#BBCShe ‘मुझे जानना है कि चरमपंथी कैसे बनते हैं’
पंजाब का जालंधर शहर छोटा सही पर यहां की लड़कियों के सपने बड़े हैं. BBCShe की बहस के लिए दोआबा कॉलेज में मिली ये लड़कियां पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही हैं.
उम्र 22-23 साल है पर मुद्दों पर गहरी समझ है. जानना चाहती हैं कि एक आम इंसान चरमपंथी क्यों बन जाता है या मुकदमे के दौरान जेल में कैद अभियुक्त की क्या कहानी है?
पंजाब का जालंधर शहर छोटा सही पर यहां की लड़कियों के सपने बड़े हैं. BBCShe की बहस के लिए दोआबा कॉलेज में मिली ये लड़कियां पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही हैं.
उम्र 22-23 साल है पर मुद्दों पर गहरी समझ है. जानना चाहती हैं कि एक आम इंसान चरमपंथी क्यों बन जाता है या मुकदमे के दौरान जेल में कैद अभियुक्त की क्या कहानी है?
पर अपनी पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी कर रही इन लड़कियों के मुताबिक, इन्हें शिक्षा और महिलाओं के सरोकार वाली कहानियां ही करने दी जाती हैं.
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ये हिंदी और पंजाबी भाषा के अख़बारों और वेबसाइट्स में काम कर रहीं हैं.
"मुझे कहा जाता है कि ये तुम्हारे लिए नहीं है, ये रहने दो और कोई प्रेस रिलीज़ पकड़ा दी जाती है."
जालंधर में कई मीडिया कंपनियों के दफ़्तर हैं. बल्कि इस शहर को पंजाब में न्यूज़ मीडिया का गढ़ माना जाता है.
लेकिन इन कंपनियों में औरतों की संख्या बहुत कम है. कहीं सौ लोगों की टीम में दस तो कहीं साठ लोगों में चार औरतें हैं.
उनसे बात की तो उन्होंने बताया कि छात्राओं की शिकायत काफ़ी हद तक वाजिब है.
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क्राइम, राजनीति या खोजी पत्रकारिता लड़कियों के लिए नहीं?
क्राइम, राजनीति या खोजी पत्रकारिता के लिए वक्त-बेवक्त निकलना पड़ता है और तरह-तरह के लोगों से मिलना होता है जिसे लड़कियों के लिए सही नहीं माना जाता.
लंबे घंटे काम करना, वो भी कम तन्ख़्वाह पर, परिवारों को पसंद नहीं.
आम तौर पर समझ ये है कि लड़कियां पढ़ाई पूरी कर बस दो-तीन साल तक काम करेंगी और फिर शादी हो जाएगी.
यानी लड़कियां अपने करियर को लेकर संजीदा नहीं हैं बस एक व्यावधान है, एक शौक़, जो पूरा कर वो आगे बढ़ जाएंगी.
इसलिए भी कई संपादकों की नज़र में बड़ी ज़िम्मेदारी का काम मर्दों को देना ही बेहतर है.
पर ऐसी बातें तो बीस साल पहले सुनने को मिलती थीं, क्या कुछ नहीं बदला है?
बड़े शहरों में या अंग्रेज़ी भाषा में काम कर रही मीडिया कंपनियों में माहौल बहुत अलग है. औरतों को ज़्यादा मौके मिलते हैं और अपनी पसंद के काम के लिए लड़ पाती हैं.
जालंधर में महिला पत्रकारों की संख्या बहुत कम
लेकिन जालंधर में क्षेत्रीय भाषा में काम कर रहीं पत्रकार बताती हैं कि उनकी संख़्या कम होने की वजह से फ़ैसले लेने में उनकी भूमिका कमज़ोर पड़ जाती है.
ऐसा नहीं है कि बदलाव नहीं हुआ. बीस साल पहले सौ लोगों के न्यूज़रूम में एक-दो औरतें थीं तो अब दस हैं. लेकिन ये अभी भी बहुत कम है.
जालंधर में छह विश्वविद्यालय हैं और सभी में पत्रकारिता की पढ़ाई हो रही है. इनमें से कई में लड़कियों की संख़्या लड़कों से ज़्यादा है.
लेकिन पढ़ाई पूरी होने के बाद नौकरी में यही अनुपात बिल्कुल उलटा हो रहा है.
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मीडिया का 'रूढ़िवादी' रवैया
एक छात्रा ने हमें कहा, "मां कहती हैं ये कैसा काम है, धूप में भटकती रहती हो, ख़ास पैसे भी नहीं मिलते, इससे अच्छी तो टीचर की नौकरी होती है, तुमसे कौन शादी करेगा?"
लेकिन इन छात्राओं को मां-बाप की सोच से इतनी परेशानी नहीं जितनी मीडिया के 'रूढ़िवादी' रवैये से है.
वो कहती हैं, "पत्रकारों के बारे में इतना सुना था कि वो खुली सोच वाले, ज़माने से आगे चलने वाले लोग होते हैं, पर ऐसा तो नहीं मिला."
"औरतों के मुद्दों पर आवाज़ उठानेवाले, लेख लिखनेवाले, खुद क्या कर रहे हैं, उन्हें सोचना चाहिए."
ये सब सुनकर जालंधर में लंबे समय से काम कर रहीं एक वरिष्ठ महिला पत्रकार ने कहा, "खुद में विश्वास होना बहुत ज़रूरी है. फिर ना आप खुद को औरत और अपने संपादक को मर्द होने के नज़रिए से देखेंगी, हम सब पत्रकार हैं, और अपने हक़ के लिए लड़ना हमारे हाथ में है."