कॉलेजियम: सरकार और सुप्रीम कोर्ट की रस्साकशी को आसान भाषा में समझें
जजों की नियुक्ति कौन और कैसे करे, इस सवाल के जवाब में ही भारत की न्याय व्यवस्था का भविष्य छिपा हुआ है.
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव कोई नई बात नहीं है, लेकिन पिछले कुछ समय से टकराव गहराता दिख रहा है, ख़ास तौर पर केंद्रीय कानून मंत्री के उस बयान के बाद जिसमें उन्होंने कॉलेजियम सिस्टम को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं.
कॉलेजियम सिस्टम वह प्रक्रिया है जिससे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति और तबादले किए जाते हैं.
कॉलेजियम शब्द आपको सुनने में आपको तकनीकी लग सकता है, लेकिन इसे समझना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इसी से तय होगा है कि आपके यानी आम नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने वाली संस्था न्यायपालिका को कौन और कैसे चलाएगा.
ताज़ा बहस तब शुरू हुई जब 25 नवंबर को केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने जजों की नियुक्ति करने की पूरी प्रक्रिया को ही 'संविधान से परे' या एलियन बता दिया.
केंद्रीय कानून मंत्री ने याद दिलाने की कोशिश की कि "सुप्रीम कोर्ट ने अपनी समझ और कोर्ट के ही आदेशों को आधार बनाते हुए कॉलेजियम बनाया है."
उन्होंने पूछा, "आप ही बताइए कि कॉलेजियम सिस्टम का संविधान में कहाँ ज़िक्र है?" केंद्रीय कानून मंत्री की यह बात दुरुस्त है कि संविधान में कॉलेजियम का कहीं ज़िक्र नहीं है.
ऐसे में यह समझने की ज़रूरत है कॉलेजियम व्यवस्था क्या है, वह कैसे काम करती है, उसको लेकर सरकार की आपत्तियाँ क्या हैं, सरकार उसके बदले कैसी व्यवस्था चाहती है, और सरकार की पसंद वाली व्यवस्था की क्या ख़ामियाँ हो सकती हैं?
कॉलेजियम में परिवारवाद के आरोप
बीते लंबे वक़्त से यह बहस समय-समय पर उठती रहती है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जज चुने जाने की प्रक्रिया में भयंकर भाई-भतीजावाद है जिसे न्यायपालिका में 'अंकल कल्चर' कहते है, यानी ऐसे लोगों को जज चुने जाने की संभावना ज़्यादा होती है जिनकी जान-पहचान के लोग पहले से ही न्यायपालिका में ऊँचे पदों पर हैं.
कॉलेजियम भारत के चीफ़ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों का एक समूह है. ये पाँच लोग मिलकर तय करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में कौन जज होगा. ये नियुक्तियाँ हाई कोर्ट से की जाती हैं और सीधे तौर पर भी किसी अनुभवी वकील को भी हाई कोर्ट का जज नियुक्त किया जा सकता है.
हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति भी कॉलेजियम की सलाह से होती है जिसमें सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस, हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस और राज्य के राज्यपाल शामिल होते हैं.
कॉलेजियम बहुत पुराना सिस्टम नहीं है और इसके अस्तित्व में आने के लिए सुप्रीम कोर्ट के तीन फ़ैसले ज़िम्मेदार हैं जिन्हें 'जजेस केस' के नाम से जाना जाता है.
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कैसी पड़ी कॉलेजियम की बुनियाद
पहला केस 1981 का है जिसे एसपी गुप्ता केस नाम से भी जाना जाता है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जजों की नियुक्ति के लिए चीफ़ जस्टिस के पास एकाधिकार नहीं होना चाहिए और इस बात की ओर इशारा किया गया कि इसमें सरकार की भी भूमिका होनी चाहिए.
1993 में दूसरे केस में नौ जजों की एक बेंच ने कहा कि जजों की नियुक्तियों में चीफ़ जस्टिस की राय को बाकी लोगों की राय के ऊपर तरजीह दी जाए.
और फिर 1998 में तीसरे केस में सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम का आकार बड़ा करते हुए इसे पाँच जजों का एक समूह बना दिया.
सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव
सरकार और न्यायपालिका के बीच तनातनी की शुरूआत साल 2014 से होती है.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब देश में एनडीएन सरकार बनी तो केंद्र सरकार साल 2014 में ही संविधान में 99वाँ संशोधन करके नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन (एनजेएसी) अधिनियम लेकर आई.
