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जॉर्ज फर्नांडिस समाजवादी सोच रखते थे फिर उन्होंने बीजेपी का दामन क्यों थामा?

हाल ही में जॉर्ज फर्नांडिस की जीवनी प्रकाशित हुई है 'द लाइफ़ एंड टाइम्स ऑफ़ जॉर्ज फर्नांडिस' जिसमें एक श्रमिक नेता से रक्षा मंत्री के पद तक पहुंचने के जॉर्ज के सफ़र को दिलचस्प ढंग से बयान किया गया है. आज की विवेचना में रेहान फ़ज़ल नज़र डाल रहे हैं जॉर्ज फर्नांडिस के संघर्षपूर्ण जीवन पर.

By BBC News हिन्दी
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जॉर्ज फर्नांडिस
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जॉर्ज फर्नांडिस

बात 2 मई, 1974 की है. लखनऊ रेलवे स्टेशन के रिटायरिंग रूम में गहरी नींद में सो रहे जॉर्ज फर्नांडिस को पुलिस ने जगा दिया. वो रेलवे कर्मचारियों के सामने मई दिवस का भाषण देने ख़ासतौर से दिल्ली से वहाँ पहुंचे थे और रात 12 बजे के बाद सोने गए थे.

उनको पहली मंज़िल के अपने कमरे से नीचे प्लेटफॉर्म पर लाया गया. प्लेटफॉर्म पुलिस वालों से खचाखच भरा हुआ था और आम लोगों को वहाँ से पहले ही हटा दिया गया था. लखनऊ हवाईअड्डे पर उन्हें दिल्ली ले जाने के लिए एक सरकारी विमान खड़ा था.

लगभग उसी समय दिल्ली में रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र के ड्राइवर ने जॉर्ज के घर की घंटी बजाकर जार्ज की पत्नी लैला फर्नांडिस को जगा दिया.

ड्राइवर ने रेल मंत्री का पत्र उन्हें दिया जिसमें बातचीत असफल होने के लिए जॉर्ज फर्नांडिस को ज़िम्मेदार ठहराया गया था और ये भी बताया गया था कि इसीलिए सरकार उन्हें गिरफ़्तार कर रही है.

20 दिन चली रेल हड़ताल से देश का पूरा रेल ट्रैफ़िक थमा


20 दिनों तक चली अभूतपूर्व रेल हड़ताल को इंदिरा गाँधी सरकार ने निर्मम तरीके से कुचला था और जॉर्ज समेत कई श्रमिक नेता हिरासत में ले लिए गए थे.

मैंने हाल में प्रकाशित जॉर्ज फर्नांडिस की जीवनी 'द लाइफ़ एंड टाइम्स ऑफ़ जॉर्ज फर्नांडिस' के लेखक राहुल रामागुंडम से पूछा कि रेल हड़ताल कुचल दिए जाने के बावजूद जॉर्ज को उस हड़ताल के लिए आज तक क्यों याद किया जाता है?

राहुल का जवाब था, "ये एक अभूतपूर्व हड़ताल थी जिसकी वजह से पूरे देश का रेल ट्रैफ़िक पूरी तरह से रुक गया था. पूरे 20 दिन के लिए पूरा देश जैसे ठप्प सा हो गया था. पूरे देश में रोज़ 100 से अधिक ट्रेनें रद्द की जा रही थीं. सरकार और रेल मज़दूरों दोनों ने इस हड़ताल के लिए पूरी तरह से तैयारी की थी. सरकार कोयले की खदानों से कोयला लाकर कोयले से चलने वाले बिजलीघरों में जमा करने लगी क्योंकि उन्हें डर था कि अगर बिजलीघरों में कोयला नहीं रहेगा तो बिजली बननी बंद हो जाएगी."

"रेलवे की सभी यूनियनों ने पाँचों डिवीजनों के 33 सब डिवीजनों और 7000 रेलवे स्टेशनों पर हड़ताल का नोटिस दे दिया था. फिर भी सरकार का रुख़ था कि इससे कोई बड़ा फ़र्क नहीं पड़ने वाला था. सरकार ने रेल उप मंत्री मोहम्मद शफ़ी कुरैशी के पिता की मौत का बहाना बनाकर बातचीत रोक दी थी."

