क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

भारत छोड़ो आंदोलन: जब 1942 में बलिया, तमलुक और सतारा में बन गईं थीं आज़ाद सरकारें

नौ अगस्त 1942 को महात्मा गांधी के आहवान पर शुरू हुआ 'भारत छोड़ो' आंदोलन कई मायनों में अलग था. बात उस आंदोलन में देश के कुछ हिस्सों में बनी 'आज़ाद सरकारों' की.

By BBC News हिन्दी
Google Oneindia News
नेहरू और गांधी
Getty Images
नेहरू और गांधी

नौ अगस्त 1942 को मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में महात्मा गांधी ने अंग्रेज़ों से तुरंत भारत छोड़ने को कहा और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे शक्तिशाली आंदोलन की शुरूआत की. गांधी ने भारत को 'करो या मरो' का नारा दिया तो अंग्रेज़ी हुकूमत ने उसका जवाब भारी दमन से दिया.

कांग्रेस की तो पूरी कार्यसमिति को गिरफ़्तार कर लिया गया, साथ ही देश में आपातकाल जैसी स्थिति बनाकर प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिए, कई जगहों पर कर्फ्यू लगा दिया तथा शांतिपूर्ण प्रदर्शनों और हड़तालों पर भी रोक लगा दिए.

जर्मनी का आक्रमण झेल रहे यूरोप को लोकतंत्र देने के लिए लड़ाई का दावा करने वाली सरकार भारत में हिटलर जैसा ही फ़ासिस्ट व्यवहार कर रही थी.

लेकिन जनता ने इस बार कमर कस ली थी, करो या मरो का जादुई असर हुआ था. पहले दो दिन पूरी तरह से शांतिपूर्ण आंदोलन हुए थे लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने जब उन पर भी लाठियाँ और गोलियाँ चलाईं तो जनता ने भी पत्थर उठा लिए.

दमन के बावजूद पूरे देश में शिक्षा संस्थानों के बहिष्कार, सरकारी इमारतों पर धावा बोलने, डाक और रेल संचार में बाधा पहुँचायी गई.

गांधीजी से जब बाद में जनता की इस हिंसा पर सवाल किये गए तो उन्होंने स्पष्ट कहा- इस हिंसा के लिए ज़िम्मेदार ब्रिटिश प्रशासन है.

आज़ादी का जज़्बा किस क़दर भरा हुआ था यह इसी बात से समझा जा सकता है कि कम से कम तीन जगहों पर इस दौर में आज़ाद सरकारें बना ली गई थीं.

भारत छोड़ो आंदोलन में कहां था आरएसएस?

बलिया की राष्ट्रीय सरकार और चित्तू पांडे

उत्तर प्रदेश में आंदोलन में तेज़ी तब आई जब इलाहाबाद में 12 अगस्त को निकले छात्रों के आंदोलन पर लाठीचार्ज और गोलीबारी की गई. कई छात्र-छात्राएं घायल हुए और एक छात्र शहीद हुआ. लोगों का गुस्सा भड़क उठा और ईस्ट इंडिया रेलवे स्टेशन पर भारी तोड़-फोड़ हुई.

इसके एक दिन पहले ही बलिया में 15,000 लोगों का एक भारी जुलूस निकला था, जिसका एक जत्था ज़िला अदालत की ओर जा रहा था. इसे रोकने पुलिस एक मजिस्ट्रेट को लिए पहुँची और इधर से पत्थर चले तो उधर से गोलियाँ. सौ से अधिक छात्र घायल हुए तथा एक छात्र शहीद हो गया.

14 तारीख तक आंदोलन ऐसे ही चलता रहा. छात्रों ने स्थानीय रेलवे स्टेशन को जला दिया और अदालत में भी तोड़-फोड़ की. रसड़ा सब डिवीजन में खजाने और फिर थाने पर आक्रमण किया गया और राष्ट्रीय झण्डा फहरा दिया गया.

भीड़ बैरिया थाने पहुँची तो थानेदार रामसुंदर सिंह ने झण्डा तो फहराने दिया लेकिन हथियार के लिए अगले दिन का बहाना किया. अगले दिन जब जनता पहुँची तो थानेदार ने धोखा दिया और गोलीबारी में 19 लोग मारे गए, लेकिन जनता डटी रही और अंत में उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा.

ऐसा ही धोखा नायब तहसीलदार रसड़ा, आत्माराम ने भी किया था जिसमें तीन लोग मारे गए और कई घायल हुए, लेकिन जनता के जोश के आगे वह भी नहीं टिक सका. भीड़ जब बलिया पहुँची तो ज़िला मजिस्ट्रेट ने घबराकर कांग्रेस के स्थानीय नेता चित्तू पांडे के साथ सभी राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया.

19 अगस्त को फिर गोलीबारी हुई लेकिन अब ज़िले में अंग्रेज़ी प्रशासन पूरी तरह पंगु हो चुका था और जनता ने चित्तू पांडे के नेतृत्व में राष्ट्रीय सरकार की घोषणा कर दी. अगले दो हफ़्ते 'बाग़ी' बलिया आज़ाद रहा.

