बाबरी मस्जिद विध्वंस में निर्णायक भूमिका निभाने वाले चेहरे
छह दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के मामले में अदालत का फ़ैसला आने वाला है और लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और विनय कटियार जैसे हिंदुत्व की राजनीति करने वाले लोगों की किस्मत का फ़ैसला होना है.
बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी एकबार फिर से चर्चा में हैं. सीबीआई की विशेष अदालत के जज बाबरी विध्वंस मस्जिद विध्वंस मामले में फ़ैसला सुनाने वाले हैं जिसमें आडवाणी के अलावा मुरली मनोहर जोशी और विनय कटियार जैसे अन्य हिंदुत्व की राजनीति करने वाले लोगों की किस्मत का फ़ैसला होना है. बाबरी मस्जिद को छह दिसंबर, 1992 को ढहा दिया गया था.
आडवाणी यानी कट्टर हिंदुत्व की राजनीति का चेहरा
2000 के आसपास और उसके बाद जन्म लेने वाली आज की युवा पीढ़ी को संभवतः लाल कृष्ण आडवाणी के क़द का अंदाज़ा नहीं हो सकता है जिसका अंदाज़ा उनके माता-पिता की पीढ़ी के लोगों को होगा.
आडवाणी ने पूरे देश को एक नई राह पर डालने का काम किया था जिसमें वैसे अभियान शामिल रहे जो अमूमन अपने पीछे खून और सांप्रदायिक हिंसा के निशान छोड़ने वाले थे लेकिन इन अभियानों ने दक्षिणपंथ को प्रेरित किया और बीजेपी को सत्ता के शिखर तक पहुँचाया.
पुराने दिनों को देखने-जानने वालों में भी इस बात की बहस की कोई गुंजाइश नहीं है कि हिंदुत्व की राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा कौन हैं. नरेंद्र मोदी हर किसी की स्वाभाविक पसंद हो सकते हैं. लेकिन कभी नरेंद्र मोदी के गुरु रहे लाल कृष्ण आडवाणी उनसे काफी पीछे भी नहीं होंगे.
अयोध्या के पुजारी छबीले सरन आडवाणी के शुरू किए राम मंदिर आंदोलन में एक कार सेवक (स्वयंसेवक) थे.
उन्होंने बताया, "बीते नंवबर में जब सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर निर्माण का फ़ैसला सुनाया तो मैं आनंद से भर उठा था. मैंने दिल से आडवाणी जी को धन्यवाद कहा. मैं उन लाखों निडर कारसेवकों में एक था जो उनके प्रशंसक हुआ करते थे. आडवाणी जी की वजह से हमें राम मंदिर मिला है, मोदी जी ने उसकी डिलीवरी की है."
वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार पंकज वोहरा लालकृष्ण आडवाणी को राष्ट्रीय राजनीति में चमकने से पहले से जानते रहे हैं.
वे कुतुब मीनार के निर्माण का उदाहरण देते हुए कहते हैं, "कुतुब मीनार की नींव अल्तमस ने रखी थी लेकिन इसका नाम कुतुबुद्दीन ऐबक के नाम पर जिन्होंने इसे पूरा करवाया था. राम मंदिर का निर्माण सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के कारण हो रहा है. हालांकि आडवाणी ने अब कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है लेकिन वे इस मामले को अदालत में नहीं ले जाना चाहते थे. वे चाहते थे कि मुद्दा उबलता रहे. आडवाणी के टालमटोल वाले तौर तरीकों से मोदी को फ़ायदा हुआ. उन्होंने हमेशा मंदिर निर्माण का समर्थन किया, कोर्ट में भी. अब चूंकि वे सत्ता में हैं लिहाजा वे इसके निर्माण का क्रेडिट भी लेंगे."
हालांकि वरिष्ठ पत्रकार संजय कॉ ने 1992 में खुद कारसेवकों के दस्ते में शामिल कर लिया था और उन्होंने उस दौर में आडवाणी के असर को पूरे भारत में देखा था. वे ज़ोर देकर कहते हैं कि राम मंदिर निर्माण का श्रेय आडवाणी को दिया जाना चाहिए.
