नज़रिया: गुजरात में कांग्रेस की नैया पार लगा पाएंगे बदले हुए राहुल?
राहुल गांधी ने चुटीले अंदाज़ में भाजपा पर हमले किए हैं. लेकिन क्या वोटों के स्तर पर इसका असर दिखेगा?
गुजरात में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की चुटीली टिप्पणियां ख़ासी सुर्खियां बटोर रही हैं.
विधानसभा चुनावों से पहले अपनी सभाओं में वह आक्रामक भी दिख रहे हैं और भाजपा को चुभने वाले तंज भी कर रहे हैं.
क्या राहुल गांधी ने अपने संवाद के तौर तरीक़ों को सफलतापूर्वक सुधार लिया है? और क्या इसका फ़ायदा गुजरात में वोटों के स्तर पर भी कांग्रेस को होगा?
इसी पर पढ़िए, वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी की राय:
राहुल गांधी पिछले महीने जब अमरीका की एक यूनिवर्सिटी गए तो वहां उन्होंने अपने 'कम्युनिकेशन' से काफ़ी ध्यान खींचा. इस स्तर पर राहुल में ज़रूर सुधार दिखाई देता है. उनके जुमलों में भी पैनापन दिखा है.
लेकिन राहुल के अपने हुनर के अलावा भी गुजरात में कांग्रेस ने अपने संवाद और सोशल मीडिया के मोर्चे पर बहुत सुधार किया है और जैसा फ़ीडबैक मिला है कि एक मज़बूत टीम खड़ी की है. गुजरात में पूरी कांग्रेस पार्टी की आक्रामकता ज़ाहिर हो रही है.
सोशल मीडिया पर कांग्रेस का चलाया ट्रेंड 'विकास पगला गया है' वायरल हो गया है और यह बात बिल्कुल घर-घर में चली गई है. भाजपा को रक्षात्मक तरीक़े से इसका जवाब देना पड़ा है.
जनता का मूड भी बदला
लेकिन उसके अलावा जो चीज़ बदली है, वह है जनता का मूड. जनता का मूड बदलता है तो नेता के लिए रवैया भी बदलता है. कांग्रेस के लोग ख़ुद कह रहे हैं कि पहले हम नरेंद्र मोदी या भाजपा पर हमला करते थे तो लगता था कि दीवारों से बात कर रहे हैं. लेकिन अब बात करते हैं तो लगता है कि हमारी बात सुनी जा रही है.
गुजरात में यह एक बड़ा बदलाव देखने में आ रहा है. बहुत सारे लोगों को लगता है कि गुजरात में सही चेहरा कांग्रेस उतार पाती तो उसके पास जीत का मौक़ा भी होता.
मुझे लगता है कि फिलहाल कांग्रेस जो चर्चा में दिख रही है, वह किसी एक नेता की वजह से नहीं है, बल्कि पूरी पार्टी के लिए ही है. कांग्रेस की सुधरी हुई रणनीति और राहुल का आक्रामक रूप उसके अलग-अलग कारण हैं.
मोदी के ख़िलाफ़ अभी नहीं आया 'प्रस्थान बिंदु'
राहुल अपना कम्युनिकेशन तो सुधार रहे हैं, लेकिन सवाल है कि निकट भविष्य में क्या वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मजबूत कम्युनिकेशन को चुनौती दे पाएंगे? मेरा मानना है कि जहां तक कम्युनिकेशन के हुनर की बात है तो राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री के आस-पास भी कोई नहीं है.
अमित शाह के बेटे को लेकर जांच में चाहे जो सामने आए, लेकिन फिलहाल सवाल तो उठ गए हैं. अर्थव्यवस्था को लेकर भी चिंताएं हैं. इसके बावजूद मुझे नहीं लगता कि मोदी के ख़िलाफ़ 'प्रस्थान बिंदु' आ गया है. अब भी लोग करिश्माई नेता की तरह उनकी ओर देखते हैं. इसके साथ सोशल मीडिया और भाषणों पर उनकी जो पकड़ है, उसमें उन्हें मात देने वाला अभी कोई नहीं है.