भारत छोड़ो आंदोलनः आज़ादी से पहले ऐसे छिड़ा था ये बड़ा संघर्ष

आंदोलन को दबाने की कोशिश

गोवालिया टैंक मैदान
Getty Images
गोवालिया टैंक मैदान

आंदोलन को दबाने के लिए सरकार ने मार्श स्मिथ और नीदरसोल के नेतृत्व में सेना भेजी. अनियंत्रित लूटमार, आगजनी, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार से दमन में लगभग 127 लोग मारे गए और 274 घायल हुए. कई लाख की संपत्ति लूटकर नीलाम कर दी गई.

एक मंदिर को सिर्फ़ इसलिए नष्ट कर दिया गया कि उस पर कांग्रेस का झण्डा लहरा रहा था. ढाई सौ मकान जला दिए गए. औरतों के साथ बलात्कार हुए और पाँच से छह सौ लोगों को जेल में डाल दिया गया, लेकिन बलिया की जनता ने बहादुरी से मुक़ाबला किया और अंग्रेज़ों को बलिया पर पूरी तरह से नियंत्रण पाने में महीने भर लग गया.

चित्तू पांडे की तलाश में कई गाँव जला दिए गए लेकिन वह अंग्रेज़ों के हाथ नहीं आए.

बलिया के इस आंदोलन का असर बगल के ग़ाज़ीपुर पर भी पड़ा और 19 अगस्त से 21 अगस्त तक ग़ाज़ीपुर भी आज़ाद रहा. क्रूरता और दमन की कहानी वहाँ भी दुहराई गई. 167 लोगों की हत्या, 3000 लोगों को गिरफ़्तारी और 32 लाख रुपये की संपत्ति नष्ट करके ही ग़ाज़ीपुर पर फिर नियंत्रण स्थापित किया जा सका.

सीमावर्ती प्रांत बिहार में भी कई जगह राष्ट्रीय सरकार बनाने की कोशिशें हुईं. पटना में लगभग तीन दिन ब्रिटिश प्रशासन ठप रहा, मुंगेर में अधिकांश थाने कुछ समय के लिए जनता के नियंत्रण में आ गए, चंपारण, बेतिया, भागलपुर, मोतीहारी, सुल्तानपुर, संथाल परगना जैसी कई जगहों पर आंदोलनकारी थोड़े समय के लिए नियंत्रण करने में सफल हुए हालाँकि ये दीर्घजीवी नहीं हो सकीं.

अरुणा आसफ़ अली: जो जेल में लगाती थीं 'भगत सिंह ज़िंदाबाद' के नारे

तमलुक की जातीय सरकार

बंगाल के मिदनापुर ज़िले में तमलुक और कोनताई तालुका के लोग पहले से ही सरकार से नाराज़ थे. जापानी सेना के समुद्र मार्ग से इन इलाक़ों में उतरने की आशंका से नावों, बैलगाड़ियों, साइकलों, बसों और सभी दूसरे वाहनों पर रोक लगा दी गई थी, यही नहीं यहाँ से चावल बाहर ले जाया जाने लगा.

साथ ही कोनताई-रांची मार्ग पर हवाई अड्डा बनाने के लिए ज़मीनें ली गई थीं तो वहाँ के किसान भी नाराज़ थे. न काम करने वालों को उचित मज़दूरी दी गई थी न ही ज़मीनों का उचित मुआवज़ा.

यहाँ आंदोलन की तैयारी पहले ही शुरू हो चुकी थी. कांग्रेस ने 5000 युवाओं का एक दल संगठित किया था, एक कताई केंद्र खोलकर रोज़गार से वंचित 4000 लोगों को रोज़गार दिया गया और एक एम्बुलेंस की भी व्यवस्था कर ली गई थी.

9 अगस्त से ही यहाँ आंदोलन शुरू हो गया. सामूहिक प्रदर्शन, शैक्षणिक संस्थाओं में हड़ताल और बहिष्कार, डाकघरों तथा थानों पर नियंत्रण की कोशिश की गई. लेकिन मामले ने तेज़ी पकड़ी जब जनता ने अंग्रेज़ी प्रशासन को चावल बाहर ले जाने से रोका.

8 सितंबर को जनता पर गोली चलाई गई लेकिन तुरंत प्रतिरोध की जगह अगले बीस दिन तैयारी की गई और 28 सितंबर की रात सड़कों पर पेड़ काटकर उन्हें रोक दिया गया, तीस पुलियों को तोड़ दिया गया, टेलीग्राफ के तार काट दिए गए और 194 खंभे उखाड़ दिए गए.

तमलुक तब रेल से नहीं जुड़ा था तो देश से सारा संपर्क टूट गया. अगले दिन क़रीब 20000 लोगों की भीड़ ने इलाक़े के तीन थानों पर हमला बोल दिया.

एक नौजवान रामचन्द्र बेरा की मौत हुई. अदालत की ओर जा रहे जुलूस का नेतृत्व कर रहीं 62 वर्ष की मातंगिनी हाज़रा दोनों हाथों और माथे पर गोली लगने के बाद भी कांग्रेस का झण्डा नहीं छोड़ा.