उन्होंने बताया, "इस बात में कोई शक नहीं है कि अयोध्या के उन्माद को आडवाणी ने भड़काया था और उन्हें ही राम मंदिर का श्रेय मिलना चाहिए. उनके नेतृत्व में ही बीजेपी 90 के दशक में तेजी से उभरी थी, पूरा श्रेय उन्हीं का है."
हालांकि, संजय कॉ ये भी कहते हैं कि निजी तौर पर उन्हें कभी आडवाणी की राजनीति पसंद नहीं आई.
1980 में गठन के बाद से ही अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में भारतीय जनता पार्टी सत्ता के आस पास तक नहीं पहुंच पायी थी. कराची में जन्मे और पले बढ़े आडवाणी भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शामिल रहे हैं.
आडवाणी अपने मुस्लिम विरोधी और कट्टर हिंदुत्व राजनीति और उसके ध्रुवीकरण के चलते राष्ट्रीय परिदृश्य में व्यापाक तौर पर उभरे. सितंबर-अक्टूबर, 1990 के दौरान गुजरात के सोमनाथ से लेकर बिहार के समस्तीपुर में गिरफ़्तार किए जाने तक 10 हज़ार किलोमीटर लंबी राम रथ यात्रा के दौरान आडवाणी बार बार यह दहाड़ते रहे, "मंदिर वहीं बनाएंगे."
आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद रथ यात्रा रूकी और भीड़ तितर-बितर हो गई. लेकिन तब तक इसने आम लोगों के आंदोलन का रूप ले लिया था और लोगों में ऐसा उन्माद स्वतंत्रत भारत में इससे पहले कभी नहीं देखा गया था.
अपने भाषणों में वे इस बात पर ज़ोर देते रहे कि मंदिर ठीक उसी जगह बनाया जाएगा जहां बाबरी मस्जिद खड़ी थी. वे इसे आस्था की बात बताते हुए इसमें अदालत की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहते थे, "जहां राम का जन्म हुआ था वहां कोई ताक़त हमें राम मंदिर बनाने से रोक नहीं सकती और हम मंदिर वहीं बनाएंगे."
उन्होंने बाबरी मस्जिद की जगह पर ही राम के जन्म से जुड़ी हिंदू धर्म मानने वालों की आस्था के लिए सरकार के अधिकार क्षेत्र को भी चुनौती दी थी. उन्होंने कहा था, "कौन हमें रोक सकता है? कौन सी सरकार?"
रथ यात्रा को उस समय जाति की राजनीति से भी जोड़कर देखा गया क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सत्ता में बने रहने की चाहत के साथ मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को लागू कर दिया था.
पंकज वोहरा बताते हैं, "आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या की रथ यात्रा को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से अनुमति नहीं थी लेकिन वो वीपी सिंह के मंडल कमीशन को लागू करने के कारण उभरे जातिगत राजनीति का सामना करने के लिए आगे बढ़ते गए."
आडवाणी के नेतृत्व में आक्रामक हिंदुत्व की राजनीति का काफ़ी फ़ायदा 1996 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को हुआ जब पार्टी को 161 सीटों पर जीत मिली. 1984 में महज दो सीट हासिल करने वाली पार्टी के लिए यह एक बड़ी छलांग थी.
लेकिन आडवाणी की लोकप्रियता के बावजूद बीजेपी की पहली सरकार जो महज 13 दिन तक चली थी, उसमें प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बने. हालांकि बहुमत साबित नहीं कर पाने के कारण यह सरकार गिर गई थी.
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि आडवाणी के करियर में राजनीतिक ढलान धीरे धीरे आया. उसकी वजहों में 2005 की दो घटनाएं अहम रहीं- आडवाणी जून महीने में कराची दौरे पर गए जहां उन्होंने जिन्ना को एक सेक्युलर नेता घोषित कर दिया और इसके बाद उसी साल नवंबर में उन्होंने मुंबई में पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ दिया था.
आडवाणी के जिन्ना पर दिए बयान से राजनीतिक तूफ़ान खड़ा हो गया. आक्रामक हिंदुत्व का चेहरा रहे आडवाणी पड़ोसी और दुश्मन समझे जाने वाले मुल्क में नरम हिंदू के तौर पर देखा जा रहा था. लेकिन आडवाणी ने अपने बयान पर कोई खेद नहीं जताया.
