#BlackBuckPoachingCase: जानिए क्यों बिश्नोई समाज के लिए सलमान खान नहीं, काला हिरण है खास
गुरुवार को 20 वर्ष पुराने काले हिरण शिकार मामले में फैसला आ ही गया। इस केस में जोधपुर की ट्रायल कोर्ट ने जहां बॉलीवुड के सुपरस्टार सलमान खान को दोषी करार दिया तो वहीं इस मामले में बाकी आरोपी सैफ अली खान, सोनाली बेंद्रे, तब्बू और नीलम को बरी कर दिया गया।
जोधपुर। गुरुवार को 20 वर्ष पुराने काले हिरण शिकार मामले में फैसला आ ही गया। इस केस में जोधपुर की ट्रायल कोर्ट ने जहां बॉलीवुड के सुपरस्टार सलमान खान को दोषी करार दिया तो वहीं इस मामले में बाकी आरोपी सैफ अली खान, सोनाली बेंद्रे, तब्बू और नीलम को बरी कर दिया गया। इस पूरे मामले को पहली बार राजस्थान के बिश्नोई समाज ने उठाया था और इस समुदाय ने ही 20 वर्ष तक इंसाफ की लड़ाई लड़ी। गुरुवार को जब फैसला आया तब कहीं न कहीं उनकी इस लड़ाई को एक मुकाम मिला और उन्होंने भी राहत की सांस ली होगी। हालांकि इस कम्युनिटी के एक सदस्य ने बाकी बॉलीवुड कलाकारों की रिहाई पर नाखुशी जाहिर की है। अक्टूबर 1998 में इस केस में पहली बार शिकायत दर्ज कराई गई थी। आइए आपको बताते हैं कि क्यों राजस्थान के बिश्नोई समाज ने काले हिरण के लिए लड़ाई लड़ी और क्यों उनके लिए पेड़-पौधे और जानवर इतने अहम हैं?
बिश्नोई समुदाय की थी लड़ाई
दो अक्टूबर 1998 को बिश्नोई कम्युनिटी की ओर से पहली बार इस केस में शिकायत दर्ज कराई गई थी। इस समुदाय का कहना था कि सलमान खान और उनके साथ बाकी सितारों ने जोधपुर में फिल्म 'हम साथ-साथ हैं' की शूटिंग के दौरा भागोदा की धानी के पास दो काले हिरणों का शिकार किया था। शिकायतकर्ता का कहना था कि सलमान और बाकी सितारे एक और दो अक्टूबर की रात एक जिप्सी में थे और सलमान इस जिप्सी को चला रहे थे। उन्होंने दो काले हिरणों का शिकार किया और फिर जब लोगों को इसका पता चला और उन्होंने उनका पीछा किया तो वह मरे हुए जानवरों को वहीं छोड़कर भाग गए। इस शिकायत से ही आप बिश्नोई समाज के बीच जानवरोंऔर जंगलों के लिए क्या संवेदनाएं हैं इस बारे में जान सकते हैं।
सिर्फ प्रकृति की रक्षा करना ही धर्म
बिश्नोई समाज को दुनिया का अकेला ऐसा समाज या धर्म माना जाता है जिसका एकमात्र उद्देश्य प्रकृति की रक्षा करना है। बिश्नोई धर्म करीब 500 वर्ष पुराना है और आज करीब 10 लाख लोग इसके अनुयायी हैं। इस समुदाय की स्थापना भगवान जंबेश्वर ने की थी और उन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना जाता था। कहते हैं कि भगवान जंबेश्वर धरती पर मौजूद हर किसी चीज के रक्षक हैं। कहते हैं कि सात वर्ष की उम्र तक जंबेश्वर ने एक भी शब्द नहीं बोला था। उनके अजीबो-गरीब व्यवहार को देखकर उनके माता-पिता ने एक पुजारी को बुलाया और पुजारी ने उन्हें 64 दीए जलाने के लिए कहा। लेकिन कई प्रयासों के बावजदू एक भी दीया नहीं जल सका। इसके बाद जंबेश्वर ने कुंए से पानी भरा और उस पानी से दीयों को जलाया।
गुरु ने दिए 29 सिद्धांत
इसके बाद उन्होंने अपने अनुयायियों को बुलाया और उन्हें बताया कि अब उन्हें एक नए विश्वास को मानना पड़ेगा जिस पर उनका पूरा जीवन आधारित होगा। इसके साथ ही उन्होंने जिंदगी जीने के 29 सिद्धांत बताए। इन 29 सिद्धांतों के हिंदी शब्द बीस और नोई यानी नौ को मिलाकर ही बिश्नोई शब्द का निर्माण हुआ है। इनमें 29 सिद्धांतों में सबसे अहम सिद्धांत है, 'प्राण दया' यानी हर जीवित वस्तु के लिए दया और प्यार का भाव होना। पिछले करीब 500 वर्षों से यह समुदाय इन्हीं सिद्धांतों को अपनी जिंदगी मानकर चल रहा है।
इसलिए काला हिरण है सबसे अहम
बिश्नोई समुदाय के लिए पेड़ सबसे पवित्र चीज हैं और इससे जुड़ी हर चीज उनके लिए अहम हो जाती है। इसलिए वे अपने गांवों में मौजूद पेड़-पौधों और जंगलों से जुड़ी हर प्राकृतिक चीज जैसे काला हिरण, चिंकारा के अलावा पक्षी जैसे मोर आदि की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते हैं। बिश्नोई न सिर्फ जानवरों को शिकार से बचाते हैं बल्कि वे उनकी रक्षा के लिए हर सीमा को पार करने को तैयार रहते हैं। जानवर उनके खेतों में आसानी से चर सकते हैं, उनके घरों में जानवरों के लिए खाना और पानी तक की व्यवस्था होती है। इतना ही नहीं पक्षियों के लिए पेड़ों पर पानी से भरे बर्तन भी लटका कर रखे जाते हैं।
20 वर्ष में 14 बिश्नोइयों ने गंवाई जान
बिश्नोई शिकारियों के पास मौजूद हथियारों का मुकाबला सिर्फ लाठी के सहारे करते हैं। किसी भी शिकारी को पकड़कर वे फॉरेस्ट आथॉरिटीज को सौंप देते हैं। आंकड़ों के मुताबिक पिछले 20 वर्षों में 14 बिश्नोई जानवरों की रक्षा करते हुए मारे गए हैं। पिछली पांच सदियों से बिश्नोई समाज इस विचारधारा में यकीन करता आ रहा है कि दुनिया में हर जीवित चीज को जिंदगी जीने का पूरा अधिकार है। आप बिश्नोई समाज की महिलाओं को काले हिरण या फिर चिंकारा के बच्चों को अपना दूध पिलाते हुए भी देख सकते हैं।
चिपको आंदोलन की प्रेरणा
कहते हैं सन्1973 में उत्तराखंड में जो चिपको आंदोलन शुरू हुआ था उसकी प्रेरणा राजस्थान के खेजराली गांव में इसी आंदोलन जैसा अभियान ही था। इस अभियान में करीब 363 बिश्नोईयों ने खेरजी पेड़ों की रक्षा के लिए अपने प्राण त्याग दिए थे।