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कर्नाटक: मोदी लहर में कम हुई थी भाजपा की एक सीट, फिर भी गठबंधन से बहुत नुकसान की उम्मीद नहीं

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नई दिल्ली- कर्नाटक ऐसा राज्य है, जहां 2014 के मोदी लहर में भी बीजेपी की एक सीट घट गई थी। 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन बन जाने के बाद 2019 में उसके प्रदर्शन को लेकर आशंकाएं जताई जाने लगीं। परन्तु सच्चाई ये है कि कर्नाटक का राजनीतिक अंकगणित इन सियासी आशंकाओं से बेअसर है। इसलिए ये कहना कि बदले सियासी समीकरणों के चलते बीजेपी को यह चुनाव भारी पड़ेगा, थोड़ी जल्दीबाजी हो जाएगी। आइए समझने की कोशिश करते हैं कि इस धारणा के उलट भाजपा को ज्यादा नुकसान की संभावनाएं क्यों नहीं हैं?

लिंगायत फैक्टर बीजेपी के लिए असरदार

लिंगायत फैक्टर बीजेपी के लिए असरदार

कर्नाटक की सियासत में थोड़ी गहराई से झांकने से पहले पिछले तीन लोकसभा चुनावों में बीजेपी के प्रदर्शन पर नजर डाल लेते हैं। राज्य की 28 लोकसभा सीटों में से 2004 में पार्टी 18 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। 2009 में उसकी एक सीट और बढ़कर 19 हो गई। हालांकि, 2014 के मोदी लहर में उसे 2 सीटों का नुकसान हुआ और वह घटकर 17 सीटों पर पहुंच गई थी। लेकिन, इन तीनों चुनावों में बीजेपी के हक में जिस फैक्टर ने जबर्दस्त तरीक से काम किया, वह है लिंगायत फैक्टर। राज्य में लिंगायत समुदाय की जनसंख्या 17% है और उत्तर कर्नाटक में इनका बहुत ज्यादा प्रभाव है। सियासत से लेकर हर प्रभाव वाले क्षेत्र में अपना दबदबा रखने वाले लिंगायत समुदाय में बीजेपी की पैठ बहुत गहरी है। इस प्रभुत्व को तोड़ने के लिए कांग्रेस का इसे अलग संप्रदाय के रूप में मान्यता देने की हथियार भी फेल हो चुका है। प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष और पूर्व सीएम बी एस येदियुरप्पा इसी समाज के प्रभावशाली नेता हैं और हर स्थिति में पार्टी के चहेते बने रहते हैं।

दरअसल, लिंगायतों ने कांग्रेस से तब मुंह मोड़ लिया था, जब 1990 की शुरुआत में राजीव गांधी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को बर्खास्त कर दिया था। साल का अंत होते-होते तत्कालीन जनता दल भी बिखर गया और धीरे-धीरे इस समुदाय ने बीजेपी की ओर मुख कर लिया। 21वीं सदी आते-आते बीजेपी ने इनपर अबनी पकड़ बहुत मजबूत कर ली, जो आज भी कायम है। लिंगायत समुदाय से जुड़े आध्यात्मिक नेताओं से पीएम मोदी समेत बाकी बीजेपी नेताओं के अच्छे सबंध हैं और कहीं न कहीं चुनावों में भी उसका असर जरूर पड़ता है।

जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन का प्रभाव

जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन का प्रभाव

आज की तारीख में जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन का प्रभाव ज्यादातर दक्षिण कर्नाटक की 14 सीटों पर ही अधिक महसूस किया जा सकता है। वहां अभी बीजेपी के मुकाबले गठबंधन का बढ़त दिख रहा है। क्योंकि, यह वोक्कालिंगा समुदाय के प्रभाव वाला क्षेत्र है। उनकी जनसंख्या 15% है और वो इस इलाके में बहुतायत में हैं। गौरतलब है कि वोक्कालिंगा और लिंगायत समुदाय में सत्ता और अधिकार के लिए परंपरागत संघर्ष रहा है। इसके अलावा इस क्षेत्र में पिछड़ी जातियां, दलित और अल्पसंख्यक भी भारी तादाद में है, जो कर्नाटक में कांग्रेस समर्थक माने जाते हैं। 18 अप्रैल की पहले चरण में इसी इलाके की 14 सीटों पर चुनाव होने हैं। जबकि उत्तर कर्नाटक समेत बाकी 14 सीटों पर 23 अप्रैल को चुनाव होने हैं। यानी पहले फेज में जहां गठबंधन और बीजेपी के उम्मीदवारों के बीच मुकाबले की संभावना है, तो दूसरे चरण में कांग्रेस और बीजेपी के परंपरागत वोटरों वाले चुनाव क्षेत्र में वोटिंग होनी है।