पाकिस्तान यात्रा के छह महीने के बाद उन्होंने एक पत्रिका के सीनियर एडिटर को कहा था, "मैंने जो पाकिस्तान में कहा और किया उसको लेकर मुझे कोई पछतावा नहीं है. मुझे ऐसा लगता है कि मैं जिन उद्देश्यों को प्रचारित करता हूं उसमें उस बात का भी योगदान है. मुझे अपने हिंदू होने पर गर्व है. मैं मुसलमानों के ख़िलाफ़ नहीं हूं, मैं इस्लाम के ख़िलाफ़ नहीं हैं, मैं पाकिस्तान के ख़िलाफ़ नहीं हूं. मुझे लगता है कि मैंने अपनी विचारधारा और उद्देश्य दोनों की सेवा की थी."
https://www.youtube.com/watch?v=j5YDUe264xE
एक पत्रकार के तौर पर मुझे 2005 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की सिल्वर जुबली समारोह को कवर करने का मौका मिला था. इस समारोह का आयोजन बीजेपी के चर्चित नेता प्रमोद महाजन ने किया था. मैंने आडवाणी को पार्टी की कमान उस वक्त के पार्टी के युवा तुर्क माने जा रहे राजनाथ सिंह को थमाते हुए देखा. राजनाथ सिंह इन दिनों मोदी सरकार में रक्षा मंत्री हैं.
पार्टी के नवनिर्वाचित अध्यक्ष के तौर पर राजनाथ सिंह ने मुझसे कहा था, "यह नई शुरुआत है. हम 2004 का आम चुनाव हार चुके हैं, हमें केवल 138 सीटें मिलीं. युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाकर सत्ता में वापसी करना ही, मेरा काम है."
हालांकि एक सच्चाई यह भी है कि अपने बेहतरीन समय में भी आडवाणी असुरक्षित रहे. राम रथ यात्रा की महिमा वाले दिनों के कुछ ही महीने बाद 1991 में नई दिल्ली लोकसभा की सीट से वे चुनाव लड़ने उतरे. उनके सामने कांग्रेस पार्टी की ओर से बॉलीवुड स्टार राजेश खन्ना चुनाव मैदान में थे.
राजेश खन्ना राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानते थे लेकिन उन्होंने आडवाणी को एक तरह से डरा ही दिया था. आडवाणी यह चुनाव मामूली अंतर से चुनाव जीतने में कामयाब हुए. आडवाणी चुनाव ज़रूर जीत गए थे लेकिन दोनों उम्मीदवारों के चुनावी अभियान को कवर करते हुए मैंने देखा था कि राजेश खन्ना की रैलियों में कहीं ज़्यादा भीड़ उमड़ रही थी.
2004 से 2009 के दौरान कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान आडवाणी संसद में विपक्ष के नेता रहे. वे कांग्रेस को चुनौती देने में नाकाम रहे और उनके नेतृत्व में पार्टी 2009 का लोकसभा चुनाव भी हार गई.
2012 तक, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी एक उभरते हुए सितारे के तौर पर सामने आ चुके थे, उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी जतानी शुरू कर दी थी. जून, 2013 में उन्हें भारतीय जनता पार्टी के चुनाव अभियान समिति का प्रमुख चुना गया था. आडवाणी ने आने वाले समय का अंदाज़ा हो गया था और उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया था. अपने इस्तीफ़े में उन्होंने लिखा था, "पार्टी के मौजूदा नेताओं को अब अपने निजी एजेंडे की चिंता है."
उनके इस क़दम को मोदी की आलोचना के तौर पर देखा गया. हालांकि वरिष्ठ नेता आडवाणी को इस्तीफ़ा वापस लेने के लिए तैयार किया गया लेकिन वे मोदी के हाथों मिली मात को स्वीकार कर चुके थे. मोदी ने अपने नेतृत्व में 2014 के चुनाव में पार्टी को ज़ोरदार जीत दिलाई, इसने आडवाणी को राजनीतिक वनवास की ओर धकेल दिया.
