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विवेचनाः जिन्ना की बीमारी का पता होता तो क्या विभाजन टल सकता था

फ़ातिमा लिखती हैं, 'एंबुलेंस के पिछले हिस्से में मैं और क्वेटा से आई नर्स सिस्टर डनहैम बैठी हुई थी. पीछे गवर्नर जनरल की नई कैडलक लिमोज़ीन चल रही थी. हम चार पांच मील ही चले होंगे कि अचानक एंबुलेंस झटका खा कर रुक गई. उस दिन कराची में बहुत उमस भरी गर्मी थी. इसके अलावा न जाने कितनी मक्खियाँ जिन्ना के चेहरे के ऊपर भिनभिना रही थीं.'

By रेहान फ़ज़ल बीबीसी संवाददाता
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मोहम्मद अली जिन्ना
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मोहम्मद अली जिन्ना

माउंटबेटन से जिन्ना की पहली मुलाकात 4 अप्रैल, 1947 को हुई थी. बातचीत शुरू होने से पहले एक हल्का क्षण उस समय आया था जब एक फ़ोटोग्राफ़र ने लेडी और लार्ड माउंडबेटन के साथ उनकी तस्वीर खींचनी चाही.

जिन्ना प्रेस के सामने बोली जाने वाली लाइन पहले से तैयार करके आए थे. उन्हें उम्मीद थी कि एडविना को उनके और माउंटबेटन के बीच खड़ा करके तस्वीर खींची जाएगी. इसके लिए वो पहले से ही एक 'पंच लाइन' तैयार करके आए थे.

1978 में जिन्ना के जीवनीकार स्टेनली वॉल्पर्ट को दिए गए इंटरव्यू में लार्ड माउंटबेटन ने याद किया था, 'जब मैंने जिन्ना से आग्रह किया कि वो मेरे और एडविना के बीच खड़े हों तो उनका दिमाग़ तुरंत कोई नई लाइन नहीं सोच पाया और उन्होंने वही दोहराया जो वो पहले से ही सोच कर आए थे, 'अ रोज़ बिटवान टू थॉर्न्स..' यानी दो कांटों के बीच एक गुलाब.'

गवर्नर जनरल का पद लेने का मन पहले से ही बना चुके थे जिन्ना

2 जून, 1947 को लार्ड माउंटबेटन ने लंदन से आई विभाजन की योजना बनाने के लिए 'नॉर्थ कोर्ट' में भारतीय राजनीतिक नेताओं की बैठक बुलाई.

माउंटबेटन ने उन नेताओं से कहा कि वो आधी रात से पहले उन्हें अपने जवाबों से वाकिफ़ करा दें. जब जिन्ना वहाँ से गए तो माउंटबेटन ने देखा कि जिन्ना ने बैठक के दौरान खेल खेल में काग़ज़ पर कुछ टेढ़ी मेढ़ी आकृतियाँ बनाईं थीं.

कागज़ पर रॉकेट, टेनिस रैकेट, उड़ते हुए गुब्बारों के चित्र के साथ बड़ा बड़ा लिखा हुआ था 'गवर्नर जनरल.' ज़ाहिर था कि कायद-ए-आज़म अपने भावी पदनाम के बारे में सोच रहे थे.

भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ में विशेष सचिव रहे और पाकिस्तान के शासकों पर किताब 'पाकिस्तान एट द हेल्म' लिखने वाले तिलक देवेशर बताते हैं, '1947 में भारत पाकिस्तान की आज़ादी से एक महीने पहले लॉर्ड माउंटबेटन ने जिन्ना को भारत पाकिस्तान के संयुक्त गवर्नर जनरल के लिए राज़ी करने की कोशिश की थी.'

'उनकी दलील थी कि अगर आप पाकिस्तान के गवर्नर जनरल बनते हैं तो आपका अधिकार क्षेत्र सीमित हो जाएगा. जिन्ना का जवाब था, आप उसकी फ़िक्र मत करिए. मेरा प्रधानमंत्री वहीं करेगा जो मैं कहूँगा. मैं उन्हें सलाह दूंगा और वो उस पर अमल करेंगे.'

जवाहरलाल नेहरू, लॉर्ड माउंटबेटन, मोहम्मद अली जिन्ना, भारत, पाकिस्तान, भारत-पाकिस्तान विभाजन
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जवाहरलाल नेहरू, लॉर्ड माउंटबेटन, मोहम्मद अली जिन्ना, भारत, पाकिस्तान, भारत-पाकिस्तान विभाजन

माउंटबेटन के ऊपर कुर्सी की चाहत

सत्ता के हस्तांतरण के समय जिन्ना ने ख़्वाहिश प्रकट की थी कि उनकी कुर्सी लार्ड माउंटबेटन की कुर्सी के ऊपर रखी जाए, जिसे ब्रिटिश सरकार ने अस्वीकार कर दिया था.

