Gyanvapi Masjid: 1991 के जिस कानून की दलील दे रहा है मुस्लिम पक्ष, वह सवालों के घेरे में क्यों है ?
वाराणसी, 18 मई: काशी के ज्ञानवापी मस्जिद विवाद में एक कानून की बहुत ज्यादा चर्चा हो रही है, वह है उपासना स्थल कानून-1991. इसी के आधार पर मुस्लिम पक्षों की दलील रही है कि ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के अंदर वाराणसी कोर्ट का सर्वे कराने का आदेश गलत है। क्योंकि, यह कानून ऐसे किसी भी विवादित धार्मिक स्थल में दूसरे पक्ष के लिए किसी भी तरह के बदलाव पर रोक लगाता है। यानी 15 अगस्त, 1947 तक जो भी ढांचा या उपासना स्थल जिस भी पार्टी के कब्जे में था, वह उसी के पास रहेगा, चाहे इतिहास में उसे किसी भी तरह से ही हासिल क्यों न किया गया हो। लेकिन, यह कानून खुद ही पहले से विवादों में रहा है और मौजूदा स्थिति में उसकी संवैधानिक स्थिति को जानना भी जरूरी है।
मुस्लिम पक्ष दे रहा है 1991 के कानून का हवाला
ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर जारी विवाद में 1991 के उपासना स्थल कानून का खूब जिक्र हो रहा है। खासकर मुस्लिम पक्ष यही दलील दे रहा है कि जब यह कानून 15 अगस्त, 1947 के बाद किसी भी उपासना स्थल में कोई भी छेड़छाड़ या उसके स्वरूप में बदलाव को रोकता है तो फिर ज्ञानवापी परिसर के भीतर सर्वे का आदेश कैसे दिया जा सकता है। या फिर मस्जिद परिसर के भीतर मौजूद उस वजूखाने को कैसे सील किया जा सकता है। एआईएमआईएम के चीफ असुदुद्दीन ओवैसी भी इसी कानून की दुहाई देते नहीं थक रहे हैं। इस कानून को लाने का वादा 1991 में लोकसभा चुनाव से पहले राजीव गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में किया था और फिर नरसिम्हा राव की सरकार ने उसे अमलीजामा पहनाया था।
कांग्रेस भी दे रही है 1991 के कानून की दुहाई
ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में शिवलिंग मिलने के दावे के मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू होने पर कांग्रेस की ओर से आधिकारिक बयान दिया गया कि उसे उम्मीद है कि सर्वोच्च अदालत इस विवाद का निपटनारा 1991 के उपासना स्थल कानून के आधार पर ही करेगा, जिस के तहत उसने अयोध्या की बाबरी मस्जिद विवाद पर फैसला सुनाया था। क्योंकि, सिर्फ इस कानून की धारा-5 के तहत अयोध्या विवाद को अलग रखा गया था, जिसके कारण सुप्रीम कोर्ट इसपर फैसला सुना सका। कांग्रेस प्रवक्ता अजय माकन ने कहा कि अयोध्या विवाद का फैसला 1991 के उपासना स्थल कानून पर आधारित था और सभी ने उसका स्वागत किया था। इसलिए उन्हें उम्मीद है कि ज्ञानवापी केस में भी यही नजरिया अपनाया जाना चाहिए। उधर राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, 'ज्ञानवापी का मामला कोर्ट में है। लेकिन, सभी मस्जिदों, मंदिरों और दूसरे धर्म स्थलों की स्थिति वैसी ही बनाई रखनी है, जैसी 1947 में थी। हालांकि कुछ, लोगों को बांटना चाहते हैं।'
क्यों सवालों के घेरे में है 1991 का कानून ?