यह विडंबना ही है कि राम मंदिर आंदोलन के प्रतीक रहे आडवाणी पांच अगस्त को अयोध्या में हुए राम मंदिर भूमि पूजन में अनुपस्थित रहे. 93 साल की उम्र में आडवाणी इस बात को लेकर निश्चिंत होंगे कि उन्होंने 1990 के दशक की भारतीय राजनीति को पूरी तरह बदल दिया. अच्छे के लिए या बुरे के लिए? इसका फ़ैसला अभी बाक़ी है.
अशोक सिंघलः राम मंदिर के आर्किटेक्ट
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा से छह साल पहले विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर आंदोलन शुरू किया था. उस आंदोलन के केंद्र में थे विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक सिंघल. अयोध्या के कई पत्रकारों का मानना है कि राम मंदिर आंदोलन सिंघल के दिमाग़ की उपज था.
हालाँकि आडवाणी ने उसे राजनीतिक मुद्दा बनाया और हिंदुओं को एकजुट किया लेकिन सिंघल की इसमें अहम भूमिका था. पेशे से इंजीनियर रहे सिंघल ने 1984 में अयोध्या में धर्म संसद का आयोजन किया था और इसके बाद अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए पुजारियों और साधुओं को एकजुट करना शुरू किया. इसके बाद जल्द ही वे विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए और फिर उन्होंने मंदिर आंदोलन को जन आंदोलन के तौर पर दिशा देने का काम किया.
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र शर्मा ने विश्व हिंदू परिषद के नेताओं को उनके रुतबे वाले दौर में देखा है. उनके मुताबिक अशोक सिंघल बीजेपी और हिंदु पुजारी-साधु, संतों के बीच सेतु का काम कर रहे थे.
महेंद्र शर्मा ने बताया, "निश्चित तौर पर वे उन लोगों में एक थे जिन्होंने बीजेपी को अपने घोषणा पत्र और चुनावी वादों में राम मंदिर के मुद्दे को शामिल करने के लिए तैयार किया. जब आडवाणी के नेतृत्व मंदिर के लिए राजनीतिक आंदोलन की शुरुआत हुई तब सिंघल के नेतृत्व में विश्व हिंदू परिषद ने मंदिर निर्माण की तैयारी शुरू कर दी."
बीते नवंबर महीने में विश्व हिंदू परिषद के प्रवक्ता शरद शर्मा ने मुझे अयोध्या में कहा कि यह सिंघल की दूरदर्शिता थी जिसने लोगों को बीते 30 सालों से मंदिर निर्माण के लिए तैयार रखा है.
उन्होंने अयोध्या के कारसेवकपुरम के विशाल अहाते में करीने से से रखे नक्काशीदार पत्थरों के टुकड़ और स्लैबों का निरीक्षण करते हुए कहा था, 'जब हमने सितंबर, 1990 में राम मंदिर निर्माण का काम शुरू किया था तब हम जानते थे कि एक दिन हमें इस काम का फल ज़रूर मिलेगा. हमलोग इसके लिए सिंघल जी के ऋणी हैं.'
विश्व हिंदू परिषद की ओर से चलाए जा रहे ट्रस्ट राम जन्म भूमि न्यास ने पत्थर के इन टुकड़ों, स्लैब और पिलरों को बीते 29 सालों में तैयार किया है. न्यास इसका श्रेय अशोक सिंघल को देता है.
मंदिर आंदोलन से जुड़े और पूर्व सांसद राम विलास वेदांती ने नंबवर में मुझे बताया था कि सिंघल ही राम मंदिर के आर्किटेक्ट थे. उन्होंने कहा, "उनका कठिन परिश्रम आख़िरकार कामयाब रहा."
89 साल की उम्र में अशोक सिंघल का निधन 2015 में हुआ लेकिन उससे पहले वे सुनिश्चित कर चुके थे कि आने वाले समय में राम मंदिर के इतिहास में उनका नाम दर्ज किया जाएगा.