इस स्तर पर तो यह राहुल की उतनी ही बड़ी समस्या है, जितनी 2014 में थी. अभी लोग अधीर ज़रूर हैं, लेकिन अगर यह आक्रोश में बदल जाता है, तब लोग बिना आव-ताव देखे भाजपा को हराने के लिए वोट करेंगे. लेकिन अभी ऐसी स्थिति नहीं आई है.
तो इस प्रेसिडेंशियल चुनाव सरीखे प्रारूप में, जहां चेहरे अहम हैं- अब भी मोदी को फायदा है. कांग्रेस की उम्मीदें इसी पर निर्भर हैं कि ज़मीनी स्तर पर भाजपा के ख़िलाफ़ गुस्सा कितना बन पाता है.
जहां कांग्रेस के पास चेहरा था, वहां मिला फायदा
कांग्रेस ने पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को उम्मीदवार बनाया. वहां उनका अपना जनाधार है और वहां उनको जीत मिली. इसी तरह कर्नाटक में सिद्दरमैया एक मजबूत नेता माने जाते हैं. कुछ महीने पहले कहा जाता था कि कर्नाटक में भाजपा ज़रूर जीतेगी, लेकिन आज ऐसा नहीं कहा जा सकता. कांटे की लड़ाई है. इसी तरह हरियाणा में भूपेंदर सिंह हुड्डा दिक्क़तों से बरी नहीं हुए हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि वापसी की राह पर आने लगे हैं.
जहां जहां कांग्रेस ने क्षेत्रीय नेताओं को चेहरा बनाया, वहां या तो जीत मिली या उसका फायदा हुआ. लेकिन गुजरात में कांग्रेस को यही नुकसान है. अंतत: मुझे नहीं लगता कि वहां लोग राहुल गांधी के चेहरे से बहुत फर्क पड़ने वाला है. लेकिन दूसरी तरफ़ मोदी के जाने का फर्क ज़रूर पड़ेगा क्योंकि वह गुजरात से ही हैं और वहां लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे.
दूसरा, मोदी को हराने में वहां 'गुजराती गौरव' का भाव भी आड़े आएगा. भाजपा इस तरह प्रचारित करेगी कि अगर मोदी हारे तो यह गुजरात के गौरव पर धब्बा होगा.
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मोदी का असर कम हुआ
हालांकि इसमें शक नहीं है कि उत्तर भारत में प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व का जैसा असर था, वह कम हुआ है. घरों में होने वाली चर्चाओं में फर्क दिखाई देता है. मध्यवर्ग में बहुत लोग शायद सोच रहे हों कि 2019 में वे किसे वोट देंगे. हो सकता है वे नोटा चुनें, हो सकता है वे वोट करने ही न आएं, क्योंकि विकल्प अब भी उन्हें नहीं दिख रहा है.
अर्थव्यवस्था की रफ़्तार मंद होने से जो लोग सीधे प्रभावित हुए हैं, मसलन जिनकी नौकरियां गई हैं, वे बहुत नाराज़ हैं. ग़रीब तबके में बहुत लोग कहते हैं कि कई चीज़ों के दाम बढ़ने से उनकी परेशानी बढ़ गई है. लेकिन उनसे पूछिए कि वोट किसे देंगे तो बहुत से यही कहेंगे कि अब भी मोदी को ही देंगे क्योंकि वो हमारे लिए कुछ करने वाले हैं.
ग़रीबों के मन में मोदी ने जो आस्था और उम्मीद जगाई है, वह अभी तक बची हुई है. अभी तक उन्होंने वे उम्मीदें पूरी न की हुई हों, पर लोगों को लगता है कि आगे जाकर कुछ करेंगे. हालांकि स्थिति वैसी नहीं रही, जैसी पिछले साल थी.
ख़ुद सरकार के भीतर भी चिंता साफ़ दिखती है. आर्थिक कारक अब बहुत अहम हो गए हैं. मोदी ने कुछ ज़मीन खोई है. कुछ अपील खोई है. लेकिन वह प्रस्थान बिंदु अभी नहीं आया है.
(नीरजा चौधरी से बीबीसी संवाददाता कुलदीप मिश्र से बातचीत पर आधारित.)
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