देवेशर बताते हैं, 'अंग्रेज़ों ने उन्हें साफ़ कह दिया कि जिन्ना पाकिस्तान के गनर्नर जनरल तभी बनेंगे जब भारत के वायसराय माउंटबेटन उन्हें इस पद की शपथ दिलाएंगे. शपथ लेने से पहले जिन्ना का कोई आधिकारिक पद नहीं है. इसलिए उनकी कुर्सी का माउंटबेटन की कुर्सी से ऊपर रखा जाना न तो उचित है और न ही स्वीकार्य. जिन्ना ने बहुत झिझकते हुए अंग्रेज़ों के इस तर्क को स्वीकार किया था.'

पाकिस्तान एट द हेल्म
BBC
पाकिस्तान एट द हेल्म

स्टेनोग्राफ़र की मदद से खड़ा किया पाकिस्तान

ये एक ऐतिहासिक सत्य है और जिन्ना का खुद का भी मानना था कि पाकिस्तान को उन्होंने ही बनाया है.

हुमायूं मिर्ज़ा अपनी किताब 'फ़्रॉम प्लासी टू पाकिस्तान' में लिखते हैं, 'एक बार पाकिस्तान के रक्षा सचिव रहे और बाद में पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे इसकंदर मिर्ज़ा ने जिन्ना से कहा था कि हमें मुस्लिम लीग का ध्यान रखना चाहिए जिन्होंने हमें पाकिस्तान दिया है.

जिन्ना ने तुरंत जवाब दिया था, 'कौन कहता है मुस्लिम लीग ने हमें पाकिस्तान दिया? मैंने पाकिस्तान को खड़ा किया है अपने स्टेनोग्राफ़र की मदद से.'

Muhammad Ali Jinnah with Lord, Lady Mountbatten and Fatima Jinnah
Getty Images
Muhammad Ali Jinnah with Lord, Lady Mountbatten and Fatima Jinnah

मुसलमानों के राजनीतिक नेता

कराची में जिन्ना का दिन आमतौर से सुबह साढ़े आठ बजे शुरू होता था. एक बड़ी मेज़ के सामने जिन्ना के सामने कागज़ातों का एक ढेर रख दिया जाता था.

पास ही में 'क्रेविन-ए' सिगरेटों का एक डिब्बा रखा रहता था. उनके पास बेहतरीन क्यूबन सिगार भी होते थे, जिनकी सुगंध से उनका कमरा हमेशा महकता रहता था.

जिन्ना अपने आप को मुसलमानों का राजनीतिक नेता मानते थे, न कि धार्मिक नेता. इसकी वजह से उन्हें कई बार धर्मसंकट से भी गुज़रना पड़ा था.

मशहूर लेखक ख़ालिद लतीफ़ गौबा ने एक जगह लिखा है कि एक बार उन्होंने जिन्ना को एक मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के लिए आमंत्रित किया.

जिन्ना बोले, 'मुझे नहीं पता कि नमाज़ किस तरह पढ़ी जाती है.'

मैंने जवाब दिया, 'आप वही करिए जो दूसरे वहाँ कर रहे हैं.'

एक ज़माने में जिन्ना के असिस्टेंट रहे और बाद में भारत के विदेश मंत्री बने मोहम्मद करीम छागला अपनी आत्मकथा 'रोज़ेज़ इन दिसंबर' में लिखते हैं, 'एक बार मैंने और जिन्ना ने तय किया कि हमलोग बंबई के मशहूर रेस्तराँ 'कॉर्नेग्लियाज़' में जा कर खाना खाएंगे. जिन्ना ने दो कप कॉफ़ी, पेस्ट्री और सुअर के सॉसेज मंगाए. हम इस खाने का मज़ा ले ही रहे थे कि एक बूढ़ा दाढ़ी वाला मुसलमान एक दस साल के लड़के के साथ वहाँ पहुंच गया.'

'वो दोनों आ कर जिन्ना के नज़दीक बैठ गए. तभी मैंने देखा कि लड़के का हाथ धीरे धीरे पोर्क सॉसेज की तरफ़ बढ़ रहा है. उसने धीरे से एक टुकड़ा उठा कर अपने मुंह में रख लिया. मैं इसे बेचैनी के साथ देख रहा था.'

कुछ देर बाद जब वो चले गए तो जिन्ना गुस्से में मुझसे बोले, 'छागला तुम्हें ख़ुद पर शर्म आनी चाहिए. तुमने उस लड़के को पोर्ट सॉसेज क्यों खाने दिए?'