लेकिन, 1991 में कांग्रेस की सरकार की ओर से बनाए गए जिस कानून की बात की जा रही है, वह पहले से विवादों के घेरे में रहा है। इस कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पहले से ही कम से कम दो याचिकाएं लंबित पड़ी हैं। एक याचिका याचिका लखनऊ के विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ और दूसरी बीजेपी नेता ओर वकील अश्विनी उपाध्य की ओर से डाली गई है। उपाध्याय की याचिका के मुताबिक यह कानून पूजा स्थलों और तीर्थों पर किए गए अवैध अतिक्रमण के खिलाफ वैधानिक उपायों पर रोक लगाता है। यानी हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख केस नहीं कर सकते या संविधान के आर्टिकल 226 के तहत हाई कोर्ट नहीं जा सकते। इसमें कहा गया है 'इसके चलते वे आर्टिकल 25-26 की भावना के तहत मंदिर समेत अपने पूजा स्थलों और तीर्थों को बहाल करने में सक्षम नहीं होंगे और आक्रमणकारियों के द्वारा किए गए अवैध बर्बर कार्य अनंतकाल तक जारी रहेंगे।'
सुप्रीम कोर्ट की नोटिस का केंद्र को देना है जवाब
इस बीच अश्विनी उपाध्याय ने इनकोनॉमिक टाइम्स से कहा है, 'हिंदू धर्म में एक बार भगवान की प्राण प्रतिष्ठा हो जाने के बाद, वह स्थान मंदिर बन जाता है। सर्वे होने दीजिए और सच्चाई सामने आने दीजिए। स्थान का चरित्र नहीं बदलता।' सुप्रीम कोर्ट ने उपाध्याय की याचिका पर 2021 के मार्च में ही नोटिस जारी किया था, लेकिन केंद्र ने अभी तक जवाब दाखिल नहीं किया है। वहीं वीएचपी के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार का कहना है कि 1991 में यह कानून विभिन्न समुदायों से चर्चा या विचार के बिना ही पास कर दिया गया था। वे बोले, 'इस कानून की संवैधानिकता को पहले ही चुनौती दी जा चुकी है। मैं इस कानून के प्रावधानों को अंतिम नहीं मानता। सुप्रीम कोर्ट इस मसले को देख रहा है और तब हमारे पास कोई आइडिया होगा। '
1991 के कानून पर संघ को क्या आपत्ति है?
आरएसएस के विचारक सेषाद्रि चारी का आरोप है कि यह कानून 'राम जन्मभूमि आंदोलन को कुचलने के लिए लाया गया था।' उनके मुताबिक, 'आरएसएस ने इसका कड़ा विरोध किया था,क्योंकि हमारा स्पष्ट मानना था कि तीन मंदिरों अयोध्या, काशी और मथुरा हमारे धर्म के सबसे बड़े प्रतीक हैं और उनके लिए कुछ व्यवस्था होनी चाहिए। लेकिन, यह कानून मंदिर आंदोलन में शामिल किसी भी ग्रुप से बिना कोई विचार किए गए लाया गया था। और 15 अगस्त, 1947 की तारीख क्यों फिक्स होनी चाहिए, जबकि हमारी सभ्यता स्पष्ट रूप से कई शताब्दी पुरानी है। यह जल्दबाजी में लाया गया कानून था, जिसके चुनौतीपूर्ण परिणाम सामने आए।'
मौजूदा केस से हिंदू पक्ष की बढ़ी है उम्मीद
सोमवार को ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में जिस शिवलिंग के मिलने की बात हो रही है, उसे हिंदू पक्ष इस कानून से छूट पाने के एक बड़े कारण के तौर पर देख रहा है। उनका कहना है कि वकीलों के लिए इस कानून के खिलाफ यह एक बड़ा आधार है, जिसके दम पर वह इस कानून से मुक्ति का दावा कर सकते हैं। पहले शिवलिंग वाले कुएं को सील किए जाने के वाराणसी कोर्ट का आदेश और फिर उस आदेश को बरकरार रखने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला, दोनों ने इनकी कानूनी दलीलों को और मजबूत किया है। इसी आधार पर मंगलवार को एक याचिका ये भी डाल दी गई है कि काशी विश्वनाथ मंदिर में नंदी जी के सामने वाली सेल को हटा दिया जाए और वजूखाने के ढांचे को पूजा के लिए खोल दिया जाए। जबकि, माता श्रृंगार गौरी के मामले को लेकर तो यह सर्वे चल ही रहा है।
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क्या सरकार इस कानून में संशोधन कर सकती है?
दरअसल, उपासना स्थल कानून-1991 में यह व्यवस्था की गई है कि 15 अगस्त, 1947 के पहले के भारत में जितने भी धार्मिक या उपासना से जुड़े स्थान हैं, उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा, वह जिनके कंट्रोल में हैं, उसपर उन्हीं का अधिकार रहेगा, उसके धार्मिक स्वरूप और संरचना में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं तत्कालीन कांग्रेस सरकार के बनाए इस कानून के दायरे में पुरातत्व महत्त्व की इमारतों जैसे कि ताजमहल, कुतुब मीनार या चार मीनार भी आती हैं। लेकिन, यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि यह मात्र संसद से पास एक कानून है, जिसकी संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट पहले से ही विचार कर रहा है और केंद्र सरकार जब भी चाहे इसमें संसद के जरिए संशोधन करने के लिए स्वतंत्र है।