जॉर्ज फर्नांडिस के जीवन पर आधारित किताब
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जॉर्ज फर्नांडिस के जीवन पर आधारित किताब

इंदिरा गाँधी ने हड़ताल को सख़्ती से कुचला


राहुल बताते हैं, "ये हड़ताल श्रमिकों के अधिकारों को दिलाने के लिए की गई थी. इसके राजनीतिक कारण भी थे लेकिन मुख्य कारण ये था कि किस तरह रेल मज़दूरों को सार्वजनिक क्षेत्र के मज़दूरों के बराबर वेतन मिले."

"लेकिन इसके लिए सरकार तैयार नहीं थी, क्योंकि उन्हें लगा कि अगर 20 लाख मज़दूरों को बढ़ा हुआ वेतन दिया गया तो सरकार का दिवाला निकल जाएगा. जिस तरह से जॉर्ज ने इस हड़ताल का नेतृत्व किया, रेलवे श्रम संघों ने इस तरह की नेतृत्व क्षमता पहले कभी नहीं दिखाई थी."

ये जॉर्ज का ही कमाल था कि इस हड़ताल में टैक्सी ड्राइवर, बिजली कर्मचारी और ट्राँसपोर्ट की यूनियनें भी शामिल हो गईं. मद्रास की कोच फ़ैक्ट्री के दस हज़ार मज़दूर भी हड़ताल के समर्थन में सड़क पर आ गए.

गया में रेल कर्मचारियों ने अपने परिवारों के साथ पटरियों पर कब्ज़ा कर लिया.

सरकार ने हड़ताल को तुड़वाने के लिए सख़्त रुख़ अपनाया. कई जगह रेलवे ट्रैक खुलवाने के लिए सेना को लगाया गया.

एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार हड़ताल तोड़ने के लिए 30 हज़ार से अधिक मज़दूरों को जेल में डाल दिया गया. जॉर्ज के एक साथी रहे विक्रम राव बताते हैं कि 'श्रमजीवी इतिहास में किसी हड़ताल को इतनी क्रूरता से नहीं कुचला गया.'

एक और पत्रकार विजय साँघवी याद करते हैं, "रेल हड़ताल के दौरान ही इंदिरा गाँधी ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था. इससे पूरी दुनिया चौंक गई थी लेकिन भारत के लोगों पर इसका कोई ख़ास असर नहीं हुआ था. उन दिनों की टॉप ख़बर रेल हड़ताल थी."

विजय संघी के नज़दीकी पत्रकार विजय सांघवी
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विजय संघी के नज़दीकी पत्रकार विजय सांघवी

इमरजेंसी के दौरान अंडरग्राउंड हुए जॉर्ज


इंदिरा गांधी ने जब 25 जून, 1975 को इमरजेंसी लगाई तो जॉर्ज फ़र्नांडिस उन गिने-चुने नेताओं में थे जिन्हें सरकार गिरफ़्तार नहीं कर पाई थी. उन दिनों जॉर्ज अपनी पत्नी लैला के साथ उड़ीसा में 'गोपालपुर एट सी' में छुट्टियाँ मना रहे थे. जैसे ही जॉर्ज को इसके बारे में पता चला, उन्होंने वहाँ से निकल जाने का फ़ैसला किया.

राहुल रामागुंडम बताते हैं, "एक दिन पहले जिन लोगों में जॉर्ज को आमंत्रित करने की होड़ लगी हुई थी, उन्हीं लोगों ने जॉर्ज को अपनी कार देने से इंकार कर दिया. उनकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी. वो मछुआरे के वेष में एक टैक्सी में बैठ कर वहाँ से निकले और पहले भुवनेश्वर आए जहाँ वो एमएलए कॉलोनी में मीरा दास के घर में रहे."

"वहाँ से वो नौकर के वेष में बस में बैठकर 500 किलोमीटर का रास्ता तय कर रात 12 बजे कलकत्ता पहुंचे. इस पूरे रास्ते में वो एक बार भी बस से नीचे नहीं उतरे. 27 जून को उन्होंने कलकत्ता में अलीपुर में मारवाड़ी व्यापारी विद्यासागर गुप्त का दरवाज़ा खटखटाया. वहाँ कुछ दिन रहने के बाद गुप्ता की कार से जॉर्ज 5 जुलाई को पटना पहुंचे."

वहाँ से वो उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान होते हुए गुजरात पहुंचे.

जॉर्ज फर्नांडिस
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जॉर्ज फर्नांडिस

सिख और साधु के वेष में जॉर्ज फ़र्नांडिस


रामागुंडम आगे बताते हैं, "इस दौरान वो हर रात अलग अलग जगहों पर सोते थे. उन्होंने दाढ़ी बढ़ा ली थी. वो करीब करीब भारत के हर राज्य में गए. न सिर्फ़ उनकी राजधानियों में बल्कि छोटे छोटे शहरों में भी. वहाँ वो मंदिरों में रहते थे. ये भी सुनने को मिला कि कर्नाटक में वो श्रंगेरी के मंदिर में भी रहे."

