अयोध्या विवाद: मुस्लिम पक्ष की दलील मस्जिद में मूर्ति हो, तस्वीरें बनी हो तो भी नमाज़ जायज़
बेंगलुरु। उच्चतम न्यायालय में अयोध्या विवाद की सुनवाई के 34वें दिन सोमवार को अयोध्या केस सुनवाई हुई। अयोध्या सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम पक्ष की ओर से निजम पाशा ने कहा कि कुरान और हदीस के मुताबिक भी कोई कैसे भी मस्जिद बना सकता है। किसी भी ज़मीन पर बिना मीनार और वजूखाना के मस्जिद बनाई जा सकती है। उन्होंने कहा कि पहले कभी मन्दिर भी रहा हो,वहां भी मस्जिद बनाई जा सकती है। इतना ही नहीं निजम पाशा ने कहा कि मस्जिद में कहीं मूर्ति हो या दीवारों-खंभों में नज़र में ना आने वाली तस्वीरें या मूर्तियां बनी हों तो भी नमाज़ जायज़ होती है। मस्जिदों में घंटियां भी इसलिए मना हैं क्योंकि रसूल को घंटियों की आवाज़ पसंद नहीं थी। इब्ने बतूता ने भी लिखा है कि भारत में मस्जिदों में भी कई जगह घंटियां थीं।
इमारत गिर भी जाए तो वो मस्जिद ही रहती है
मुस्लिम पक्ष की ओर से कहा गया कि बाबर पानीपत की लड़ाई जीतने के बाद निज़ामुद्दीन और कुतुब साहब की दरगाह पर गया। ये कहना गलत है कि इस्लाम मे कहीं भी कब्र को मत्था टेकने की इजाज़त नहीं है। अगर एक बार मस्जिद बन जाए फिर इमारत गिर भी जाए तो वो मस्जिद ही रहती है। इस पर जस्टिस बोबड़े कि लगातार नमाज़ की शर्त नहीं है? इस पर निजम पाशा ने कहा कि एक आदमी नमाज पढ़े तो भी मस्जिद रहती है। ये कहना भी गलत है कि मस्जिद में सोना और खाना बनाना मना है, ये सामाजिक और सांस्कृतिक स्थल है। जमात में आने वाले यहां रुकते हैं। इस पर जस्टिस नज़ीर ने कहा कि ये इस्लाम का इंडियन वर्जन है। सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम पक्ष की ओर से निजम पाशा ने कहा कि मस्जिद के डिजाइन का शरिया से कोई लेना-देना नहीं है। संप्रभु बादशाह के लिए तब कुरान कोई कानून नहीं था। लिहाज़ा कुरान की कसौटी पर बाबर के मस्जिद बनाने को पाप नहीं कह सकते क्योंकि उस समय राजा के हर कदम और कार्य को शरिया के मुताबिक देखने की ज़रूरत नहीं थी।
नाम में ही'निर्मोह'है, ऐसे में उन्हें जमीन का मोह नहीं रखना चाहिए
मुस्लिम पक्ष की ओर से निज़म पाशा ने कहा कि जब बाबर राज कर रहा था तो वह संप्रभु था, किसी के प्रति जवाबदेह नहीं था। उसने कानून और कुरान के हिसाब से राज किया। विरोधी पक्ष कह रहे हैं कि बाबर ने मस्जिद बनाकर पाप किया, लेकिन उसने कोई भी पाप नहीं किया। मुस्लिम पक्ष की ओर से वकील ने कहा कि बाबर उस वक्त सबसे ऊंची गद्दी पर था, इसलिए उसने मस्जिद बनाने का आदेश दिया।
इस दौरान जस्टिस बोबड़े ने कहा कि हम यहां बाबर के पाप-पुण्य का फैसला करने नहीं बैठे हैं, हम यहां कानूनी कब्जे पर दावे का परीक्षण करने के लिए बैठे हैं। मुस्लिम पक्ष की ओर से निज़ाम पाशा ने अदालत में कहा कि याचिका-ऐतिहासिक रिकॉर्ड के मुताबिक, 1885 में निर्मोहियों ने इमारत में अंदर घुसकर पूजा और कब्जे की कोशिश की। वैरागियों ने राम चबूतरे पर कब्जा किया था। इस पर अदालत ने कहा कि ये कानूनी मसला है। बता दें निज़म पाशा हाजी महबूब की ओर से दलील रख रहे हैं। मुस्लिम पक्ष की ओर से कहा कि हिंदू याचिकाकर्ता के तो नाम में ही 'निर्मोह' है, ऐसे में उन्हें जमीन का मोह नहीं रखना चाहिए. हालांकि, उन्होंने कहा कि हम सभी को यहां कानूनी तरीकों से आगे बढ़ना चाहिए।