मुरली मनोहर जोशीः राजनीतिक वनवास
लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी की तरह ही मुरली मनोहर जोशी भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक सदस्यों में रहे. 34 साल बाद हिंदुत्व की राजनीति के नए पोस्टर ब्वॉय नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 के आम चुनावों में शानदार जीत हासिल करने के बाद इन तीनों को नव-निर्मित मार्ग दर्शन मंडल में जगह दी गई. इस मंडल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह भी शामिल हैं. लेकिन पार्टी के संस्थापकों ने इसे अपमान के तौर पर देखा और उसके बाद ये लोग सार्वजनिक जीवन में उस तरह से सक्रिय नहीं दिखे जैसे अमूमन वे दिखते रहे थे. जोशी भी आडवाणी की तरह खामोशी अख़्तियार कर ली है. हालांकि उनके नजदीकी लोगों की मानें तो आत्म सम्मान बचाने के लिए उन्होंने ऐसा किया है.
भौतिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर मुरली मनोहर जोशी ने डॉक्टरेट की डिग्री हिंदी में हासिल की थी. वे पार्टी में बहुत अच्छे दिन देख चुके हैं, ख़ासकर तब जब वे पार्टी के अध्यक्ष रहे. बाद में वे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री भी रहे. वे 13 दिनों तक चली वाजपेयी सरकार में भारत के गृह मंत्री भी रहे.
मुरली मनोहर जोशी आधुनिक गैजेट्स से दूर रहते हैं. वे मोबाइल फ़ोन लेकर भी नहीं चलते, अगर किसी को उनसे बात करनी हो तो सबसे सहज तरीका आज भी उनका लैंडलाइन फ़ोन नंबर ही है. लेकिन वे ट्विटर पर मौजूद हैं और पर्व त्योहारों के दिन अक्सर ट्वीट भी करते हैं. उनके ट्वीट्स को देखकर यह अंदाज़ा हो जाता है कि आज के दौर वाले कुछ बीजेपी नेता उनसे मिलते जुलते रहे हैं. कुछ ही दिन पहले उनसे मिलने वालों में जेपी नड्डा भी रहे हैं. पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद नड्डा उनसे मिलने पहुंचे थे.
बतौर पत्रकार मेरी उनसे कई मौकों पर टेलीफोन पर बातचीत हुई है, लेकिन हर बातचीत ऑफ द रिकॉर्ड ही रही. वे कभी औपचारिक इंटरव्यू देने के लिए तैयार नहीं हुए. लेकिन उनसे बातचीत में विभिन्न मुद्दों पर चर्चा होती रही. वे सक्रिय राजनीति से भले दूर हों लेकिन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में में क्या कुछ हो रहा है, इस पर उनकी नजर रहती है.
वे अपनी तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता का इस्तेमाल करते हैं और 'मौजूदा सरकार केवल सुर्खियों से चल रही है' वाली बात पर आसानी से सहमत नहीं होते. राजनीतिक मसलों पर उनकी टिप्पणियां संक्षिप्त ज़रूर हों लेकिन असर डालने वाली होती थी और इस मामले में वे उनकी जगह लेने वाले कुछ नेताओं के बड़बोलेपन से एकदम अलग नज़र आते हैं.
विवादों भरे विनय कटियार
अपने विवादास्पद और मुस्लिम विरोधी बयानों के लिए सुर्खियों में रहने वाले विनय कटियार ने भी राम मंदिर के निर्माण में स्थायी जगह सुनिश्चित किया हुआ है. बीजेपी के राज्य सभा सांसद कटियार बजरंग दल (विश्व हिंदू परिषद की युवा ईकाई) के संस्थापक रहे हैं. उनका मानना है कि बीजेपी की नई व्यवस्था में आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के अलावा 90 के दशक वाली हिंदुत्व की राजनीति के कई दूसरे नेताओं की तरह ही उन्हें भी किनारे कर दिया गया है.
विनय कटियार ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से की थी. कॉमर्स ग्रेजुएट कटियार जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में भी सक्रिय रहे थे. 1980 में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बने और चार साल के अंदर राम जन्मभूमि आंदोलन के लिए उन्होंने बजरंग दल की स्थापना की.
बाबरी मस्जिद गिराने के मामले में लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के साथ अभियुक्त बनाए गए कटियार 1991, 1996 और 1999 में तीन बार फ़ैजाबाद लोकसभा सीट से सांसद रहे. मौजूदा समय में वे राज्य सभा के सांसद हैं.
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