"जब वो यात्रा करते थे तो वो एक सिख का वेष धारण करते थे. उन्होंने कभी अकेले यात्रा नहीं की. कोई न कोई पुरुष या स्त्री उनके साथ हमेशा रहती थी. जब वो अपने गंतव्य पर पहुंच जाते थे तो वो गेरुआ वस्त्र पहन कर साधु का वेष धारण कर लेते थे."

सरकार ने उन्हें 'मोस्ट वांटेड मैन ऑफ़ इंडिया' घोषित कर दिया. लंबी दाढ़ी और साधु के वेष में जॉर्ज उन आनंदमार्गियों जैसे लगते थे जिन पर सरकार ने प्रतिबंध लगाया हुआ था और जिन पर ललित नारायण मिश्रा का हत्या करने का आरोप था.

जॉर्ज फर्नांडिस
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जॉर्ज फर्नांडिस

डाइनामाइट के ज़रिए देश को दहलाने की योजना


इस बीच जॉर्ज का नाम बड़ोदा डायनामाइट केस में भी आया.

राहुल रामागुंडम बताते हैं, "इमरजेंसी के दौरान एक दमनकारी वातावरण था आप न तो समाचारपत्रों में लिख सकते थे, न ही आपके दिए वक्तव्यों को कोई समाचार पत्र प्रकाशित कर सकता था, आप न तो कोई जुलूस निकाल सकते थे और न ही किसी सभा को संबोधित कर सकते थे. ये एक बहुत बड़ी चुनौती थी कि अगर आप सरकार का विरोध करें तो किस तरह से करें."

जॉर्ज के सामने एक और चुनौती थी कि कैसे आम लोगों को सरकार के ख़िलाफ़ जगाएं? कैसे पूरी दुनिया को बताएं कि इस सरकार का विरोध हो रहा है? उस समय इस बारे में दो तरह की बहस शुरू हो गई थी. क्या इस मुहिम को अहिंसक रखा जाए या हिंसा का भी सहारा लिया जाए?

"अगर हिंसा होती है तो सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंच सकता है और कुछ लोग भी मर सकते हैं. जॉर्ज का मानना था कि अगर इस कोशिश में कुछ लोग मर भी जाते हैं तो हम इस बारे में कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि हमें पूरी दुनिया को बताना था कि भारत के अंदर लोग चुप नहीं बैठे हैं और इमरजेंसी का विरोध हो रहा है."

जॉर्ज फर्नांडिस
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जॉर्ज फर्नांडिस

जॉर्ज की गिरफ़्तारी


पूरे भारत को डायनामाइट से दहला देने की जॉर्ज की योजना सफल नहीं हो पाई.

कूमी कपूर अपनी किताब 'द इमरजेंसी - अ पर्सनल हिस्ट्री' में लिखती हैं, "वास्तव में डायनामाइट योजना से कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ. सात या आठ महीने सिर्फ़ लोगों को प्रशिक्षित करने और डायनामाइट को नियत स्थानों तक पहुंचाने में ही बर्बाद हो गए. लोग जॉर्ज के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर इस मिशन से जुड़ तो गए, लेकिन वो कुछ ख़ास नहीं कर पाए."

हालांकि सीजीके रेड्डी अपनी किताब 'बड़ोदा डायनामाइट कॉन्सपिरेसी' में लिखते हैं कि "आरा टेलिफ़ोन एक्सचेंज बर्बाद कर दिया गया और बिहार में कुछ रेलवे लाइनों को भी नुकसान पहुंचाया गया."

पहले उनके कई साथी गिरफ़्तार किए गए और फिर जून, 1976 को जॉर्ज को भी कलकत्ता के एक गिरजाघर से गिरफ़्तार कर लिया गया.

जेल में रहकर मुज़फ़्फ़रपुर का चुनाव लड़ा


जब 1977 में इंदिरा गाँधी ने चुनाव कराने की घोषणा की तो जॉर्ज फ़र्नांडिस ने मुज़फ़्फरपुर से चुनाव लड़ने की घोषणा की.

इस बीच जॉर्ज को छोड़कर सभी विपक्षी नेताओं को रिहा कर दिया गया. चुनाव लड़ने के लिए पेरोल पर छोड़ने के जॉर्ज के अनुरोध को सरकार ने ठुकरा दिया.