मैंने कहा जिन्ना साहब, मेरी उलझन ये थी कि मैं आपको चुनाव हरवा दूँ या फिर उस लड़के को ख़ुदा का कहर झेलने दूँ. आख़िर में मैंने आपके हक़ में फ़ैसला किया.'

मोहम्मद अली जिन्ना
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मोहम्मद अली जिन्ना

धर्मनिरपेक्ष जिन्ना

11 अगस्त, 1947 को जिन्ना ने पाकिस्तान की संविधान सभा में जो भाषण दिया, उसे सुन कर ऐसा लगा जैसे वो किसी स्वप्न से जाग गए हों. लगता था रातों-रात वही पुराना हिंदु मुस्लिम एकता का वाहक फिर उभर आया था, जो सरोजिनी नायडू को बहुत भाता था.

बिना काग़ज़ की ओर देखते हुए वो बोले चले जा रहे थे, 'हमें अल्पसंख्यकों को अपने शब्दों, कामों और विचारों से आश्वस्त करना चाहिए कि जब तक वो पाकिस्तान के वफ़ादार नागरिक के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करते रहेंगे, उन्हें किसी से डरने की ज़रूरत नहीं है. हम उस दौर की शुरुआत कर रहे हैं जब न कोई भेदभाव होगा और न ही दो समुदायों में कोई फ़र्क किया जाएगा. हमारी शुरुआत उस बुनियादी उसूल से की जा रही है कि हम एक राष्ट्र के समान नागरिक हैं.'

मोहम्मद अली जिन्ना
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मोहम्मद अली जिन्ना

जानलेवा बीमारी के शिकार

बहुत कम लोगों को पता था कि दूसरा विश्व युद्ध समाप्त होने से पहले जिन्ना एक जानलेवा बीमारी की गिरफ़्त में आ चुके थे. उनके डॉक्टर जाल पटेल ने जब उनका एक्सरे लिया तो पाया कि उनके फेफड़ों पर चकत्ते पड़ गए हैं, लेकिन उन्होंने इस बात को गुप्त रखा.

मैंने तिलक देवाशेर से पूछा कि अगर ये पता होता कि वो बहुत दिनों तक जीवित नहीं रहेंगे तो शायद भारत का विभाजन नहीं होता?

देवेशर का जवाब था, 'डॉक्टर पटेल बहुत प्रोफ़ेशनल डॉक्टर थे. इसलिए उन्होंने किसी को कानोकान ख़बर नहीं होने दी. लेकिन मेरा ख़्याल है कि इस बारे में माउंटबेटन को पता था, इसलिए उन्होंने आज़ादी की तारीख़ फ़रवरी 1948 से छह महीने पहले खिसका कर अगस्त 1947 कर दी थी, क्योंकि उन्हें मालूम था कि जिन्ना ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रहेंगे. अगर गांधी, पटेल और नेहरू को जिन्ना की तबीयत की गंभीरता के बारे में पता होता तो वो भी शायद अपनी नीति बदल लेते और विभाजन के लिए और समय मांगते.'

वो कहते हैं, 'पाकिस्तान आँदोलन और पाकिस्तान बनने का सिलसिला सिर्फ़ एक आदमी पर निर्भर था, और वो थे जिन्ना. लियाक़त अली और बाकी के मुस्लिम लीग के नेताओं में उतनी क़ाबलियत नहीं थी कि वो पाकिस्तान की मांग को आगे बढ़ा पाते.'

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मोहम्मद अली जिन्ना

बहुत ही तकलीफ़देह अंत

मार्च 1948 आते आते जिन्ना का स्वास्थ्य बुरी तरह से बिगड़ चुका था. जब उनका बंबई के एक पुराने दोस्त जमशेद कराची में उनसे मिलने गये तो उसने पाया कि वो अपने सरकारी घर के बगीचे में एक कुर्सी पर बैठे औंघ रहे थे.

जब उनकी आँखें खुलीं तो उन्होंने फुसफुसाती हुई आवाज़ में कहा, 'जमशेद मैं बहुत थक गया हूँ, बहुत.'

जिन्ना की 72 साल की उम्र हो चुकी थी. वो अपनी ज़िंदगी का सबसे बड़ा मुक़दमा जीत चुके थे. यही नहीं ज़िंदा रहने के मामले में उन्होंने अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी महात्मा गांधी को पछाड़ दिया था. अब तो वो कम से कम आराम कर सकते थे.