मुस्लिम पक्षकार के वकील शेखर नाफडे की दलील
केस पर सुनवाई के दौरान मुस्लिम पक्ष की ओर से वरिष्ठ वकील शेखर नफाडे ने कहा कि महंत के पास अयोध्या में पूजा करने का अधिकार नहीं था, उन्हें ये अधिकार 1885 के बाद मिला है। नफाडे ने कहा कि हिंदुओं की ओर से याचिका मंदिर बनाने के लिए दायर की गई थी, ऐसे में फैसला पहले ही हो चुका है। इसलिए बार-बार मसला नहीं उठा सकते हैं। मुस्लिम पक्षकार के वकील शेखर नाफडे ने दलील दी कि 1885 के मुकदमे और अभी के मुकदमे एक जैसे ही हैं, दोनों में फर्क सिर्फ इतना है कि 1885 में विवादित स्थल के एक जगह पर दावा किया गया था और अब पूरे हिस्से में दावा किया गया है।
अब हिंदू अपने दावे के दायरे को बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। नाफडे ने आगे कहा कि सिविल लॉ के तहत उसी विवाद को हिंदू पक्षकार दोबारा नहीं उठा सकते। दोनों ही वाद की प्रकृति एक जैसी ही है और दोनों में कोई खास अंतर नहीं है। अगर अंतर की बात की जाए तो फर्क सिर्फ ये है कि तब इन्होंने एक हिस्सा भर पर अपना दावा पेश किया था और अब पूरे इलाके पर दावा ठोका जा रहा है यानी दोनों ही मुकदमे एक जैसे हैं। ऐसे में ये बड़ा सवाल है कि क्या इस तरह से एक ही वाद को बार-बार उठाया जा सकता है जबकि वाद पर 1885 में फैसला हो चुका है। जस्टिस अग्रवाल इस बात को स्वीकार चुके हैं कि एक हिस्से का दावा और पूरे हिस्से के दावे में फर्क नहीं है।
उन्होंने कहा कि 1885 में महंत रघुबर दास ने वाद दायर किया था। क्या उन्होंने हिंदुओं का प्रतिनिधित्व किया था या नहीं किया था ये बड़ा सवाल उठता है। जस्टिस अशोक भूषन ने कहा लेकिन जब दोनों केस के विषय को देखा जाए तो दोनों के कंटेंट में अंतर तो दिख रहा है उस अंतर को देखा जा सकता है। नाफडे ने दलील दी कि रेस ज्यूडीकाटा नियम (एक ही तरह के विषय पर दो बार वाद दायर नहीं किया जा सकता) को हाई कोर्ट ने नजरअंदाज कर दिया था।
शेखर नाफडे ने दलील दी कि जहां तक 1885 की बात है तो उस वक्त विवादित इलाके में हिंदुओं का प्रवेश सिर्फ बाहरी आंगन तक सीमित था। बाहरी आंगन में स्थित राम चबूतरा और सीता की रसोई तक हिंदुओं की पहुंच हुआ करती थी। राम चबूतरा बाहरी आंगन में स्थित था और हिंदू उसी राम चबूतरा को जन्मस्थान कहते थे। बाकी तमाम जगह मस्जिद की थी और मुस्लिम मस्जिद में नमाज पढ़ते थे। मस्जिद की जगह के संदर्भ में कोई दावा नहीं था।
नाफडे ने कहा सिर्फ सवाल ये है कि क्या मुस्लिम टाइटल पर दावा कर सकता है? वहां मस्जिद थी और उस पर कोई विवाद नहीं हो सकता क्योंकि उस पर किसी दूसरे पक्ष का कोई पहले दावा नहीं था। मस्जिद की मौजूदगी को स्वीकारा जा चुका है और उसे साबित करने की जरूरत नहीं है। राम चबूतरे पर छोटी सी मंदिर थी। बाकी पूरा इलाका मस्जिद का था और उस पर दूसरे पक्षकार का दावा नहीं था। वह उस एरिया को मस्जिद के तौर पर स्वीकार करते थे। इस बात को साबित करने की जरूरत नहीं है।