राहुल रामागुंडम बताते हैं, "चुनाव प्रचार के लिए जॉर्ज की माँ मुज़फ़्फ़रपुर गईं. वो वहाँ अंग्रेज़ी में भाषण देती थीं जिसका हिंदी में अनुवाद सुषमा स्वराज किया करती थीं. जॉर्ज के भाई को भी जिन्हें इमरजेंसी में गिरफ़्तार कर बुरी तरह से पीटा गया था, मुज़फ़्फ़रपुर ले जाया गया था."

"चुनाव से पाँच दिन पहले जॉर्ज ने ये दिखाने के लिए कि वो भले ही चुनाव प्रचार न कर पा रहे हों, लेकिन वो मुज़फ़्फ़रपुर के लोगों के साथ हैं जेल में खाना पीना छोड़ दिया था. बहुत से युवा लोगों ने जूता पॉलिश कर जॉर्ज के चुनाव अभियान के लिए पैसा एकत्रित किया और ये एक तरह से लोगों का चुनाव बन गया."

तिहाड़ में इंदिरा गांधी की हार की ख़बर मिली


जिस दिन चुनाव परिणाम आया जॉर्ज और उनके साथी दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद थे.

बड़ोदा डायनामाइट केस में उनके साथी रहे के विक्रम राव याद करते हैं, "हम सब तिहाड़ जेल के 17 नंबर वार्ड में बंद थे. हमने तिहाड़ जेल आने वाले एक डॉक्टर को पटाया कि रात को जब वो आए तो ये ख़बर पता कर आए कि उस समय मुज़फ़्फ़रपुर में कौन लीड कर रहा है. उन्होंने आकर ख़बर दी कि जॉर्ज एक लाख वोटों से लीड कर रहे हैं."

"मैं जेल में चोरी छिपे एक ट्राँजिस्टर ले जाने में सफल हो गया था. सुबह चार बजे हमने वॉयस ऑफ़ अमेरिका से सुना कि इंदिरा गाँधी के चुनाव एजेंट ने रायबरेली सीट पर दोबारा वोटों की गिनती की माँग की है. ये सुनते ही मैं तो उछल पड़ा, क्योंकि हारने वाले ही दोबारा वोटों की गिनती की माँग करते हैं. मैंने तुरंत चारपाई पर लेटे हुए जॉर्ज को जगा कर उन्हें ये ख़बर सुनाई कि इंदिरा गाँधी चुनाव हार गई हैं. पूरी जेल में जैसे दीवाली जैसा माहौल बन गया और हम लोग एक दूसरे से गले मिलने लगे."

के विक्रम राव
K Vikram Rao
के विक्रम राव

मोरारजी के पक्ष और फिर विपक्ष में भाषण


जनता सरकार में जॉर्ज पहले संचार मंत्री और फिर उद्योग मंत्री बने.

इस पद पर रहते हुए ही उन्होंने भारत से अमेरिकी कंपनी कोका कोला को हटाने की घोषणा की.

जब जनता पार्टी में आपसी लड़ाई शुरू हुई तो उन्होंने संसद में मोरारजी देसाई सरकार का ज़बरदस्त बचाव किया.

लेकिन 72 घंटे में वही जॉर्ज चरण सिंह के खेमे में पहुंच गए. कहा जाता है कि जॉर्ज को इस फ़ैसले के लिए उनके दोस्त मधु लिमये ने मनाया था.

जॉर्ज फर्नांडिस और मधु लिमये
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जॉर्ज फर्नांडिस और मधु लिमये

इस राजनीतिक समरसॉल्ट से जार्ज की बहुत किरकिरी हुई और उस पर तुर्रा ये हुआ कि चरण सिंह ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल तक में नहीं लिया.

एक बार बीबीसी से बात करते हुए जॉर्ज ने कहा था, "मैंने 12 जुलाई को मोरारजी सरकार का बचाव किया था. वो सरकार जितनी मोरारजी भाई की थी उतनी हमारी भी थी. लोग ये भूल जाते हैं कि 42 मंत्रियों की मंत्रिपरिषद में सिर्फ़ एक व्यक्ति ने खड़े होकर सरकार का बचाव किया था. बाकी 41 मंत्री चुप रहे."