इसमें सरकार ने कहा कि चीफ़ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट- हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की जगह अब एनजेएसी के प्रावधानों के तहत काम हो.
इस कमिशन में छह लोगों को सदस्य बनाने का प्रावधान किया गया है-
- चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया
- केंद्रीय क़ानून मंत्री
- सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठतम जस्टिस
- दो विशेषज्ञ
दो विशेषज्ञों का चयन चयन प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस के तीन सदस्यीय पैनल को करना था. यह प्रावधान भी किया गया कि दो विशेषज्ञ सदस्य हर तीन साल पर बदलते रहेंगे.
2014 में संविधान में संशोधन करके केंद्र सरकार ने कुछ और अहम बदलाव किए.
बड़ा बदलाव ये था कि संसद को यह अधिकार दिया गया कि वह भविष्य में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति से जुड़े नियम बना सकता है या उनमें फेरबदल कर सकता है.
अक्तूबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने इस नेशनल ज्युडिशियल अप्वाइंटमेंट्स कमीशन अधिनियम को "संविधान के आधारभूत ढांचे से छेड़छाड़" बताते हुए रद्द कर दिया.
सरकार के फ़ैसले पर सुप्रीम कोर्ट की आपत्ति क्या थी?
कोर्ट ने कहा था कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में संविधान में न्यायपालिका और चीफ़ जस्टिस की राय को तरजीह देने की बात कही गई है और सरकार का इस तरह का दख़ल संविधान की मूल भावना के खिलाफ़ है.
यहीं यह समझना ज़रूरी है कि संविधान में जजों की नियुक्ति को लेकर क्या कहा गया है?
संविधान में इसका कुछ विवरण दिया गया है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति कैसे हो.
इसके अनुसार, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के वरिष्ठ जजों से विचार-विमर्श करके ही राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करेंगे.
संविधान का अनुच्छेद 217 कहता है कि राष्ट्रपति हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया, राज्य के राज्यपाल और हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस से विचार-विमर्श करके निर्णय करेंगे.
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कोर्ट ने संविधान में लिखे शब्द 'कंसल्टेशन' की व्याख्या 'सहमति' के रूप में की यानी विचार-विमर्श को सीजेआई की 'सहमति' माना गया.
दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस आरएस सोधी कहते हैं, "संविधान में जो लिखा है उसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति चीफ़ जस्टिस से 'कंस्लटेशन' करेगें, न कि सहमति लेंगे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में विचार-विमर्श को सहमति में बदल दिया. मैं मानता हूँ कि संसद सुप्रीम है और अगर आप किसी प्रोविजन से सहमत नहीं हैं तो आप उसे संसद में दोबारा विचार के लिए भेजिए या उसे रद्द कर दीजिए."
जस्टिस सोधी कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट खुद के लिए कानून नहीं बना सकता, इसे 'हाइजैकिंग ऑफ़ पावर' कहते हैं जो सुप्रीम कोर्ट को नहीं करना चाहिए था लेकिन उन्होंने किया. आपने फ़ैसले सुनाए और वो अधिकार अपने पास रख लिए जो आपके पास नहीं, संसद के पास होने चाहिए. मेरा मानना है कि संविधान में कहा गया है कि राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करेगा और सीजेआई से हर पहलू पर चर्चा होगी. लेकिन राष्ट्रपति संसद का मुखिया होता है और वह मंत्रिमंडल की सलाह पर ही काम करता है, ऐसे में सीजेआई को सुपीरियर कैसे बनाया जा सकता है?"
सरकार और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन
संविधान में सरकार और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का बँटवारा स्पष्ट तौर पर दिया गया है.
सुप्रीम कोर्ट का काम है कि संविधान और लोगों के मौलिकर अधिकारों की रक्षा करे और इसके लिए वह विधायिका के उन फ़ैसलों की समीक्षा भी कर सकता है जो उसके अनुसार संविधान की मूल भावना के अनुकूल न हों.
पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल विकास सिंह जस्टिस सोधी से ठीक उलट राय रखते हैं. वे कहते हैं, "हालाँकि मैं इस बात का पक्षधर हूँ कि जजों की नियुक्ति में सरकार का कोई दख़ल नहीं होना चाहिए , न ही ये ज़िम्मेदारी सरकार के पास होनी चाहिए क्योंकि अपने फ़ायदे के लिए सरकार नहीं चाहेगी कि सही लोग नियुक्त किए जाएँ."