हिंदू पक्ष ने कहा एक खांचे में हिन्दू मंदिरों को नहीं बांध सकते
अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद जमीन विवाद मामले में मुस्लिम पक्षकारों की दलील पूरी होने के बाद हिंदू पक्षकार के वकील के. परासरण ने जवाब शुरू किया। विवादित जगह पर मूर्ति थी या नहीं थी। ये उतना महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है। पूजा तमाम तरह से होते हैं। कहीं मूर्ति होती है कहीं मूर्ति नहीं होती है। दरअसल पूजा का मकसद होता है कि देवत्व की पूजा हो। मूर्ति नहीं होने के आधार पर जन्मस्थान पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। इस तरह का सवाल उठाना उचित नहीं है।
हिंदू धर्म के मुताबिक एक गॉड सुप्रीम हैं उनके अलग-अलग रुपों की मंदिरों में पूजा होती है। परासरण ने कहा कि हिन्दू मान्यताओं में परम ईश्वर तो एक ही है लेकिन लोग अलग-अलग रूप, आकार और मंदिरों में उसकी अलग-अलग तरह से पूजा-उपासना करते हैं। उपासना स्थलों के आकार-प्रकार और वास्तु विन्यास अलग-अलग हैं, कहीं मूर्तियों के साथ तो कहीं बिना मूर्तियों के। कहीं साकार तो कहीं निराकार रूप में उपासना की पद्धति प्रचलित है। बस इन विविधताओं के बीच समानता यही है कि लोग दिव्यता या देवता की पूजा करते हैं। मंदिरों के वास्तु और पूजा पद्धति भी अलग-अलग है। आप एक खांचे या फ्रेम में हिन्दू मंदिरों को नहीं बांध सकते।
भगवान सुप्रीम हैं
जस्टिस बोबड़े ने परासरण से कहा कि आप न्यायिक व्यक्तित्व को साबित करने के 'देवत्व' पर जोर क्यों दे रहे हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। अगर ये कोई वस्तु है, या उत्तराधिकार का मामला है तो न्यायिक व्यक्तित्व की आवश्यकता है। हम देवत्व में क्यों आ रहे हैं? परासरण ने कहा कि हमें देवता के बारे में ध्यान करने को कोई आधार चाहिए। ताकि हम आध्यात्मिक दिव्यता की ओर जा सकें। के परासरण ने कहा कि हिंदू धर्म में ईश्वर एक होता है और सुप्रीम होता है। अलग रूप में अलग प्रकार से अलग-अलग मंदिरों में पूजा होती है। राजीव धवन ने परासरण की दलील पर विरोध किया। उन्होंने कहा ये जो उदाहरण दे रहे हैं इसका इस केस से कोई लेना-देना नहीं हैं। इन्होंने हमारे उठाए सवाल का जवाब नहीं दिया।
परासरण ने कहा कि धवन ने हमारे सवालों पर चार दिन जवाब दिया, लेकिन मेरे बोलने पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। मैं जो भी बोल रहा हूं उसका मतलब है। उन्होंने कहा जब तक न्यायिक व्यक्तित्व नहीं होंगे तब तक संरक्षित नहीं होंगे। भगवान का आकार नहीं होता। साधारण आदमी को भगवान को बिना किसी आकृति के समझ पाना मुश्किल काम है। साधारण भक्तों को पूजा के लिए भगवान में ध्यान केंद्रीत हो इसके लिए मूर्ति, तस्वीर मंदिर में रखी जाती है। बिना देवत्व के हिंदू धर्म नहीं हो सकता। कोई मूर्ति खुद में न्यायिक व्यक्तित्व नहीं होता लेकिन प्राण प्रतिष्ठा के बाद वह न्यायिक व्यक्तित्व हो जाते हैं।