"जब मैंने सरकार का बचाव किया था तो सरकार बहुमत में थी. मेरी सरकार का बहुमत 12, 13 और 14 जुलाई को टूट गया. जब बहुमत टूट गया तो संसदीय बोर्ड की बैठक में मैंने मोरारजी देसाई से कहा कि हम लोग बहुमत खो चुके हैं. आपको अपने पद से इस्तीफ़ा देना चाहिए और हमें नया नेता चुनना चाहिए. मोरारजी ने जवाब दिया कि अगर मैं पार्टी में अकेला भी रह जाऊं, तब भी इस्तीफ़ा नहीं दूँगा. तब मैंने उचित समझा कि मैं इस सरकार का विरोध करूँ."

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई
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भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई

गिरिजा हुइलगोल से नज़दीकी


जॉर्ज फ़र्नांडिस ने 1971 में नेहरू मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री रहे हुमाँयु कबीर की बेटी लैला कबीर से शादी की थी.

दिलचस्प बात है कि इस शादी में उनकी धुर विरोधी रहीं इंदिरा गांधी भी शामिल हुई थीं लेकिन 1984 आते आते जॉर्ज और लैला के संबंधों में दरार आनी शुरू हो गई थी.

जॉर्ज फर्नांडिस और लैला फर्नांडिस
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जॉर्ज फर्नांडिस और लैला फर्नांडिस

जॉर्ज की महिला मित्रों में गिरिजा हुइलगोल भी थीं.

राहुल रामागुंडम बताते हैं, "जॉर्ज की महिला मित्रों में जिसने सबसे ज़्यादा दोस्ती की कीमत अदा की वो गिरिजा थीं. जब इमरजेंसी घोषित हुई तो गिरिजा सिर्फ़ 24 साल की थीं. इससे पहले वो मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही थीं. जार्ज की उनके परिवार के साथ निकटता थी."

"1971 में चुनाव हारने के बाद जॉर्ज उन्हीं के घर में रहने लगे थे. गिरिजा अभी मेडिकल की पढ़ाई कर ही रही थीं लेकिन जॉर्ज उन्हें 'डॉक' कहकर पुकारते थे. जब इमरजेंसी लगाई गई तो भूमिगत जॉर्ज ने उनसे पूछा कि क्या तुम मेरे साथ चलोगी? गिरिजा हुइलगोल की कुछ पारिवारिक समस्याएं थीं. उनके पिता ने दो शादियाँ की थीं. एक तरह से वो फ़्री भी थीं."

"उन्होंने जॉर्ज की बात मान ली और वो जॉर्ज के साथ कई बार दिल्ली में और दिल्ली से बाहर भी गईं. जब बड़ोदा डायनामाइट केस सामने आया तो सबसे पहले गिरिजा के पिता और फिर उनके भाई को गिरफ़्तार कर लिया गया. उनको बहुत यंत्रणाएं दी गईं और गिरिजा पर भी दबाव डाला गया कि अगर वो जॉर्ज के रहने का स्थान बता देंगी तो उनके परिवारजनों के साथ सख़्ती नहीं की जाएगी."

जॉर्ज और जया जेटली


दक्षिण की अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी भी जॉर्ज के काफ़ी नज़दीक थीं. वर्ष 1976 में जॉर्ज के जीवन में जया जेटली आई थीं. उस समय वो जनता सरकार में उद्योग मंत्री थे और जया के पति अशोक जेटली जॉर्ज के स्पेशल असिस्टेंट हुआ करते थे.

कुछ समय पहले मैंने जया जेटली से पूछा था कि जॉर्ज क्या आपके दोस्त थे या इससे भी कुछ बढ़कर?

जया ने इसका सीधा जवाब नहीं दिया था लेकिन वो ये ज़रूर बोली थीं, "कई किस्म के दोस्त हुआ करते हैं और दोस्ती के भी कई स्तर होते हैं. महिलाओं को एक किस्म के बौद्धिक सम्मान की ज़रूरत होती है."

"हमारे पुरुष प्रधान समाज के लोग सोचते हैं कि महिलाएं कमज़ोर दिमाग़ और कमज़ोर शरीर की होती हैं. जॉर्ज वाहिद शख़्स थे जिन्होंने मुझे विश्वास दिलाया कि महिलाओं की भी राजनीतिक सोच हो सकती है."

बीबीसी संवाददाता रेहान फ़ज़ल के साथ जया जेटली
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बीबीसी संवाददाता रेहान फ़ज़ल के साथ जया जेटली

राहुल रामागुंडम का मानना है कि किसी भी राजनीतिक शख़्स को जिसे हम देखते हैं उसके पीछे बहुत सारे लोगों का बलिदान होता है, मेहनत होती है.