जिन्ना के आख़िरी दिन बहुत तकलीफ़ में बीते. 11 सितंबर, 1948 को जब जिन्ना को वाइकिंग विमान से क्वेटा से कराची लाया गया तो फेफड़ों के कैंसर से जूझ रहे पाकिस्तान के इस संस्थापक का वज़न मात्र 40 किलो रह गया था. जब कराची के मौरीपुर हवाई अड्डे से उनकी एंबुलेंस गवर्नर जनरल हाउस के लिए चली तो बीच रास्ते में ही उसका पेट्रोल ख़त्म हो गया.

तिलक देवेशर बताते हैं, 'ये बहुत ही दर्दनाक चीज़ थी. जिन्होंने पाकिस्तान बनाया, जिन्हें लोगों ने क़ायद-ए-आज़म का ख़िताब दिया. उन्हें हवाई अड्डे पर कोई रिसीव करने वाला नहीं था, सिवाए उनके मिलिट्री सेक्रेट्री के. इस समय लियाक़त अली पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे. कहा जाता है कि उस समय जिन्ना के उनसे ताल्लुक़ात बहुत अच्चे नहीं थे.'

वो कहते हैं, 'आप तसव्वुर करें कि एक गवर्नर जनरल की गाड़ी का बीच रास्ते में पेट्रोल ख़त्म हो जाता है. मिलिट्री सेक्रेट्री को दूसरी एंबुलेंस का इंतज़ाम करने में एक घंटा लगा गया. तब तक जिन्ना बीच सड़क पर दमघोटू गर्मी के बीच बंद एंबुलेंस में पड़े रहे. उनकी नाड़ी कमज़ोर होती चली गई और उसी रात उनका निधन हो गया.'

रॉ के विशेष सचिव रहे और पाकिस्तान एट द हेल्म के लेखक तिलक देवेशर बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ
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रॉ के विशेष सचिव रहे और पाकिस्तान एट द हेल्म के लेखक तिलक देवेशर बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल के साथ

सड़ के बीचोंबीच खड़ी एंबुलेंस और भिनभिनाती मक्खियाँ

इस एंबुलेंस यात्रा का और विस्तृत वर्णन फ़ातिमा जिन्ना ने अपनी किताब 'माई ब्रदर' में किया है.

फ़ातिमा लिखती हैं, 'एंबुलेंस के पिछले हिस्से में मैं और क्वेटा से आई नर्स सिस्टर डनहैम बैठी हुई थी. पीछे गवर्नर जनरल की नई कैडलक लिमोज़ीन चल रही थी. हम चार पांच मील ही चले होंगे कि अचानक एंबुलेंस झटका खा कर रुक गई. उस दिन कराची में बहुत उमस भरी गर्मी थी. इसके अलावा न जाने कितनी मक्खियाँ जिन्ना के चेहरे के ऊपर भिनभिना रही थीं.'

'दूसरी एंबुलेंस का इंतज़ार करते हुए मैं और सिस्टर डनहैम बारी बारी से अख़बार से उनके चेहरे पर पंखा कर रही थीं. उन्हें कैडलक में नहीं ले जाया सकता था, क्योंकि उसमें उनका स्ट्रेचर नहीं समा सकता था. पास ही में शरणार्थियों की सैकड़ों झोपड़ियाँ थीं. उन्हें क्या पता था कि उन्हें उनका देश देने वाला क़ायद, उनके बीच असहाय पड़ा हुआ था. हम एक घंटे तक दूसरी एंबुलेंस का इंतज़ार करते रहे. मेरी ज़िंदगी का शायद ही कोई घंटा इतना लंबा और तकलीफ़देह रहा होगा.'

वो लोग शाम 6 बजकर 10 मिनट पर गवर्नर जनरल हाउज़ पहुंचे. जिन्ना दो घंटे तक सोते रहे. फिर उन्होंने आँखें खोलीं और फुसफुसाए, ' फ़ाती...' उनका सिर थोड़ा दाईं तरफ़ लुढ़का और उनकी आँखें बंद हो गईं.

11 सितंबर, 1948 को रात 10 बज कर 20 मिनट पर क़ायद-ए आज़म मोहम्मद अली जिन्ना नहीं रहे. जो रह गया, वो कुल 70 पाउंड का उनका शरीर था.

एक साधारण कफ़न ओढ़ा कर उन्हें अगले दिन कराची में दफ़न कर दिया गया. इतिहास की एक बेहद असाधारण और रहस्यमयी हस्ती का पार्थिव शरीर आज भी उसी जगह गुलाबी पत्थर के एक ख़ूबसूरत गुम्बद वाले मक़बरे में मौजूद है.

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English summary
Discussion Had Jinnah been diagnosed with illness then the division could have escaped
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