इस दिन 44 लोग मारे गए तथा अनेक घायल लेकिन आन्दोलनकारी तमलुक और कोनताई में ताम्रलिप्ता जातीय सरकार का गठन करने में सफल हुई जो अंग्रेज़ों की इंतहाई बर्बर कोशिशों के बावजूद अगस्त 1945 में गांधीजी द्वारा कांग्रेस कार्यकर्ताओं से भूमिगत आंदोलन समाप्त करके खुल के आने की अपील तक चली.

भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह जिन्होंने कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ छेड़ा था पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन

मातंगिनी हाज़रा का अविस्मरणीय बलिदान

जल्द ही इसका असर महिषादल, मिदनापुर और नंदीग्राम तक फैल गया. इस सरकार के असर को इसी बात से समझा जा सकता है कि 25 सितंबर 1945 को गांधीजी तमलुक आए. वहाँ से वह महिषादल, कोनताई और मिदनापुर भी गए तथा इस आंदोलन की भूरि-भूरि प्रशंसा की. इस आंदोलन के नेता थे सतीश कुमार सामंता.

तमलुक की सरकार ने अपनी पुलिस और विद्युत वाहिनी नाम की सेना भी स्थापित की थी. इसका अपना गुप्तचर विभाग, न्यायालय, जेल और अन्य विभाग तो थे ही डाक और प्रचार विभागों की भी स्थापना की गई थी. विप्लवी नाम से एक अखबार भी निकाला गया था जो साइक्लोस्टाइल होकर बड़े पैमाने पर बँटता था.

वर्ष 2002 में ताम्रलिप्ता (तामलुक) सरकार की स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया गया जिसमें मातंगिनी हाज़रा की तस्वीर है.

बांग्लादेश बनाने में इंदिरा गाँधी ने जब गुटनिरपेक्ष छोड़ सोवियत से हाथ मिलाया

सतारा की राष्ट्रीय सरकार

भारत छोड़ो आंदोलन का महाराष्ट्र में गहरा असर हुआ था लेकिन सतारा के नाना पाटील ने तो इतिहास रच दिया था.

शिवाजी के वंशजों की इस राजधानी में इस बार कमान आम जनता और किसानों ने संभाली थी. बंबई (अब मुंबई) में कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं की गिरफ़्तारी की मुखालिफ़त यहाँ तुरंत शुरू हो गई और पाँच-छह हज़ार की संख्या में लोग शांतिपूर्ण रूप से तालुका कार्यालय पहुँचे.

कचहरी की तरफ़ जा रहे जुलूस पर पुलिस ने अचानक गोली चलाई. जुलूस का नेतृत्व कर रहे परशुराम गर्ग सहित आठ लोग मारे गए 38 लोग घायल हुए. 7 सितंबर को इस्लामपुर जा रहे जुलूस पर गोली चलाकर फिर 12 लोगों को मार दिया गया. इसके बाद आंदोलन भूमिगत हो गया.

यहाँ भी टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार काटे गए, खंभे उखाड़े गए और सरकारी भवनों पर आक्रमण किये गए. जल्द ही सतारा को शेष प्रदेश से काट दिया गया और राष्ट्रीय सरकार की घोषणा की तैयारी होने लगी.

अंग्रेज़ों ने आंदोलन भंग करने के लिए अपराधियों को जेलों से रिहा कर दिया लेकिन राष्ट्रीय सरकार के कार्यकर्ताओं ने उन पर नियंत्रण कर योजना विफल कर दी. 1942 के अंत तक लोगों ने ग्राम गणराज्यों की स्थापना शुरू कर दी और जनता के राज की घोषणा कर दी.

कई सामाजिक सुधार

नानाजी पाटिल के नेतृत्व में इस सरकार ने केवल प्रशासनिक नहीं बल्कि सामाजिक सुधार भी किये जिसमें बाल विवाह पर प्रतिबन्ध, शराबबंदी, सस्ते विवाह, प्राइमरी शिक्षा तथा वयस्क शिक्षा आदि के कार्यक्रम शामिल थे.

येरवदा जेल से फ़रार होकर किसन वीर ने सतारा को शेष राज्य से काटे रहने का जिम्मा संभाला तो अप्पा मास्टर ने तूफ़ान सेना का गठन किया जिसने राष्ट्रीय सरकार की पुलिस की तरह काम किया.

नाना पाटिल की वीरांगना पत्नी लीलाबाई पाटिल को गिरफ़्तार कर लिया गया था लेकिन वह जेल से भागने में सफल रहीं और भूमिगत कार्यकर्ताओं में शामिल हो गईं.

आंदोलन के अन्य नेताओं में डा उत्तमराव पाटिल प्रमुख थे. अगले चार वर्षों तक इन आंदोलनकारियों ने सतारा पर अंग्रेज़ों का नियंत्रण नहीं होने दिया.

जनता के इन संघर्षों की वजह से ही 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन भारतीय आज़ादी के इतिहास में एक मील का पत्थर बन गया.

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)

BBC Hindi
Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
independent governments in Ballia Tamluk and Satara In 1942
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X