वो कहते हैं, "इन राजनेताओं को ऊपर लाने में जिन लोगों की मेहनत लगी होती है उन्हें हम अक्सर भूल जाते हैं. गिरिजा हुइलगोल, स्नेहलता रेड्डी और बहुत सी और महिलाओं जिनका नाम मैंने अपनी किताब में लिखा है, उन सबकी जॉर्ज को बनाने में बड़ी भूमिका रही है. लेकिन उनको इसके बदले में ज़्यादा कुछ मिला नहीं लेकिन जिन लोगों को मिला, उन्होंने उनसे जितना लिया जितना उन्होंने दिया."

परंपरा से हट कर रहने वाले जॉर्ज


जॉर्ज फ़र्नांडिस एक विद्रोही राजनेता थे जिनका परंपराओं को मानने में यकीन नहीं था.

हैरी पॉटर की किताबों से लेकर महात्मा गांधी और विंस्टन चर्चिल की जीवनी तक उन्होंने पढ़ी, उन्हें किताबें पढ़ने का शौक था.

उनकी एक ज़बरदस्त लाइब्रेरी होती थी जिसकी कोई भी किताब ऐसी नहीं थी जिसे उन्होंने पढ़ा न हो.

जॉर्ज फर्नांडिस
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जॉर्ज फर्नांडिस

जया जेटली बताती हैं, "जॉर्ज ने अपनी ज़िंदगी में न तो कोई कंघा ख़रीदा और न ही इस्तेमाल किया. अपने कपड़े वो ख़ुद धोते थे. उन पर इस्त्री ज़रूर कराते थे लेकिन उन्हें सफ़ेद बुर्राक कलफ़ लगे कपड़े पहनना बिल्कुल पसंद नहीं था."

"जॉर्ज को खाने का बहुत शौक था. ख़ासतौर से कोंकड़ की मछली और क्रैब करी उन्हें बहुत पसंद थी. वर्ष 1979 में एक बार हम ट्रेड यूनियन बैठक में भाग लेने मुंबई गए थे. जॉर्ज हम लोगों को अशोक लंच होम नाम की एक जगह पर ले गए थे."

"मुझे बहुत अच्छा लगा जब उन्होंने ड्राइवर को भी अपनी ही मेज़ पर बैठा कर खाना खिलाया. आजकल तो बच्चों को सँभालने वाली औरतों तक को मालिक के साथ रेस्तराँ में नहीं बैठने दिया जाता. जॉर्ज की सोच इसके बिल्कुल विपरीत थी. उनकी इन्हीं बातों ने मुझे उनके साथ जोड़ा."

जॉर्ज फर्नांडिस
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जॉर्ज फर्नांडिस

कांग्रेस विरोध को कभी छोड़ नहीं पाए जॉर्ज


लेकिन समाजवादी सोच रखने वाले जॉर्ज फ़र्नांडिस अपने राजनीतिक जीवन के अंतिम चरण में बीजेपी के साथ क्यों चले गए?

जॉर्ज फर्नांडिस और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी
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जॉर्ज फर्नांडिस और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी

राहुल रामागुंडम बताते हैं, "जॉर्ज कभी कांग्रेस विरोधवाद से बाहर नहीं निकल पाए. हालांकि, 90 के दशक में कांग्रेस कमज़ोर होना शुरू हो गई थी लेकिन जॉर्ज तब भी कांग्रेस विरोध की बात कर रहे थे. 90 के दशक में बीजेपी अभी भी इतनी मज़बूत नहीं थी कि अपने बूते पर सरकार बना सके और लेफ़्ट का कहीं नामोनिशान नहीं था."

"उनके राजनीतिक विकल्प बहुत संकुचित थे. उनमें भी कुछ बदलाव आने शुरू हो गए थे. जो जॉर्ज हमेशा कहा करते थे कि वो लोगों के साथ हैं और सत्ता और सरकार के विरोधी हैं, वो सत्ता के नज़दीक जाने लगे थे. उनको भी 3 कृष्ण मेनन मार्ग का घर पसंद आने लगा था. उनका बुढ़ापे का समय आ गया था. उनको भी लगने लगा था कि तमाम ज़िदंगी संघर्ष करने के बाद वो भी एक अच्छी जगह पर बैठें. शायद ये कारण रहा होगा कि उन्होंने बीजेपी का साथ पकड़ा."

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English summary
George Fernandes was a socialist then why did he join BJP?
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