लगे हुए थे।
बेगूसराय की सीट छोड़ने को तैयार नहीं थी भाकपा
दरअसल, भाकपा इस चुनाव में बेगूसराय की सीट किसी भी हालत में छोड़ने को तैयार नहीं थी। महागठबंधन में शामिल होने की स्थिति में भी इसकी संभावना एक तरह से नगण्य ही थी। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह बताया जा रहा है कि भाकपा के भीतर यह उम्मीद जगी है कि कन्हैया कुमार के बहाने वह राज्य में अपने खोए जनाधार को पुनर्जीवित कर सकती है। इसके पीछे कन्हैया कुमार की पूरे देश में बढ़ी लोकप्रियता रही है जिसको पार्टी भुनाना चाहती है। भाकपा मानकर चल रही है कि कन्हैया की युवाओं में पैठ बढ़ी है। इतना ही नहीं, वह भाजपा विरोध की मजबूत कड़ी भी बन चुकी है। दूसरी ओर कभी राज्य में बड़ी ताकत के रूप में जानी जाने वाली यह देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी लंबे समय से हाशिये पर जा चुकी थी। हालांकि अभी भी कई इलाकों में उसका पारंपरिक जनाधार है। लेकिन वह इतना हतोत्साहित लगता रहा है कि उसमें शायद प्रभावी हस्तक्षेप की ताकत नहीं रह गई थी। अब जबकि उसके पास एक राष्ट्रीय स्तर पर जाना-पहचाना नाम मिल गया है, तो उसमें आशा की किरण जगी है कि नए सिरे से कुछ हो सकता है।
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बेगूसराय के जरिए खुद को मजबूत करने की कोशिश में भाकपा
इसे समझने के लिए बिहार और बेगूसराय में भाकपा का कुछ इतिहास भी देख लिया जाना चाहिए। बिहार में कभी भाकपा एक मजबूत राजनीतिक ताकत हुआ करती थी। 1972 में भाकपा विधानसभा में विपक्षी दल हुआ करती थी। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में उसे एक भी सीट नहीं मिल सकी। सन 2004 में भाकपा को भागलपुर की लोकसभा की सीट पर जीत मिली थी। 2014 और 2009 के लोकसभा चुनाव में भी बिहार से भाकपा को एक भी सीट नहीं मिल सकी थी। 2014 के चुनाव में भाजपा के भोला सिंह विजयी रहे। इस चुनाव में भाकपा तीसरे नंबर रही। तब पार्टी प्रत्याशी रहे राजेंद्र प्रसाद सिंह को करीब दो लाख वोट मिले थे। 2004 के चुनाव में भाकपा दूसरे स्थान रही थी। तब पार्टी प्रत्याशी शत्रुघ्न प्रसाद सिंह को करीब डेढ़ लाख से ज्यादा मत मिले थे। इस आधार पर भी भाकपा यह मानकर चल रही है कि इस बार के चुनाव में उसकी जीत हो सकती है और अगर ऐसा होता है तो इससे राज्य में उसे खुद को मजबूत करने में आसानी हो जाएगी।
वामपंथी दलों में एक खास तरह की निष्क्रियता या उदासीनता बढ़ने लगी थी
भाकपा की इस सोच के पूरा होने में सबसे बड़ी बाधा राजद नेता तेजस्वी यादव और उनके पिता लालू यादव की भूमिका को माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि तेजस्वी नहीं चाहते कि उनके बरक्स कन्हैया जैसा कोई नेता राज्य में उभरकर आ जाए और भविष्य में उनके लिए समस्या बन जाए। लालू प्रसाद भी इसी राय के माने जाते हैं। वैसे भी लालू क्यों चाहेंगे। जिस भाकपा अथवा वाम दलों को अपनी रणनीति के जरिये या तो अपनी पार्टी में मिला लेने की कोशिश की या खत्म करने की पूरी कोशिश की, उस दल को नए सिरे से पनपने का अवसर क्यों प्रदान करेंगे। यह भी एक इतिहास है कि जब लालू यादव की बिहार की सत्ता में तूती बोलती थी, तब उन्होंने राज्य के सभी वाम दलों के विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल करवा लेने का काम किया था। हालांकि एक तथ्य यह भी है कि धीरे-धीरे खुद वामपंथी दलों में एक खास तरह की निष्क्रियता या उदासीनता बढ़ने लगी थी। उदारीकरण और सामाजिक न्याय आंदोलनों की वजह से तो इस राजनीति को काफी नुकसान पहुंचा ही था। बहरहाल, राज्य में धीरे-धीरे वाम दल सिमटते चले गए। इस सबके बावजूद अगर कोई पार्टी अपना कुछ अस्तित्व बचा सकी है, तो वह भाकपा माले रही है जो बीते विधानसभा चुनाव में भी तीन सीटें जीतने में सफल हो गई थी।
कन्हैया हैं बेगूसराय से सीपीआई के उम्मीदवार
अब जबकि चुनाव की दुंदुभी बज चुकी है और प्रत्याशियों का ऐलान हो चुका है, तब एक तरह से साफ हो चुका है कि कम से कम बेगूसराय में भाकपा मजबूती से लड़ने जा रही है। राजनीतिक हलकों में ही यह कहा जाने लगा है कि परिणाम कुछ भी हो, भाजपा और राजद के लिए भी यह चुनाव आसान नहीं रह गया है। गिरिराज सिंह की नाराजगी की वजह से भाजपा के अंदरूनी झगड़े को लेकर भी कन्हैया को लेकर कयास लगाए जा रहे हैं कि कन्हैया मजबूती से लड़ सकते हैं। बीते चुनावों में इस सीट पर भाकपा प्रत्याशी के दूसरे-तीसरे स्थान पर रहने के कारण पार्टी को यह उम्मीद लग रही है कि बदली परिस्थितियों में उसे जीत मिल सकती है। अगर ऐसा हुआ, तो पूरे देश में उसके पक्ष में भिन्न राय बनने की स्थितियां पैदा हो सकेंगी। इसके अलावा, पार्टी को एक ऐसा नेता मिल जाएगा जिसके जरिये वह नए सिरे से खुद को स्थापित करने की कोशिश कर सकेगी। लेकिन अभी यह सब कुछ चुनाव परिणामों पर ही निर्भर करेगा क्योंकि भाजपा से लेकर राजद तक इस प्रतिष्ठा की सीट पर अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए हरसंभव कोशिश करेंगे।