यह सवाल भी उठता है कि जब सरकारें ही जज नियुक्त करेंगी तो सरकार को चुनौती देने वाले जनहित के मुकदमों में किस हद तक न्याय की उम्मीद की जा सकती है, क्योंकि सरकार का चुना हुआ व्यक्ति सरकार के फ़ैसले को ग़लत ठहराए, इसकी कितनी उम्मीद की जा सकती है?
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विकास कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट ने जो किया वह सही व्याख्या थी. संविधान एक ऐसा दस्तावेज है जो इवॉल्व होते रहना चाहिए, सुप्रीम कोर्ट ने अपने कंधों पर बड़ी ज़िम्मेदारी ली थी लेकिन जजों की चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता न लाकर वह उन ज़िम्मेदारियों पर खरा नहीं उतर पा रहे हैं."
वे कहते हैं, "मुझे लगता है कि कॉलेजियम एक सही तरीका था लेकिन वक्त के साथ वह अपना वो काम नहीं कर सका, जिस उम्मीद से उसका गठन किया गया था, वैसा नहीं हुआ. जब से कॉलेजियम बना है तब से उसने योग्यता के आधार पर नियुक्ति और इस सिस्टम में पारदर्शिता लाने के लिए कुछ नहीं किया है."
इस रस्साकशी का अंत कैसे हो?
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल ने किरेन रिजिजू के बयान पर आपत्ति जताते हुए कहा था, "ये हो सकता है कि आपको किसी कानून से शिकायत हो लेकिन जब तक वो कानून लागू है तब तक उसका सम्मान होना चाहिए. अगर आज सरकार किसी कानून को नहीं मानने की बात कर रही है, कल को किसी अन्य कानून पर लोग सवाल उठाते हुए उसे मानने से इनकार कर देंगे."
न्यायपालिका के कामकाज में पारदर्शिता लाने की माँग उठाते रहे विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं.
वे कहते हैं, "इमरजेंसी के समय जब सरकार ने न्यायपालिका में दख़ल दिया तो उसके बाद सुप्रीम कोर्ट संविधान की न्यायिक व्याख्या करके कॉलेजियम सिस्टम लाया, आज वो व्यवस्था पूरी तरह फेल हो गई है. किसी भी हालत में जजों को सियासत से दूर रखा जाना ज़रूरी है, लेकिन जज ही जजों की नियुक्ति करें, ये भी ग़लत है. जजों की निष्ठा संविधान के लिए होनी चाहिए, न कि किसी व्यक्ति के लिए."
साल 2015 में जब एनजेएसी को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया तो उस वक्त की जजों की पीठ ने माना कि कॉलेजियम की मौजूदा प्रणाली में दिक़्कतें हैं और उसे सुधारे जाने की ज़रूरत है.
विराग गुप्ता पूछते हैं, "सवाल ये है कि संस्थाओं में सुधार करने वाली न्यायपालिका ने खुद में रिफॉर्म को लेकर बीते इतने सालों में क्या पहल की है."
उनका सुझाव है, "कॉलेजियम में जिसके भी नाम पर चर्चा हो रही है उससे जुड़ा कोई रिश्तेदार-दोस्त या जान-पहचान वाला कोई व्यक्ति उसका हिस्सा नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसा होना साफ़ तौर पर हितों का टकराव (कॉन्फ़्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट) है. कॉलेजियम का एक सचिवालय होना चाहिए जहाँ बैठकों में क्या चर्चा हो रही है उसका रिकॉर्ड रखा जाना चाहिए, किस आधार पर नियुक्ति हुई, इन सबकी जानकारी होनी चाहिए."
साल 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने कानून मंत्रालय से मैमोरैंडम ऑफ़ प्रॉसिज़र यानी एमओपी में संशोधन करने को कहा. एमओपी कॉलेजियम सिस्टम का अहम हिस्सा है जो न्यायपालिका और सरकार के बीच जजों की नियुक्ति पर एक तरह का सहमति-पत्र है.
सुप्रीम कोर्ट ने कानून मंत्रालय से कहा कि वह एमओपी में संशोधन करके उसे सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश करे, लेकिन आज तक एमओपी में संशोधन भी नहीं हुआ है.
विराग गुप्ता कहते हैं कि ये बेहद साफ़ है कि सरकार और सुप्रीम कोर्ट दोनों ही इस प्रक्रिया को पारदर्शी और सही बनाने के लिए कुछ खास नहीं कर रहे हैं. दोनों ही केवल अपने-अपने प्रभाव को बढ़ाना या कायम रखना चाहती हैं.
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