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जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन की दिक्कत

जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन की दिक्कत

अगर 2018 के विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखें तो कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की स्थिति काफी मजबूत नजर आती है। लेकिन, लोकसभा चुनाव में वही आंकड़े वोट में तब्दील होंगे ऐसा मुमकिन नहीं लगता। विधानसभा चुनाव में बीजेपी को केवल 36.43% वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस को 38.61% और जेडीएस को 20.41%. लेकिन कर्नाटक चुनाव के बाकी आंकडे ये भी बताते हैं कि जब लोकसभा चुनाव आता है तो जेडीएस का वोट शेयर राष्ट्रीय पार्टियों के मुकाबले काफी गिर जाता है। हालांकि, अबकी बार गठबंधन यह कहानी बदलने की उम्मीद कर रहा है।

वैसे इन उम्मीदों से अलग गठबंधन के जो जमीनी हालात हैं, वह काग्रेस-जेडीएस के भरोसे पर पानी फेर सकता है। सबसे बड़ा सवाल ये है कि सीटों के तालमेल को लेकर दोनों पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं में जो मतभेद पैदा हुए हैं, उसे कैसे मिटाया जा सकता है? क्या दोनों पार्टियां भीतरघात से होने वाले नुकसान की भरपाई करने की स्थिति में है? कागज पर कांग्रेस और जेडीएस का वोट शेयर बहुत विशाल लग रहा है, लेकिन क्या वोक्कालिंगा और कुरुबा समाज की परंपरागत लड़ाई को दूर कर लेने की गारंटी दी जा सकती है? क्योंकि, ये गठबंधन विधानसभा चुनाव के बाद हुआ है और ग्रामीण स्तर पर छोटे-छोटे कार्यकर्ताओं में मौजूद आपसी दुश्मनी की भावना को इतनी जल्दी मिटा देना आसान नहीं है। गौरतलब है कि एच डी देवगौड़ का परिवार वोक्कालिंगा समाज का प्रतिनिधित्व करता है और पूर्व सीएम एवं कांग्रेस नेता सिद्धारमैया कुरुबा के लीडर हैं, जो कि एक पिछड़ी जाति है।

राष्ट्रवाद एवं मोदी फैक्टर का प्रभाव

राष्ट्रवाद एवं मोदी फैक्टर का प्रभाव

उत्तर कर्नाटक के अलावा इस बार बीजेपी को जिन सीटों से ज्यादा उम्मीदें हैं, वे हैं तटीय जिलों की सीटें, जैसे- दक्षिण कन्नड़, उडुपी-चिकमंगलूर और उत्तर कन्नड़। इसके अलावा कुछ शहरी लोकसभा क्षेत्रों में जैसे कि बेंगलुरु। तीनों तटीय चुनाव क्षेत्रों में हिंदुवादी शक्तियों के प्रभाव से बीजेपी को यहां बढ़त मिलने की संभावना दिख रही है, जहां मतदाता धार्मिक आधार पर गोलबंद नजर आते हैं। यही नहीं बीजेपी को अपने प्रभाव वाले इलाकों में इस बार एक और मोदी लहर का भरोसा दिख रहा है, जिसके चलते उसने खराब प्रदर्शन की शिकायतों के बावजूद कम से कम 14 मौजूदा सांसदों को ही इस चुनाव में भी उतारने का फैसला किया है। गौरतलब है कि 2014 के चुनाव में पार्टी को यहां रिकॉर्ड 43.37 फीसदी मत मिले थे, भले ही उसकी सीटें 17 ही रही हों। उस चुनाव में कांग्रेस ने 41.15% वोट लेकर 9 और जेडीएस ने 11.07% मत प्राप्त करके 2 सीटें हासिल किए थे। बीजेपी के नेताओं का दावा है कि 2014 की मोदी लहर की तुलना में इस बार यहां 15% ज्यादा लहर पैदा होने की संभावना है।

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English summary
despite Congress-JDS alliance BJP unlikely to lose much ground in Lok Sabha elections in Karnataka
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