सभी तो हैं शहीद सौरभ कालिया के गुनहगार
नई दिल्ली(विवेक शुक्ला) सौरभ कालिया धऩी परिवार से संबंध रखते थे। चाहते थे तो मौज से जिंदगी गुजार सकते थे। पर देशभक्ति के जज्बे के चलते उन्होंने सेना की नौकरी ज्वाइन की। सिर्फ 22 साल के थे और कारगिल युद्ध में सबसे पहले उन्होंने ही इस खबर की पुष्टि की थी कि पाकिस्तानी सेना और उसके घुसपैठिए भारतीय पहाड़ों की चोटी पर चढ़ आए हैं।
दी थी यातनाएं
इन्हें खदेड़ने के लिए कैप्टन सौरभ कालिया अपने साथियों अर्जुन राम, भंवर लाल बघेरिया, बीकाराम, मूलाराम और नरेश सिंह के साथ नियंत्रण रेखा पर काफी आगे चले गए और वहां जब पूरे दिन की गश्त के बाद रात को हमला करने की योजना बना कर ये आराम कर रहे थे तो जाट रेजीमेंट के इन सभी अफसरों का अपहरण पाकिस्तानी सैनिकों ने कर लिया। उन्हें बर्बर यातनाएं दी गई, उनकी आंखें निकाल ली गई और फिर गले काट दिए गए। लाशें भारतीय सीमा में फेंक दी गई।
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नहीं किया इंसाफ
वाजपेयी सरकार से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार तक सौरभ कालिया और उनके किसी साथी को वीरता का कोई पदक नहीं मिला। सौरभ लेफ्टिनेंट से कैप्टन बनने के बाद अपना पहला वेतन भी नहीं ले पाए थे। आखिरी चिट्ठी में उन्होंने लिखा था कि मैं दुश्मन को हरा कर और अपना वेतन ले कर घर आऊंगा और तब हम पार्टी करेंगे।
वरिष्ठ लेखक मोहम्मद जाहिद ने ठीक ही कहा कि भाजपा जब विपक्ष में थी तो सौरभ कालिया के साथ हुए इस अमानवीय व्यवहार को विश्व अदालत में उठाने के लिए दिन प्रतिदिन चिल्ल पों किया करती थी। संसद से लेकर सड़क तक राजनीति और भाषणबाजी से जितना लाभ लेना था ले चुकी।
भाजपा की कथनी-करनी
दोगला चरित्र देखिए कि इसी भाजपा के विदेश राज्य मंत्री तथा पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने घोषणा कर दी कि शहीद सौरभ कालिया का मामला विश्व अदालत में चलाना संभव ही नहीं और ना सरकार ऐसा करने जा रही है। जाहिर है, देश उन्हें माफ नहीं करेगा जो अपने वीर जवानों का अपमान करते हैं।