परासरण ने कहा कि स्वयंभू दो प्रकार के होते हैं, एक तो मूर्ति रूप में, दूसरे जो स्वयं प्रकट होते हैं। हमारे यहां भूमि भी स्वयंभू होती है। परासरण ने जमीन की दिव्यता के बारे में बताते हुए कहा कि जरूरी नहीं कि भगवान का कोई निश्चित रूप हो, लेकिन सामान्य लोगों को पूजा करने के लिए एक आकृति की ज़रूरत होती है जिससे लोगों का ध्यान केन्द्रित हो।
जस्टिस बोबड़े ने पूछा कि आपको इस जमीन को ज्यूरिस्टिक पर्सन बताने के लिए दिव्य साबित करने की जरूरत क्यों पड़ रही है। एक जहाज भी न्यायिक व्यक्ति होता है लेकिन वो दिव्य नहीं होता। परासरण ने कहा कि सामान्य लोगों को पूजा करने के लिए भगवान के एक रूप की जरूरत पड़ती है जबकि जो लोग आध्यात्म में काफी ऊपर उठ चुके होते हैं उनके लिए ये जरूरत नहीं पड़ती। परासरण ने कहा कि जब तक न्यायिक व्यक्तित्व नहीं ठहराया जाता, भगवान की रक्षा नहीं की जा सकती। मूर्ति स्वयं ज्यूरिस्टिक व्यक्तित्व नहीं है बल्कि इसके अभिषेक के बाद यह न्यायिक व्यक्ति के रूप में विकसित होती है। इसकी पूजा का उद्देश्य है, जो इसे एक न्यायिक व्यक्ति बनाता है।
हिंदु पक्ष ने मध्यस्थता से किया इंकार
सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या केस की चल रही सुनवाई में फिर एक नया मोड़ आ गया है। सोमवार को सुनवाई के दौरान हिंदू पक्ष ने साफ कहा कि उन्हें मामले पर कोई मध्यस्थता (कोर्ट के बाहर समझौता) नहीं करनी है। सुनवाई के 34वें दिन सुप्रीम कोर्ट में राम लला विराजमान की तरफ से पेश वकील के बयान के बाद मध्यस्थता की कोशिशों को झटका लगा है। वहीं, मुस्लिम पक्षकार के वकील शेखर नाफडे ने दलील दी कि 1885 के मुकदमे और अभी के मुकदमे एक जैसे ही हैं, दोनों में फर्क सिर्फ इतना है कि 1885 में विवादित स्थल के एक जगह पर दावा किया गया था और अब पूरे हिस्से में दावा किया गया है। अब हिंदू अपने दावे के दायरे को बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। नाफडे ने आगे कहा कि सिविल लॉ के तहत उसी विवाद को हिंदू पक्षकार दोबारा नहीं उठा सकते।
हिंदू पक्ष को दलील गुरुवार करनी होगी जिरह पूरी
चीफ जस्टिस ने कहा कि अगर 18 अक्टूबर तक सुनवाई खत्म नहीं होती है तो जल्द फैसले की उम्मीद खत्म हो जाएगी। इसी के बाद से इस मामले में फैसले की उम्मीद दिखने लगी है। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एसए बोबडे, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर की संविधान पीठ ने शाम 5 बजे सुनवाई खत्म करने से पहले हिन्दू पक्षकारों को यह निर्देश दिया। न्यायालय ने कहा कि उसके अगले दिन यानी शुक्रवार को वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन सुन्नी वक्फ बोर्ड की तरफ से दलीलें पेश करेंगे। बुधवार को गांधी जयंती के अवसर पर शीर्ष अदालत में छुट्टी रहेगी। बता दें हिन्दू पक्ष से जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति के वकील पीएन मिश्रा ने संविधान पीठ से और समय की मांग की तो मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि हमारे पास समय नहीं है, आप वे चीज मांग रहे हैं, जो हमारे पास है ही नहीं।